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“युगों युगों से रक्षाबंधन का पर्व है, हिंदुत्व का रक्षासूत्र”

रक्षासूत्र का मंत्र है- ‘येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल:। इस मंत्र का सामान्यत: यह अर्थ लिया जाता है कि दानवीर महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूँ । हे रक्षे! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो।युगों युगों से यह मंत्र रक्षाबंधन का मूलाधार है, जिसमें असुर राज बलि को माँ लक्ष्मी ने रक्षा सूत्र बाँधकर अपने पति भगवान् विष्णु को मुक्त कराया था। यह उपाख्यान उन तथाकथित सेक्यूलरों, ईसाई मिशनरियों और वामियों को करारा तमाचा है, जिन्होंने हिन्दू धर्म में वर्ण – जाति, ऊँच – नीच, सुर – असुर के नाम पर भेदभाव होने का मकड़जाल फैलाया है, क्योंकि इस पर्व की नींव असुर राज बलि ने माँ लक्ष्मी से रक्षासूत्र बँधवाकर रखी।

वस्तुतः रक्षाबंधन का बहुत व्यापक स्वरुप है। यह केवल भाई-बहिन तक सीमित नहीं है, वरन् सर्वव्यापी है। सावन के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन शिव समस्त प्रकृति को रक्षा का वचन देते हैं। यह रक्षा वचन चाहे व्यक्ति से हो, या वचन से हो, या संबंध से हो, या राज्य से हो या फिर परिजनों से हो।

रक्षा का जो तत्व है और वही शिव तत्व है। बहिनों को भाई रक्षा वचन देते हैं इसके पीछे भी शिव तत्व है, जिस प्रकार आस्तिक और नास्तिक शिव के निकट हो या दूर हों समस्त जीवों की शिव रक्षा करते हैं। किसी भी संकट में कोई बहन हो तो भाई रुपी शिव रक्षा का वचन निभाते हैं और इसके लिए सदैव तत्पर रहते हैं।

इसलिए हिन्दुओं ने युगों युगों से आज तक रक्षा का यह बंधन समाज, देशों,राज्यों और धर्मों के साथ बांध रखा है। रक्षाबंधन भारत वर्ष की एकता और अखंडता का अनोखा पर्व है जो वसुधैव कुटुम्बकम् के आलोक में एक दूसरे की रक्षा के लिए रक्षा सूत्र में बांधता है।

एतदर्थ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रक्षाबंधन के पर्व को प्रमुखता से मनाने की संस्तुति करता है। जाति, वर्ण के ऊपर उठकर राष्ट्र के लिये प्राण देने की प्रेरणा रक्षाबंधन ने दी है। राष्ट्र को परमवैभव के शिखर तक ले जाने के लिये स्थापित हुये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मूलभूत सिद्धांत एवं आदर्श जैसे राष्ट्र निर्माण, व्यक्ति निर्माण, स्वत्व जागरण, समरस समाज निर्माण, समाज संगठन आदि रक्षाबंधन के आधारभूत मूल्यों के साथ मेल खाते हैं।

पौराणिक और ऐतिहासिक साक्ष्यों व संदर्भों का भारत के पर्वों से गहरा नाता रहा है और विभिन्न अंचलों में मनाए जाने के विविध स्वरुप भी विविधता में एकता के पर्याय हैं।ऐंसे तो रक्षाबंधन से जुड़ी हर युग में अनूठी गाथाएं हैं, परंतु कतिपय मार्गदर्शी हैं इसलिए उल्लेखनीय भी हैं। यह चिर परिचित और हृदयस्पर्शी कथा है कि भगवान् विष्णु ने वामन अवतार लेकर असुर राज राजा बलि से सब कुछ ले लिया और पाताल लोक का राज्य रहने के लिए दिया, तब बलि ने भी तिर्बाचा कराकर दांव खेला और बोले हे! विष्णु “मैं जब सोने जाऊं तो, जब उठूं तो, जिधर भी दृष्टि जाए उधर आपको ही देखूं “। इस प्रकार भगवान् विष्णु को प्रहरी बना लिया।माँ लक्ष्मी चिंतित हुईं और भगवान् विष्णु की मुक्ति के लिए नारद मुनि से विचार-विमर्श किया, तदुपरांत एक सुंदर स्त्री के रुप में पाताल पहुँचकर राजा बलि के सामने विलाप करने लगीं। राजा बलि ने विलाप का कारण पूंछा तब वेश बदले माता लक्ष्मी ने बताया कि उनका कोई भाई नहीं है जिसे रक्षासूत्र बांधे तभी बलि ने कहा कि आप मेरी धर्म बहिन बन जाएं। तदुपरांत माँ लक्ष्मी ने, राजा बलि को रक्षासूत्र बांधकर, तिर्बाचा कराया और उपहार में प्रहरी भगवान् विष्णु को मांग लिया। रक्षाबंधन पर्व आरंभ हुआ।

एक और मर्मस्पर्शी कहानी ब्रह्मांड के सर्वोच्च देवता भगवान विष्णु और पार्वती की है। पार्वती हमेशा भगवान शिव से विवाह करना चाहती थीं, लेकिन अपने प्रेम सती के वियोग के कारण भगवान शिव उनसे विवाह करने से मना कर दिया। तब पार्वती ने भगवान शिव से विवाह करने के लिए कठिन तपस्या की और भगवान विष्णु भी उनकी सहायता के लिए आए। भगवान विष्णु ने पार्वती से उनकी कलाई पर एक धागा बांधने के लिए कहा, ताकि वह उनके रास्ते में आने वाली किसी भी बाधा का अंत कर सकें। अंततः पार्वती ने भगवान शिव से विवाह किया और भगवान विष्णु ने एक भाई के रूप में विवाह समारोह में अपने कर्तव्यों का पालन किया।

सतयुग में हर वर्ष जब अशोक सुंदरी और मनसा भगवान गणेश को राखी बांधने आती थीं तो उनके दोनों बेटे शुभ और लाभ उदास हो जाते थे, क्योंकि उनकी कोई बहन नहीं थी। दोनों भाइयों ने अपने पिता भगवान गणेश से एक बहन मांगी और भगवान ने उनकी इच्छा पूरी की। गणेश जी ने अग्नि से एक कन्या को उत्पन्न किया, जो संतोषी मां थीं। बेटे, शुभ और लाभ एक बहन पाकर अत्यंत प्रसन्न थे,जो हर रक्षाबंधन पर उन्हें राखी बांधती थीं।

यह भी प्रचलित है कि इंद्राणी (शचि) ने अपने पति देवराज इंद्र को अपने गुरु बृहस्पति के निर्देशानुसार श्रावण माह की पूर्णिमा तिथि को भगवान् विष्णु द्वारा दिया गया रक्षासूत्र बांधा था जिससे देव-दानव युद्ध में उनकी रक्षा भी हुई और महान् दधीचि की अस्थियों से बने वज्र से इंद्र वृत्रासुर का वध कर पाए।

त्रेतायुग में भगवान राम की एक बड़ी बहन थीं जिनका नाम शांता था। धार्मिक पुराणों के संदर्भ से माता कौशल्या की बहन वर्षिनी को कोई संतान न होने के कारण राजा दशरथ ने वर्षिनी को अपनी पुत्री शांता गोद दे दी थी, परंतु यह सर्वश्रुत है कि, शांता अपने चारों भाइयों को राखी बांधती थीं। इसके अतिरिक्त आज भी देश की बहुत सी बहिनें ऐंसी हैं, जो भगवान राम को अपना भाई मानती हैं और रक्षाबंधन को उन्हें राखी भेजती हैं जिसे रामलला को बांधा जाता है। राम लला को राखी बांधने की परंपरा बहुत पुरानी है। यह परंपरा रामलला के दरबार में आज भी विधि-विधान से निभाई जाती है।

यह कथा भी प्रचलित है कि मृत्यु के राजा भगवान यम और नदी यमुना भाई-बहन थे | यमुना ने बारह वर्षों से अपने भाई को नहीं देखा था और उन्हें उनकी बहुत याद आती थी, फिर वह मदद के लिए मां गंगा के पास गईं। देवी गंगा ने भगवान यम को अपनी बहन से मिलने जाने के लिए कहा।

भगवान यम ने माँ गंगा की बात सुनी और अपनी बहन से मिलने गये जिन्होंने उनका प्रसन्नतापूर्वक स्वागत किया और उन्हें मिठाइयाँ और स्वादिष्ट भोजन दिया। यमुना ने यम की कलाई पर राखी भी बांधी। भगवान यम इस भाव से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने अपनी बहन को अमरता का आशीर्वाद दिया। उन्होंने यह भी घोषणा की कि जो भी भाई अपनी बहन से राखी बंधवाएगा और अपनी बहन की रक्षा करेगा, वह अमर हो जाएगा।

द्वापर युग में सुभद्रा भगवान कृष्ण और बलराम की प्यारी बहन थीं। वह महान योद्धा अर्जुन से विवाह करना चाहती थी, भाई बलराम इसके पक्ष में नहीं थे,परन्तु भगवान कृष्ण थे। उन्होंने अर्जुन से सुभद्रा के विवाह का न केवल समर्थन किया वरन् संपन्न भी कराया था। यह भाई-बहिन का बंधन इतना मजबूत और प्रिय है कि जगन्नाथ पुरी में श्री कृष्ण और, बलराम के साथ सुभद्रा जी की भी पूजा की जाती है। इसी युग में शिशुपाल के अपमान से क्रोधित होकर श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका वध कर दिया। जब चक्र उड़कर भगवान के पास वापस आया तो उससे उनकी उँगली कट गयी । यह देखकर द्रौपदी ने तुरंत अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़कर भगवान कृष्ण की उंगली पर लपेट दिया। तब भगवान कृष्ण ने जरूरत के समय उनकी रक्षा करने का वचन दिया। पांडव जब द्रौपदी को द्यूत क्रीड़ा में हार गए तब द्रोपदी के चीरहरण के समय भगवान् श्रीकृष्ण ने उनकी रक्षा की। रक्षाबंधन अर्थात् वह बंधन, जो हमें सुरक्षा प्रदान करे। सुरक्षा किससे? हमारे आंतरिक और बाहरी शत्रुओं, रोग व ऋण से। राखी का मान करें। अपने भाई-बहन के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना रखें। फैशन न बनाएं।

इतिहास गवाह है कि इस युग में जब राजा पुरु से सिकंदर पराजित हुआ तब सिकंदर को मृत्यु दंड से बचाने के लिए उसकी पत्नी रेक्सोना ने पुरु को राखी भेजी। जिसका मान रखते हुए पुरु ने सिकंदर को मुक्त ही नहीं किया वरन् घायल सिकंदर को भारत से सकुशल निकालने में सहायता भी की थी। त्रिपुरी राज्य में 915 – 945 ईस्वी में कलचुरि कालीन शासक शंकरगण द्वितीय के दो बेटे बाल हर्ष और युवराज देव प्रथम थे। उनकी दो बेटियां लक्ष्मी और गोविंदाम्बा भी थीं। दोनों की शादी राष्ट्रकूट शासक नरपति जगतुंग से हुई थी। युवराज देव प्रथम पर गुर्जर प्रतिहारों ने हमला किया तब बहन लक्ष्मी ने अपने भाई की रक्षा के लिए अपने बेटे इंद्र तृतीय को भेजा और राष्ट्रकूट शासन की ओर से सहायता दिलवाई। इसी तरह युवराज देव प्रथम की पत्नी नोहला देवी ने चोल राजा परांतक प्रथम को राखी बांधी और युवराज देव प्रथम की रक्षा के लिए कहा।

महान् गोंडवाना साम्राज्य की साम्राज्ञी रानी दुर्गावती ने सदैव भातृत्व नीति का अनुसरण किया था। बिहार से आए महेश ठाकुर को राखी बांधी और मंत्री बनाया। अपने दीवान आधार सिंह को भी राखी बांधी। इनके साथ ही अफगान शासक शम्स खान मियानी और मुबारक अफगानी को भी रानी दुर्गावती ने राखी बांधी थी। इन सभी भाईयों ने अपनी बहिन रानी दुर्गावती की रक्षा के लिए कपटी, धूर्त और लंपट मुगल शासक अकबर के सेनापति आसफ खान से भीषण युद्ध लड़े और पूर्णाहुति दी। कहीं-कहीं रानी कर्णावती और हुमायूं का भी उल्लेख मिलता है। 18 वीं शताब्दी में अरविंद पाल सिंह मंदैर के अनुसार सिख शासकों ने रक्षाबंधन को राखी का नाम दिया। जिसका उद्देश्य मुगलों से किसानों की रक्षा करना था। आधुनिक काल में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में रक्षाबंधन पर्व ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सन् 1905 में बंगाल विभाजन के समय जब हिन्दू – मुस्लिम वैमनस्यता चरम पर आ रही थी तब गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने स्थिति सुधारने के लिए हिंदुओं – मुस्लिमों द्वारा आपस में राखी बंधवाई थी, जिससे भाईचारा स्थापित हुआ था।

स्वाधीनता संग्राम के दौरान रक्षाबंधन में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की बहनें अपने भाईयों से राखी की चुनौती के रूप में क्या अपेक्षा रखती थीं? यह महान् स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीरांगना श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान की कालजयी कविता से स्पष्ट हो जाता है, जो उसे समय सभी भाईयों की कंठहार बन गई थी। इसका शीर्षक ‘राखी की चुनौती’ ही था –

“बहिन आज फूली समाती न मन में।
तड़ित् आज फूली समाती न घन में॥
घटा है न फूली समाती गगन में।
लता आज फूली समाती न वन में॥
कहीं राखियाँ हैं चमक है कहीं पर,
कहीं बूँद है, पुष्प प्यारे खिले हैं।
ये आई है राखी, सुहाई है पूनों,
बधाई उन्हें जिनको भाई मिले हैं॥
मैं हूँ बहिन किंतु भाई नहीं है।
है राखी सजी पर कलाई नहीं है॥
है भादों, घटा किंतु छाई नहीं है।
नहीं है ख़ुशी पर रुलाई नहीं है॥
मेरा बंधु माँ की पुकारों को सुनकर
के तैयार हो जेलख़ाने गया है।
छीनी हुई माँ की स्वाधीनता को
वह ज़ालिम के घर में से लाने गया है॥
मुझे गर्व है किंतु राखी है सूनी।
वह होता, ख़ुशी तो क्या होती न दूनी?
हम मंगल मनावें, वह तपता है धूनी।
है घायल हृदय, दर्द उठता है ख़ूनी॥
है आती मुझे याद चित्तौरगढ़ की,
धधकती है दिल में वह जौहर की ज्वाला।
है माता-बहिन रोके उसको बुझातीं,
कहो भाई तुमको भी है कुछ कसाला?
है, तो बढ़े हाथ, राखी पड़ी है।
रेशम-सी कोमल नहीं यह कड़ी है॥
अजी देखो लोहे की यह हथकड़ी है।
इसी प्रण को लेकर बहिन यह खड़ी है॥
आते हो भाई? पुनः पूछती हूँ—
कि माता के बंधन की है लाज तुमको?
—तो बंदी बनो, देखो बंधन है कैसा,
चुनौती यह राखी की है आज।।”

संपूर्ण भारतवर्ष में रक्षाबंधन का यह पर्व विभिन्न नाम और स्वरूप प्रचलित है। रक्षाबंधन को श्रावणी भी कहते हैं। पंजाब में रक्षाबंधन पर्व राखड़ी या राखरी के रुप में, गुजरात में इस त्यौहार को पवित्रोपन्ना के रूप में, पश्चिम बंगाल में झूलन पूर्णिमा, तमिल में राखी विझा, उत्तर प्रदेश, बिहार झारखंड में रक्षाबंधन,उत्तरांचल में श्रावणी, महाराष्ट्र में नाराली या नारियल पूर्णिमा, तमिलनाडु में अवनी अवित्तम, आंध्र प्रदेश तेलंगाना में राखी पूर्णिमा, केरल में सुथा पूर्णिमा और उड़ीसा में गम्हा पूर्णिमा के रुप में मनाई जाती है। जबकि राजस्थान में रक्षाबंधन रामराखी चूड़ाराखी और लुंबा राखी के नाम से प्रसिद्ध है। लुंबा राखी की परंपरा अनोखी है इसमें बड़े भाई के साथ-साथ भाई की पत्नी यानि भाभी की कलाई पर भी राखी बांधते हैं, इसे लुंबा राखी कहा जाता है। भाभी, भाई की अर्धांगिनी होती है इसलिए उन्हें भी राखी बांधी जाती है और तभी यह त्यौहार पूरा माना जाता है। वस्तुतः अमरनाथ की यात्रा गुरु पूर्णिमा से प्रारंभ होकर रक्षाबंधन पर समाप्त होती है। मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कजरी पूर्णिमा के रूप में भी इस उत्सव को मनाया जाता है। बुंदेलखंड में तो रक्षाबंधन के दूसरे दिन कजलियों का त्यौहार मनाया जाता है, जिसका उल्लेख महान् कवि जगनिक के आल्हा खंड में मिलता है, तदनुसार यह पर्व भाई और बहिन के प्रेम और विजय का प्रतीक है। इस दिन बहनें कजलियां (भुजरियां) सिराने जाती हैं और तब तक ना वह भोजन ग्रहण करती हैं, ना ही वह कंघी करती हैं। भारतीय जनजातियों में भी यह त्यौहार प्रमुखता से मनाया जाता है। जनजाति समाज कुल देवता की उपासना के उपरांत तेंदू के लकड़ी, शतावर और भेलवां के पत्ते की पूजा कर उसे राखी बांधते हैं, इसे राखी खूंटा कहा जाता है। जनजातियों के पुरोहित बैगाओं का विश्वास है कि राखी खूंटा को खेतों में लगाने के से न केवल उन्नत फसल होती है वरन् बुरी नजर नहीं लगती है। भारत की बहिनें सीमा पर तैनात सैनिकों को अपना भाई मानती हैं और उन्हें प्रतिवर्ष राखी भेजते हैं। यह त्यौहार जैन समाज में भी प्रचलित है, उनके मतानुसार इस दिन विष्णु कुमार नामक मुनिराज ने 700 जैन मुनियों की रक्षा की थी।

रक्षाबंधन पर्व हम सभी देशवासियों का प्रमुख पर्व है, और यही प्रेरणा देता है कि हम देश व धर्म की रक्षा के लिए कृत संकल्पित हों। यह धर्मनिरपेक्ष पर्व है, तो आईये रक्षाबंधन के पवित्र और पुनीत पर्व पर जाति – धर्म की बेड़ियों से ऊपर उठकर एक दूसरे को इस संकल्प के साथ रक्षासूत्र बांधें कि भारत को समर्थ भारत-समरस भारत – श्रेष्ठ भारत बनाएंगे।रक्षाबंधन पर्व वसुधैव कुटुम्बकम् के आलोक में संपूर्ण विश्व को यही संदेश देता है कि “ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।”

लेखक -डॉ. आनंद सिंह राणा