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लक्ष्मीबाई की वीरता, तलवार का वार 

हेमेन्द्र क्षीरसागर

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई 1857 की राज्यक्रान्ति की द्वितीय शहीद वीरांगना थीं। वीरांगना का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1828 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनकी माँ का नाम भागीरथी बाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। माता भागीरथी बाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान और धर्मनिष्ठ स्वभाव की थी तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। क्योंकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाने लगे। जहाँ चंचल और सुन्दर मनु को सब लोग उसे प्यार से “छबीली” कहकर बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्र की शिक्षा भी ली।

सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।

बाद झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। झलकारी बाई जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी को उसने अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया। ग्वालियर के फूल बाग इलाके में मौजूद उनकी समाधि आज भी उनके साहस और शौर्य की कहानी बयां कर रही है। घुड़सवारी में कुशल, लक्ष्मीबाई के पास तीन घोड़े भी थे, जिनका नाम सारंगी, बादल और पवन था। जिनकी सवारी से उन्होंने अंग्रेजों के रण को भेदकर उन्हें हलाकान कर दिया।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम की महान योद्धा रानी लक्ष्मीबाई अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी; हमको जीवित करने आयी, बन स्वतन्त्रता नारी थी। लक्ष्मीबाई को दुर्गा का अवतार कहा जाता था? जैसे देवी दुर्गा ने राक्षसों का वध किया वैसे ही लक्ष्मीबाई भी अंग्रेजों से लोहा ले रही थीं। लक्ष्मीबाई की वीरता, तलवार का वार व शत्रु सेना को घेरने की व्यूह रचना देखकर मराठे पुलकित होते थे। युद्ध जैसे कार्य मर्दों के लिए माने जाते हैं परन्तु लक्ष्मीबाई ने इसे गलत साबित करते हुए युद्धभूमि में शस्त्र उठाकर उन्होंने मर्दों जैसी वीरता तथा गुणों को दिखाया इसलिए सुभद्रा कुमारी चौहान लक्ष्मीबाई को ‘मर्दानी’ कहती हैं।

18 जून 1858 को महज 29 वर्ष की उम्र में युद्ध के 17 वें दिन जब खूब लड़ी मर्दानी, अपनी मातृभूमि के लिए जान देने से भी पीछे नहीं हटी। ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’ अदम्य साहस के साथ बोला गया यह घोष वाक्य बचपन से लेकर अब तक हमारे साथ है।

लेखक एक पत्रकार व स्तंभकार