Trending Now

विरांगना दुर्गावती की यशोगाथा….

वनवासी समाज की वी यशस्वी परम्परा का उल्लेख त्रेतायुग, सतयुग एवं डायर के स्थ पौराणिक संदर्भो से भली भाँति समझा जा सकता है। भारतीय साहित्य में उनकी वीरता, शौर्य समर्पण एवं भक्ति व स्नेह के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं।

देश की आजादी के लिये चले संघर्ष में भी इन वनवासी बंधुओं का योगदान सराहनीय रहा है। यह समाज राजवंश बाह्य आक्रान्ताओ, ब्रिटिश शासकों सभी की दुर्भावनापूर्ण नीतियों का शिकार होता रहा। इस स्वाभिमानी, अभावग्रस्त क्षेत्र में गुजर-बसर करने वाले समाज को पहले शस्त्र के आधार पर, फिर शास्त्रों के आधार पर बीहड़ जंगलों में ही ढ़केला गया।

इसी क्रम में गौंडवाना राज्य का अस्तित्व भी अति प्राचीन माना जाता है। इस राज्य पर मौर्यों, सतवाहनों, बोधि, गुप्तों और हर्ष का भी आधिपत्य रहा है। अंतिम कलचुरि शासक विजयसिंह था। पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में गौंड राजाओं का इस क्षेत्र में आधिपत्य स्थापित हुआ। इसके अंतर्गत गढ़ा, कढ़ा-कटंगा, गढ़ा-मण्डला और गौंडवाना नाम से प्रख्यात हुआ।

स्वामी रामदेव on Twitter: "शौर्य,साहस,वीरता,पराक्रम की प्रतिमूर्ति वीरांगना  #रानी_दुर्गावती, जो विदेशी आतताइयों के लिए साक्षात रणचंडी-दुर्गा ...

गौंडवाना राज्य के संस्थापक के रूप में यादवराव (1370 से 1422ई.) का उल्लेख मिलता है। इस राज्य को भू-भाग, गढ़ों से सुसज्जित करने का श्रेय आम्हणदास उपाख्य संग्रामशाह को प्राप्त हुआ। संग्रामशाह दलपतशाह का पिता और उसे वीरांगना दुर्गावती का श्वसुर होने का यश प्राप्त हुआ।

वीरांगना दुर्गावती पूर्ण स्वतंत्र, सत्ता सम्पन्न अपने राज्य की अधिष्ठात्री साम्राज्ञी थी। रामनगर किले से प्राप्त शिलालेख में उल्लेख मिलता है कि “स्वयं समारूह्य गजरणेषु, बलाज्जयंती प्रबलान्वि पक्षान सदा प्रजा पालन-सावधाना, सा लोकपालान्वि फलीचकार।”

रानी दुर्गावती स्वयं गज पर आरूढ़ होकर युद्ध स्थल पर जाती थी। साढ़े चार सौं वर्ष पूर्व पहले देश की आजादी और सम्मान श्के लिये अपने नाबालिग पुत्र कुंअर वीरनारायण के साथ अपना सर्वस्वn अर्पण कर दिया था। न केवल युद्ध स्थल में वीरता प्रदर्शन वरन उनकी प्रजावत्सलता की गाथायें आज भी जन त्रुटियों में चर्चित हैं। अकबर नामा में भी उल्लेख मिलता है कि “रानी ने बाज बहादुर और मियाना अफगानों पर भी विजयश्री प्राप्त की थी। रानी का निशाना अचूक था। तीर और बन्दूक चलाती थीं।”

अपने गौंडवाना राज्य में अपनी प्रजा के लिये तालाब- मन्दिर-धर्मशालाओं का बाहुल्य इस बात का द्योतक है कि वे प्रजावत्सल थीं। गढ़ा-पुरवा क्षेत्र स्थित विशाल जलाशय, बाजनामठ मन्दिर, जबलपुर-दमोह गार्म पर स्थित सिंगरामपुर के किले गौ डराजाओं के शौर्य एवं प्रजावत्सलता के प्रतीक हैं।

पं. गणेश दत्त पाठक ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि एक बार रानी दुर्गावती ने एक करोड़ सोने की मुहरें दान की जिससे उनकी कीर्ति और यश चारों ओर फैल गया था। वीरांगना रानी दुर्गावती के यश, त्याग-तपस्या और स्वाभिमान की रक्षा के अनेक किस्से बहुचर्चित हैं। इस तरह की अनेक यशोगाथायें माट-चारणों द्वारा प्रचारित घटनाओं का विवरण स्थानीय लोक गीतों में भी झलकता है।

राजा संग्रामशाह से लेकर रानी दुर्गावती तक 83 वर्षां तक गढ़ा-मण्डला राज्य वैभव एवं विस्तार का सर्वगुण कहा जाता है। सेना में पैदल, घुड़सवार एवं हाथी शामिल होते थे। तीर, बाण, भाला आदि ये सिद्धहस्त सैनिक शामिल किये जाते थे।

उस समय न्याय व्यवस्था भी सरल थी। सर्वोच्च निर्णय राजा की ही होता था। समाज में पंचायत प्रथा भी विद्यमान थी। सरदारों के अधीन छोटे-छोटे रखने का चलन था। रानी दुर्गावती काल की सुन्दर सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था की सराहना लोकगीतों के माध्यम से आज भी सुनने में आ जाती है।

आसिफखाँ के आक्रमण के समय घाटी के युद्ध में नर्रई नाले के पास एक तीर रानी की कनपटी पर लगा, दूसरे तीर से घायल होने पर स्वयं अपनी कटार से अपना ने बलिदान दे दिया। रानी दुर्गावती के बलिदान के बाद उनके पुत्र वीरनारायण का युद्ध सन् 1564 में चौरागढ़ के किले के पास हुआ था, जिमें वे शहीद हुये।

इसके बाद चन्द्रशाह ने, जो उनका देवर वं था 23 वर्ष शासन किया बताया जाता है कि उनका राज्यकाल 1788 में समाप्त हुआ। इस प्रकार गौंडवाना राज्य की सुदृढ़ नींव जो सन् 1370 में यादवराव द्वारा रखी गयी थी और जिसे 16वीं शताब्दी में रानी दुर्गावती (1570 से 1564 ई.) ने वैभव के उच्चशिखर पर पहुंचाया था, 414 वर्ष के अंतराल में अवसान के निकट पहुंच गया।

महारानी दुर्गावती और उनके गौंड राज्य प्रवचन की गाथा के विद्यमान स्तम्भ जबलपुर स्थित मदनमहल किला, अधारताल स्थित विशाल जलाशय, मंडला शहर में स्थित रामनगर किला, रानी महल, अनके मंत्री ऊधमसिंह का आवास “दीवान महल” आज भी उसी गाथा के मौन साधक के रूप में अवस्थित हैं।

जबलपुर और मण्डला जिले के संग्रहालयों में अभी भी अनेक वस्तुओं एवं तत्कालीन गौंड राजाओं की प्रशस्ति का बखान करने वाली मूर्तियाँ एवं अवशेषों को निहार कर उस स्वर्णकाल की स्मृतियों को संजोया जा सकता है। कभी जबलपुर 52 तलाबों का शहर कहा जाता था। फिर भी अभी रानी की यशोगाथा ईके लिये रानी द्वारा निर्मित कराया गया रानीताल तालाब जिसके एवं हिस्से में स्टेडियम बना दिया गया है,

पास ही स्थित चेरीताल तालाब अब अपना अस्तित्व खो चुका है, उसमें बस्ती बस गयी है। यही संकेत मिलता है कि रानी के शासन काल पानी की मितनी अच्छी व्यवस्था रही होगी। स्थान-स्थान पर मठ-मन्दिरों का निर्माण यही दर्शाता है कि प्रशासन प्रजाहितैषी और धर्मप्रधान रहा है

जबलपुर का ‘बाजना-मठ’ ऐसा प्रेरक स्थल बन गया है, जहां दिन-रात अस्थिवान भक्तों को मेला सा लगा रहता है। गौंड राजा-महाराजा शान्ति प्रिय थे तथा प्रजा के हित में व धर्मार्थ कार्यों में अत्यधिक रूचि लेते थे। बरमान में नदी तट पर विद्यमान भव्य मन्दिर, धर्मशालायें इसी तथ्य के द्योतक हैं।

यह अत्यंत दुःखद पहले हैं कि आजादी की लड़ाई और उसके पूर्व किये गये वनवासी बंध शुओं के संघर्ष का और आन्दोलन विवरण को तत्कालीन इतिहास लेखन में न्यायपूर्ण स्थान नहीं दिया गया। आज हम ‘जल संरक्षण’ की बातें कर रहे हैं। चार सौ साल पहले रानी दुर्गावती ने ‘जल संरक्षण के महत्व को समझा था, इतना ही नहीं पानी के बहाव का सदुपयोग करते हुये एक से दूसरे जलाशय में (बिना पम्प की सहायता के) जल भराव होता रहा है।

प्रख्यात कवि गीतकार एवं लेखक प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ की एक ओजस्वी कविता है-जिसमें रानी दुर्गावती का विस्तार से चित्रण हुआ है। 23-24 जून 1564 का रानी दुर्गावती और आसफ खाँ के बीच हुआ युद्ध इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि युद्ध की स्थिति में राजा स्वयं युद्ध के मैदान में, राजा की अनुपस्थिति में रानियाँ युद्ध के लिय जाती थीं। सम्पूर्ण उन्होंने स्वयं (रानी दुर्गावती) ने किया था।

रानी दुर्गावती की बहादुरी एवं शौर्य की गाथा आज भी जनमानस में इस गहराई के साथ अंकित है, लोकगीतों के माध्यम से जब तब सुदूर अंचलों जीवन्त है। पूरे साहस के साथ विपत्तियों से जूझने का रानी दुर्गावती का सन्देश युगो-युगों तक गूंजता रहेगा।

अनुशासन प्रिय इस गरिमामय महारानी ने अपने तमाम विरोधियों पर दृढ़ता के साथ उनके हौसलों को चूर करते हुये अपने गढ़ा-मण्डला के साम्राज्य का परचम फैलाया तथा हर परिवार के लिये एक कुंआ, दस कुंओं से बढ़कर एक बावली, दस बावलियों से बढ़कर एक तालाब, दस तालाबों से बढ़कर एक पुत्र और दस पुत्रों से बढ़कर एक वृक्ष का संदेश देकर सुखी राज्य की कल्पना को साकार भी किया।

Great Hindu Warrior Queen Rani Durgavati Of Gondwana Real Story - इस  वीरांगना ने अकबर की सेना से अंतिम सांस तक किया था मुकाबला, अनूठी है इनकी  शौर्य कहानी | Patrika News

एक ओर मुगलों के अत्याचार, नारी अपमान और बलात् धर्म परिवर्तन की घटनाओं को रोका, वहीं सामाजिक मूल्यों के अभिबध नि हेतु अनेकानेक प्रभावी प्रभाव किये। इस प्रकार अत्यधिक साहस एवं शौर्यप्रदर्शन कर मातृभूमि की रक्षा में अपना बलिदान देने की प्रेरणा देने वाली महारानी के चरणों में शत्-शत् नमन्।

गढ़ा-मण्डला राज्य का क्रमबद्ध इतिहास उपलब्ध नहीं है।विभिन्न लेखकों-इतिहासकारों के ग्रंथों में वीरांगना दुर्गावती के समय से संबंधित सामग्री संजोयी जा सकती है। संग्रामशाह द्वारा रचित “रस रत्नमाला’ एवं स्व. रामभरोस अग्रवाल द्वारा लिखित पुस्तक ‘गढ़ा-मण्डला के गौंड राजा’ से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जानकारी प्राप्त होना सम्भव है।

सन् 1564 में गढ़ा- मण्डला की प्रख्यात गौंडशासिका वीरांगना रानी दुर्गावती ने युद्ध भूमि में वीरगति प्राप्त की। इस पराजय का उल्लेख करते हुये स्व. रामभरोस अग्रवाल लिखते हैं कि “गौंडवाना के पराभव के बाद लड़खड़ाते मुगल साम्राज्य को सुदृढ़ आधार मिल गया था, इस सम्पन्न राज्य से प्राप्त अपार धन-दौलत को प्राप्त कर तीन वर्षों में ही अकबर ने चित्तौड़ का सर्वनाश कर दिया। इस राज्य के धन से मुगल दरबार ने हिन्दू धर्म को डुबो दिया। समूचे भारत वर्ष का सांस्कृतिक जीवन खतरेमें पड़ गया था।”