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विश्वव्यापी राम / 11

ईरान (आर्यान)

ईरान शब्द वास्तव में “आर्य स्थान” शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है। प्राचीन काल में इसे ‘आर्यान’ शब्द से संबोधित किया जाता था। भारतीय ‘आर्य’ लोग ही ईरान में जाकर आबाद हुए थे। इसी से उस देश का नाम “आर्यान/आर्य स्थान” पड़ा था जो अब बिगड़ते- बिगड़ते ईरान हो गया।

इतिहास विद डॉ. अखिलेश चंद शर्मा – “विश्व सभ्यताओं का जनक: भारत” में (स्वामी विद्यानंद सरस्वती, सत्यार्थ भास्कर के हवाले से) लिखते हैं कि- “ईरान में अयातुल्लाह खोमेनी सन 1979 से पूर्व वहां की भूगोल की पुस्तक में पढ़ाया जाता था कि- चंद हजार साल पेश जमाना मंजीरा बुजुर्गी अज निजाद आर्या अज कोहहय कफ् काज गुजिशत: बर सर जमीने कि इमरोज़ मसकने मास्त कदम निहादंद। ब चू आबो हवाय ई सर जम्रीरा मुआफिक तबअ खुद याफ्तंद दरीं जा मसक्ने गुजिदन्न ब आरा बनाम खेश ईरान खयातनद।”
अर्थात- (कुछ हजार साल पहले आर्य लोग हिमालय से उतरकर आए और यहां की जलवायु अनुकूल जानकर यहां बस गए।)

उल्लेखनीय है कि आदि पुरुष ऋषि कश्यप -अदिति से 12 पुत्र हुए थे। जिनमें ‘वैवस्वत’ नाम का भी एक पुत्र था । वैवस्वत के दो पुत्र हुए ‘यम’ व ‘मनु’। मनु ने तो भारत पर राज किया जबकि यम ने पितरों अर्थात ईरान देश का राजा अभिषक्त किया।
यमो वैवस्वतो राजेत्याह तस्य पितरो विश:।
(माध्यंदिनी शतपथ- 13/4/3/6)

ईरानी ग्रंथो में यसन- 9 के अनुसार भी यम को आदि पुरुष माना गया है।
अरब के आक्रमण से पूर्व ईरान सातवीं शताब्दी तक पारसियो का ही देश था। पारर्सियो के धर्म ग्रंथ का नाम ‘जेन्द अवेस्ता’ है, जिसका एक भाग यशन भी है। आक्रमण का प्रभाव यह रहा कि अधिकांश पारसियो को इस्लाम पंथ अपनाना पड़ा तथा कुछ लोग अपने पैतृक देश भारत आने में सफल रहे।

फेड्रिक मैक्समूलर बताते हैं कि – “कुल आर्यन परिवार दो भागों में बंटने से पूर्व एक ही थे। संस्कृत व जेन्द अवेस्ता में आए शब्द व्याकरण के मान से एक ही हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वेद के रचयिता व अहुरमज्दा के पुजारी विभाजित होने से पूर्व ये आर्य लोग एक ही स्थान पर रहते थे।”

डॉ. मोटवानी बताते हैं कि – “इस तथ्य के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि प्राचीन समय में ईरान वृहत्तर भारत का भाग था और ‘जेन्द अवेस्ता’ संस्कृत भाषा के करीब था। इसी का समर्थन विद्वान टी. बुररो “दि संस्कृत लैंग्वेज” पुस्तक में भी करते हैं।

ईरान के बादशाह अपने नाम के साथ “आर्य मेहर” की उपाधि लगाते रहे हैं। फारसी में ‘मेहर’ ‘सूर्य’ को कहते हैं। ईरान के लोग अपने को सूर्यवंशी आर्य मानते रहे हैं। ईरान के राजा अपने आपको ‘पहलवी’ ही कहते रहे। सन 1978 तक ईरान के राजा का नाम मोहम्मद रजा शाह पहलव ही था। उल्लेखनीय है कि पल्लव या पहलव लोग भारतीय आर्य क्षत्रिय ही थे। मनुस्मृति में ‘पहलव’ शब्द का वर्णन इस प्रकार आता है-

“शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रिय जात्य: …..पारदा: पल्हवाश्चीना: किराता दरदा खश:।।”
अर्थात्- पौंड्रक, ओड्र, द्रविड़, काम्बोज, यवन, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद और शक ये सब पहले क्षत्रिय जातियां थीं।

जेन्द अवेस्ता’ में अनेक स्थानों पर ‘आर्य’ शब्द का उल्लेख आया है। ईरानी लोग अपने को ‘आर्य’ जाति का ही मानते थे। पारसी ग्रंथ ‘होवा युष्ठ’ में अथर्ववेद का वर्णन भी आता है। जेन्द अवेस्ता मे गाय को पूज्यनीय व यज्ञों का वर्णन है। पारसी ग्रंथो में ‘ब्रह्मचर्य’ पर बहुत बल दिया गया है।

फार्सियों के ग्रंथ ‘जेन्द अवेस्ता’ में पाए गए शब्द संस्कृत के शब्दों के अपभ्रंश मात्र हैं। जैसे संस्कृत के शब्द ‘असुर’ को अहुर, सोम- होम, सप्त- ह्प्त, सेना- हना, होता- जोता, बाहू- बाजू, जानू- जानू, ब्रज- ब्रज, विस्व-विस्प, मित्र- मिघ्न कहा गया है।

पूर्व चीफ जस्टिस टिहरी गढ़वाल राज्य व वैदिक विद्वान पंडित गंगा प्रसाद ने “धर्म का आदि स्त्रोत” नामक पुस्तक में बहुत विस्तार से तथा पूर्ण रूप से यह सिद्ध किया है कि ‘जरथुस्त्री’ मत का आधार ‘वैदिक धर्म’ है।
काशी के शिलालेखों से इतिहासकार आर. ग्रीशमान ने निष्कर्ष निकला है कि “ईरान के इस क्षेत्र में कश्यप ऋषि का वर्चस्व रहा है।” ईरान में सातवीं सदी में हर वामनी नाम कुरुवंशी राजा का राज्य था।

प्राचीन ईरान में अग्नि पूजा होती थी और हिंदू प्रथा परंपराएं प्रचलित थी। पारसी समाज में अग्नि पूजा अभी भी हिंदुओं के अग्निहोत्र की ही तरह प्रचलित है। चंदन का उपयोग और चौक पूरना पूर्णतया भारतीय परंपरा के अनुरूप है। ईरानी जनता पुनर्जन्म पर विश्वास करती थी। श्रद्धा पूर्वक अग्निहोत्र, गौ पूजा, यज्ञोपवीत धारण करती थी। वहां भारतीय वर्ण व्यवस्था का प्रचलन था।

ईरान में बसे हुए पारसी लोग वस्तुत भारत से ही गए थे जर्मन विद्वान मैक्स मूलर ने इस तत्व को स्वीकार है और भारतीय मूल के, भारतीय सभ्यता के अनुयाई के रूप में प्रतिपादित किया है। “नम:जरदुस्त” पारसी धर्म ग्रंथ में महर्षि व्यास हैं। कितने ही संस्कृत शब्द तो फारसी के भारतीय अर्थ में प्रयुक्त होते हैं जैसे इष्टी, गाथा, गन्धर्व, पशु गौ, रथ, नमस्ते, यव आदि।

हदीसो में भारत को “हिंदुस्तान जन्नत निशक” अर्थात “स्वर्ग तुल्य भारत” कहकर सम्मानित किया गया है। इस्लाम का एकेश्वरवाद का सिद्धांत व्यास के वेदांत सिद्धांत के प्रकाश में विकसित हुआ माना जाता है। सूफी संप्रदाय पर ‘वेदांत’ की गहरी छाप है। अरबी में ‘वेदपा’ की बुद्धिमानी का बार-बार उल्लेख आता है। विश्लेषण कर्ताओं ने ‘वेद्पा’ का तात्पर्य ‘वेद व्यास’ को मना है।

यह सच है कि संसार में अनेक नृवंशो के लोग हैं, जो आपस में एक- दूसरे से नहीं मिलते। जिनके पंथ अलग-अलग हैं। जिनकी आदतों और विचारों में कोई समानता नहीं है। लेकिन दुनिया के मतो, विचारों का गहराई से किया गया सर्वेक्षण उससे बड़े सच को प्रकट करता है। ये सभी मिलकर किसी एक के प्रति अपना सर सम्मान से झुका रहे हैं। कोई एक जगह ऐसी भी है, जहां सभी विचार अपने सारे विरोध छोड़कर एक होने के लिए लालायित हैं। यह एक जगह कौन सी है? इस बारे में यदि हम प्रो. मैक्समूलर से सवाल करें तो उन्हीं के शब्दों में उनका जवाब है – “मै सीधा संकेत भारत की ओर करूंगा… क्योंकि नीले आसमान के नीचे यही वह भू-भाग है, जहां विचार समग्र रूप से विकसित हुए हैं।”

भारत के विचारों की प्रमाणिकता, उत्कृष्टता, उनकी जीवन में सार्थकता स्वयं अपनी व्यापकता का कारण बनी है। भारत का चिंतन, संस्कृति व व्यवहार दैवीय (परमात्म) है।

यथा नध: स्यंदमाना: समुद्रोस्तं गच्छन्ति नामरुपेविहाय।
तथा विद्वान नाम रुपाद्विमुक्त: परात्परं पुरुषमुपैतिदिव्यम्ं।।
( – मु. उप. 3/2/8 )

अर्थात- “जिस प्रकार नदियां अनेक मार्गो से बहती हुई समुद्र में जाकर विलीन हो जाती हैं और उनके नाम रूप के भेद मिट जाते हैं, उसी प्रकार विद्वान अपनी-अपनी रुचि और अधिकार के अनुसार क्रमशः नाम रूप सहित एक ही सत्यरूप परमात्मा में लीन होते हैं।”

युगऋषि,वेदमूर्ति पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं कि- “विभिन्न रूपों में – विभिन्न पद्धतियों में – विभिन्न देशों में देव संस्कृति के ये सभी चिंतन स्वर जिस एक बात का उद्घोष करते हैं वह है उसका अपनत्व और यही वह पृष्ठभूमि है। जो इसे विश्व संस्कृति का गौरव प्रदान करेगी। संस्कृति का उद्देश्य हृदय पर अधिकार पाना है और हृदय की राह समरभूमि की लाल कीच नहीं, सहिष्णुता का शीतल प्रदेश है ,उदारता का उज्जवल क्षीर समुद्र है। ऋषि -चिंतन की वही ऊर्जस्विता विश्व मानव को वैचारिक संघर्ष से मुक्ति देगी। कल का भविष्य जिस महानतम आश्चर्य को साकार करेगा वह है संसार की सभी विचारधाराओं का अपने मूल स्वर से सामंजस्य। इसी घटना के साथ विश्व संस्कृति के चिंतन स्वर गूँज उठेंगे “समानोमंत्र: समिति समानी, समानो मन: सह चित्त मेंषाम्ं” सब लोग एक विचार वाले हो जाएं, सभी के मन एक समान हो जाएं ,सभी के चित्त में एक से संवेदन उठने लगे। यही वैदिक दर्शन की मान्यता रही है व यही अगले दिनों साकार रूप लेने जा रही है।”

क्रमशः …..

लेखक- डॉ. नितिन सहारिया