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विश्वव्यापी शबरी के राम / 2

(RAM in every particle of the world)

आज भी भारत के बाहर दर्जनों ऐसे देश हैं, वहां की भाषा में रामकथा आज भी प्रचलित है। राम सबके हैं ,राम सब में है। भारत में भगवान श्रीराम के चरण जहां-जहां पड़े वहां ‘राम सर्किट/राम पथ’ का निर्माण किया जा रहा है। हमारे यहां शास्त्रों में कहा गया है- “न राम सद्रश: राजा -प्रथिव्यां नीतिवान अधोत” यानी की पूरी पृथ्वी पर श्रीराम जैसा नीतिवान शासक कभी हुआ ही नहीं। राम ने कर्तव्य -पालन की सीख दी है। रामराज्य यानी “सर्वोत्तम- सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था” का होना। जिसमें किसी को भी दैहिक- दैविक-भौतिक संताप, कष्ट न हो। चारों-ओर शांति -समृद्धि, प्रसन्नता का वातावरण व्याप्त होना। सभी को न्याय उपलब्ध होना। भेदभाव रहित होना, यही रामराज्य की संकल्पना है।

एक शोध “वैस्विक राम” में पाया गया है कि- संपूर्ण विश्व के सातों द्वीपों व प्रत्येक देश में, कण-कण में सर्वत्र सनातन/हिंदू संस्कृति -राम की संस्कृति समायी हुई है। “सियाराम मय सब जग जानी” तुलसीदास जी महाराज ने सत्य ही लिखा है।

त्रेतायुग में अमेरिका को पाताल देश के नाम से पुकारा जाता था। ‘अहिरावण’ का पाताल लोक में वाल्मीकि रामायण में वर्णन आता है। अमेरिका मे होंडुरास, मैक्सिको “मय सभ्यता” Maya culture का क्षेत्र है। बाल्मीकि रामायण में वर्णित दुंदुभी और मायावी जिनको बाली ने गुफा में घुसकर मारा था। वह मय दानव के ही पुत्र थे। मय की एक पुत्री मंदोदरी थी। जिसका विवाह रावण से हुआ था। रामायण के किष्किंधा कांड में गुफा वाले प्रकरण में मय के जीवन व्रत तथा भवन निर्माण के उसके कौशल का अच्छा वर्णन किया गया है। सीता की खोज में गए बंदरों के भूख प्यास से व्यथित होकर एक गुफा में प्रवेश और उस गुफा में ‘स्वयंप्रभा’ नाम की तपस्विनी से हुई उनकी भेंट की कथा विदित ही है। हनुमान जी के पूछने पर तपस्विनी स्वयंप्रभा ने बतलाया था कि- वानर श्रेष्ठ! माया विशारद महा तेजस्वी ‘मय’ का नाम तुमने सुना होगा। उसी ने अपनी माया के प्रभाव से इस समूचे स्वर्णमय वन का निर्माण किया था।

मयो नाम महातेजा मायावी वानरर्षभ।
तेनेब निर्मित्त्ं सव्ं मायया कांचन वनम्ं।।

(रामायण किष्किंधा कांड, सर्ग 52)

नाज ट्यूनिक गुफा, ग्वाटेमाला की गुफा, वैलीज, अल मीराडोर, होंडुरास, मैकिस्को इत्यादि सब भारतीय मय दानव की कर्म स्थली रही है। ग्वाटेमाला के वन्य क्षेत्र की प्राय: हर पहाड़ी में एक ‘मय’ नगर छिपा हुआ है। अमेरिका (पाताल देश) का ‘बोलिविया’ शहर राजा ‘बलि’ का स्थान रहा है। अमेरिका की ‘अजटेक सभ्यता’ आस्तिक सभ्यता/ हिन्दु संस्कृति ही थी। अमेरिका के प्राचीन मूल निवासियों के नाम के साथ ‘इंडियन’ शब्द लगा हुआ है अर्थात ‘रेड इंडियन’ भारतीय ही हैं। दक्षिण अमेरिका के हवाई द्वीप में हिंदू संस्कृति के देवी-देवताओं के हजारों चित्र/विष्णु के चक्र, गदा इत्यादि, मूर्तियाँ चट्टानों पर उत्क्रीण हैं व रेड इंडियन मे ‘राम सीतो’ शब्द प्रचलन में है। ‘सूरीनाम’ में पारानाम के पास अमर इंडियन/रेड इंडियन के गाव हैं। गाव वासियो का कहना है कि हमारे पूर्वज भारत के असम क्षेत्र से उड्कर वन्हा आये थ। वंहा स्त्रियों के नाम ‘उड्पी’ होते हैं।

विश्व के 35 देशो में 1000 स्थानो के नाम ‘राम’ से संबंधित हैं। मिस्र के 11 सम्राटों व रोम के आधा दर्जन सम्राटों के नाम में ‘राम’ शब्द जुड़ा हुआ है। भारतीय पुराण तथा सुमेर कथाओं में आए नामो की एक लंबी तुलनात्मक सूची है। इसराइल के 20 स्थान राम से संवद्द हैं जैसे ‘रामाल्ला’ इत्यादि। संपूर्ण विश्व में 300 से अधिक रामायण ग्रंथ हैं। मिस्र (इजिप्ट) में ‘अज’ के पौत्र ‘रामेशस्’ ही राम हैं। अफ्रीका प्राचीन ‘कुशद्वीप’ के ‘अंगोला’ में उर के पुत्र अन्गिरा ने राज्य किया। भगवान राम के पुत्र ‘कुश’ ने इराक, ईरान ,अरब और अफ्रीका को विजय करके शक्तिशाली साम्राज्य की नींव डाली जिसका केंद्र ‘सूडान’ था। सोमालिया में रावण के नाना सुमाली का राज्य था। ग्रैंड कैनयन के विष्णु -शिव के मंदिर (प्रकृति प्रदत्त) भारतीय संस्कृति की गाथा बतलाते हैं। यूनान में भारतीय संस्कृति परंपरा के अनेकों साक्ष्य/अवशेष मिले हैं।

टोक्यो जापान के पास इंद्र मंदिर में ‘हनुमान’ जी की दो मूर्तियां इंद्र की रक्षा कर रही हैं। जापान में सूर्य देवता की पूजन की जाती है व अपने को सूर्यवंशी मानते हैं। चंपा (वियतनाम) में शेषशायी चतुर्भुज विष्णु -नारायण की मूर्ति मिली है।

विस्व के सातो द्वीपों मे सनातन हिंदू संस्कृति के देवी- देवताओं की मूर्तियां, मंदिरों के अवशेष, अनेकों साक्ष्य मिले हैं। अमेरिका, द. अमेरिका, दक्षिण, अफ्रीका, यूनान ,मिस्र , (इजिप्ट), कोरिया, फ्रांस, जापान, ग्रैंड कैनयन, चंपा (वियतनाम), बालीद्वीप (इंडोनेशिया), अज़रबैजान (बाकू), ईरान (आर्यांन) इराक, अफगानिस्तान, थाईलैंड (श्यामदेश), लॉओस (लवदेश), कम्पुचीया, कलिंगद्वीप (फिलिपींस), कंबोडिया, बर्मा, मंगोलिया, चीन, अरब प्रायद्वीप, इटली, मलेशिया ,ऑस्ट्रेलिया, मॉरीशस, श्रीलंका, नेपाल, कनाडा, यूके, सिंगापुर इत्यादि देशो मे सैकड़ों साक्ष्य सनातन हिन्दु धर्म के प्राप्त हुये हैं । इन देशों की परंपराओं, रीति-रिवाजो में सनातन संस्कृति घुली हुई है व किसी न किसी रूप में भारतीय संस्कृति की अमिट छाप है। प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति- विश्व संस्कृति Global culture रही है।

प्राचीन काल में संपूर्ण विश्व में एक ही सनातन/हिंदू संस्कृति व्याप्त थी। जिसके आज हजारों प्रमाण साहित्यिक व पुरातात्विक उपलब्ध होते चले जा रहे हैं। यूं ही नहीं भारत प्राचीन काल में ‘विश्वगुरु’ था। इस तथ्य को अब संपूर्ण विश्व को स्वीकार करना ही होगा, यही वर्तमान का अद्भुत व्यवहारिक सत्य है।

प्रभु श्रीराम की मानव लीला व उनकी पावन कथा की बड़ी ही पवित्र पात्र है शबरी। महर्षि मतंग कहते हैं की- भक्ति से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं, भक्ति के साथ तो भगवान का बल है, राम भक्त किसी तपस्वी से, ज्ञानी से, योगी से, निर्मल प्रतीत होता है, उसके पास चमत्कारी सिद्धियां -शक्तियां नहीं होती ,उसके जीवन में प्रत्यक्ष रूप से कोई अलौकिकता दिखाई नहीं देती लेकिन उसके साथ सदा-सर्वदा जीवन के प्रत्येक क्षण में समस्त सिद्धियों-शक्तियों एवं सारे आलोकिता के स्रोत भगवान स्वयं रहते हैं। और जहां भगवान स्वयं हैं, वहां सभी असंभव स्वयं संभव होते रहते हैं। भक्तों से मिलने भगवान स्वयं ही आते हैं एवं भक्त जहां रहता है, वह स्थान तीर्थ बन जाता है। स्वयं भगवान भी भक्त के बस में होते हैं, इसलिए माता अंजनी कहती हैं की- ” संत का सानिध्य, आत्म परिष्कार के लिए किया गया तप व श्रीहरि की भक्ति कभी भी व्यर्थ नहीं होती।”

माता शबरी ने वनवासी क्षेत्र की शबर कन्या ‘माहुली’ के रूप में जन्म लिया और इस तरह अचानक शबरी (माहुली) के मन में भक्ति रस कैसे आपलावित हो उठा? यह प्रश्न सभी ऋषियों व माता अंजनी के लिए कौतुक बना हुआ था कि एक दिन सभी ने महर्षि मतंग से इसका उत्तर पाने की जिज्ञासा-प्रार्थना की। तब महर्षि मतंग ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर सबरी के पूर्व जन्म की कथा कुछ इस प्रकार सुनाई की- “सबरी अपने इस शरीर को धारण करने से पूर्व गंधर्व कन्या व गन्धर्भ पत्नी थी। गन्धर्व कुल में उसका जन्म हुआ था। और एक गंधर्व कुमार विभावर्धन के साथ वह ब्याही गई थी। शबरी भी अपने पूर्व जन्म में अनिन्ध सुंदरी व कुशल नृत्यांगना थी। अत्यंत रूपवती सौंदर्य की साकार प्रतिमा सबरी को अपने उस जन्म में अपने रूप व कला का बड़ा अभिमान था। अपने इस गंधर्व स्वरूप में ‘अरुषि’ नाम था उसका। अर्थात ‘सूर्य की प्रथम किरण।’ अपने अप्रतिम सौंदर्य कलाओं में प्रवीणता के कारण अरुषि की ख्याति देवलोक के साथ अन्य लोकों में भी थी। देवराज सहित सभी देवगन तो इस पर सम्मोहित थे। अरुषि की स्वाभाविक चंचलता के विपरीत विभावर्धन सौम्य व शालीन था। गंधर्वलोक य देवलोक के किसी भोग, ऐश्वर्य, विलास या राग-रंग में उसकी कोई रुचि नहीं थी। भगवान नारायण की भक्ति में उसका स्वाभाविक मन लगता था। अपने कर्तव्यों का सजगता व तत्परता से निर्वहन एवं भगवान नारायण की भक्ति यही दैनिक क्रम था विभावर्धन का। हालांकि उसे अरुषि के नृत्य संगीत या फिर उसके स्वच्छंद, चंचल स्वभाव से कोई आपत्ति न थी। विभावर्धन ने अरुषि को अपने मनोनुकूल जीवन जीने के लिए संपूर्ण स्वतंत्रता दे रखी थी।, लेकिन इतने पर भी अरुषि को संतोष न था। उसे तो जैसे विभावर्धन के प्रत्येक कार्य पर आपत्ति थी। अपने कटाक्षों के द्वारा वह हर समय इस चिढ़ को व्यक्त करती रहती थी। शांत स्वभाव का विभावर्धन यह सब नारायण की कृपा समझकर संतोष कर सहन करता रहता था। सहनशीलता व प्रताड़ना का अजीब सा संयोग था दोनों का जीवन।

लेकिन एक दिन परम सहनशील बिभावर्धन की सहनशीलता भी चुक गई। अपने हर अपमान को प्रसन्नता पूर्वक सहन कर लेने वाला बिभावर्धन अपने आराध्य के अपमान को सहन ना कर सका। उस दिन हरिवासन कहीं जाने वाली एकादशी की पावन रात्रि थी। एकादशी का पवित्र व्रत विभावर्धन का जीवन व्रत था। उस एकादशी की रात्रि भी वह भगवान नारायण के नाम- कीर्तन में तल्लीन था। उसी समय अरुशि उसे प्रताड़ित करने लगी। पहले उसने व्यंग-वचन सुनाएं परंतु जब विभावर्धन ने उन्हें अनसुना कर दिया, तो उसने पूजा की समस्त सामग्री विखेर दी। इस पर भी विभावर्धन शांत बना रहा तो अरुशि ने भगवान नारायण की मूर्ति पर प्रहार कर दिया। प्रहार इतना कठोर था कि पाषाण मूर्ति टुकड़े-टुकड़े हो गई।

अपने आराध्य की मूर्ति को खंडित होते देख विभावर्धन का धैर्य चुक गया। उसके अंतर्मन को असहनीय पीड़ा हुई। वह व्यवस्थित हो गया। अपने आक्रोश के उफान को न रोक सका। उसके नेत्रों में अग्नि धधक उठी। अपने जीवन में पहली बार उसने अरुशि को क्रोध पूर्ण दृष्टि से देखा और बोला- “तुमने आज समस्त सीमाएं लांग दी। भगवान नारायण का अपमान करने वाली तुम अब दंड की अधिकारी हो । इसलिए आज मैं तुम्हें शाप देता हूं कि- “तुम संस्कार हीन कूलहीन वनों में रहने वाले सर्वथा निम्न व नीच घर में जन्म लो। तुम्हारा जीवन ज्ञान के प्रकाश से रहित हो।”

क्रमशः …

 

डॉ. नितिन सहारिया