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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति -10

(गाथा इस देश की, गाई विदेशियों ने)

भारतवर्ष की शक्ति और समृद्धि, ज्ञान और गुरुत्व विश्वविख्यात है। प्राचीन काल की श्रेष्ठतम उपलब्धियों से भरपूर साहित्य और इतिहास हमें प्रतिक्षण उस गौरवपूर्ण अतीत की याद दिलाता है। पूर्वजों की आत्माओं का प्रकाश अब इस देश के कण-कण को जागृति का संदेश दे रहा है। यह बात हर एक नागरिक के हृदय में समाई हुई है। वह आत्माभिमान अभी तक मरा नहीं। यह जानते हुए भी हम अपनी पूर्व प्रतिष्ठा को भुलाए बैठे हैं।

हमारी गाथाएं विदेशों में बिक गई। हमारे ज्ञान की एक छोटी सी किरण पाकर पाश्चात्य देश अभिमान से सिर उठाए खड़े हैं और हम अपने पूर्वजों की शान को भी मिट्टी में मिलाने को तैयार हैं। आत्मा की इस आवाज को कोई धर्माभिमानी, राष्ट्रहितेषी तथा जाति के गौरव के लिए प्राण अर्पण करने वाला ही समझ सकता है।

आर्य संस्कृति का या हिंदू धर्म का नाम उल्लेख करने में सांप्रदायिक संकीर्णता का भाव नहीं आना चाहिए। हमारी संस्कृति दिव्य- संस्कृति है। उसमें प्राणी मात्र के हित की व्यवस्था है। यह उद्बोधन केवल इसलिए है कि उस चिर- सत्य का प्रादुर्भाव केवल इसी भूमि में हुआ है, इसी से हम उसे एक विशेष संबोधन से विभूषित करते हैं अन्यथा हिंदू-धर्म का क्षेत्र संपूर्ण विश्व है। काउंट जोन्स जेनी ने इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा है की- “भारतवर्ष केवल हिंदू धर्म का ही घर नहीं है वरन वह संसार की सभ्यता का आदि भंडार है।”

“संसार में भारतवर्ष के प्रति लोगों का प्रेम और आदर उसकी बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक संपत्ति के कारण है। “यह शब्द प्रोफेसर लुई रिनाड ने व्यक्त किए हैं। इन शब्दों से भी यही तथ्य प्रकाशित होता है कि भारत समग्र विश्व का है और संपूर्ण वसुंधरा इसके प्रेमपाश में आबद्ध है।

अनादिकाल से धर्म की ,संस्कृति और मानवता की ज्योती यह विकिर्ण कर रहा है। धरती की अनुपम कृति वाला यह देश भला किसे प्यारा न होगा? भारतवर्ष ने जो आध्यात्मिक विचार इस संसार में प्रसारित किए हैं, वे युग -युगांतरों तक अक्षुण्य रहने वाले हैं। उनसे अनेक सुषुप्त आत्माओं को अनंत काल तक प्रकाश मिलता रहेगा।

भारतीय संस्कृति के प्रवाह का उद्गम वे चिंतन, शाश्वत और सनातन सत्य रहे हैं, जिनकी अनुभूति ऋषियों ने प्रबल तपश्चर्याओं के द्वारा अर्जित की थी, वह प्रभाव धूमिल भले ही हो गया हो किंतु अभी तक भी लुप्त नहीं हुआ है।

धार्मिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक क्षेत्र में ही हम सर्वसंपन्न नहीं रहे वरन कोई क्षेत्र नहीं छूटा जहां हमारी पहुंच न रही हो। आध्यात्मिक तत्वज्ञान के अतिरिक्त सामाजिक, व्यवहारिक तथा अन्य विधाओं के ज्ञान विज्ञान में भी हम अग्रणी रहे हैं। अपनी एक शोध मे डॉ. थीवों ने लिखा है- “संसार, रेखा गणित के लिए भारत का ऋणी है यूनान का नहीं।”

प्रसिद्ध इतिहासविद् प्रो. बेबर का कथन है कि- “अरब में ज्योतिष विधा का विकास भारत वर्ष से हुआ। “कोलब्रुक ने बताया है कि- “कोई अन्य देश नहीं, चीन और अरब को अंकगणित का पाठ पढ़ाने वाला देश भारतवर्ष ही है।”

यूनान के प्राचीन इतिहास का दावा है कि- “भारत के निवासी यूनान में आकर बसे। वे बड़े बुद्धिमान, विद्वान और कला कुशल थे। उन्होंने विद्या और वैधक् का खूब प्रचार किया। यहां के निवासियों को सभ्य बनाया।” निसंदेह इतना सारा ज्ञान अगाध श्रम ,शोध और लगन के द्वारा पैदा किया गया होगा। तब के पुरुष आलस्य ,अरुचि ,आसक्ति, अहंकार आदि से दूर रहे होंगे तभी तो वह तन्मयता बन पाई होगी, जिसके बूते पर इतनी सारी खोज की जा सकी होंगी। दुर्भाग्य की बात है कि आज वही भारतवर्ष विदेशियों के अनुकरण को ही अपनी शान समझता है ,यद्यपि सभी लोग ऐसे नहीं हैं।

प्रसिद्ध यूनानी विद्वान एरियन वर्णन करता है कि – “जो लोग भारत से आकर यहां बसे थे वे कैसे थे? वे देवताओं के वंशज थे, उनके पास विपुल सोना था। वे रेशम के कामदार ऊनी दुशाले ओडते थे। हाथी दांत की वस्तुएं व्यवहार में लाते थे और बहुमूल्य रत्नों के हार पहनते थे”

जो विध्वंसक विज्ञान और एटमी हथियार इन दिनों बन रहे हैं, उनसे भी बड़ी शक्ति वाले आयुध यहां वैदिक युग में प्रयुक्त हुए हैं। सरस्वती की उपासना के साथ-साथ शक्ति की भी समवेत उपासना इस देश में हुई है।

अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर जो ‘अशनि’ शब्द का प्रयोग हुआ है ,उसका अर्थ आजकल की भीमकाए तोपों जैसा ही है। प्रोफ़ेसर विल्सन का कथन है- “गोलों का आविष्कार सबसे पहले भारत में हुआ था। यूरोप के संपर्क में आने के बहुत समय पहले उनका प्रयोग भारत में होता था।” कर्नल रशब्रुक विलियम ने एक स्थान पर लिखा है- “शीशे की गोलियाँ और बंदूकों के प्रयोग का हाल विस्तार से यजुर्वेद में मिलता है। भारतवर्ष में तोपों और बंदूकों का प्रयोग वैदिक काल से ही होता था।”

डफ महोदय लिखते हैं- “भारतीय विज्ञान इतना विस्तृत है कि यूरोपीय विज्ञान के सब अंग वहां मिलते हैं।”
कहां तक गिनाये, ऐसे आख्यानों से यूरोप का इतिहास भरा पड़ा है फ्रेडरिक शेलिंग,प्रोफ़ेसर मैक्समूलर, रोम्याँ रोला, एम.लुइ. जिकोलिएट, विक्टर कोसिन आदि अनेक विद्वानों तथा दार्शनिकों ने मुक्त कंठ से भारतीय गरिमा की प्रशंसा की है। जो भी इस संस्कृति के प्रभाव में आया उसी का मन इसे देखकर मोह गया। भारतीयों की सहृदयता, श्रद्धा और ईश्वर विस्वास के आगे संसार नत-मस्तक हो जाता है।

वह ज्ञान, वह गौरव, विज्ञान ,कला, समृद्धि और संस्कृति सबका सब इस देश के गर्भ में अभी भी विद्यमान है। वह खोजें दृढ़ हैं, निरर्थक या लोप नहीं हुई। उन विधाओं का अस्तित्व अब भी विद्यमान हैं और यह प्रतीक्षा किया करता है कि कोई आए और हमारे अनंत भंडार में से जितना मन चाहे, बटोर ले जाए। किंतु कहां हैं वे कर्मवीर जो राष्ट्र के गौरव को फिर से ऊंचा उठा सकें।

स्वामी विवेकानंद ने कहा था- “भारत ईश्वर की शोध में रत हो गया तो अमर हो जाएगा और यदि राजनीति के कीचड़ में लोटता रहा, तो बिनाश अटल ह।” हम जिस दिन अपने को समझ पाएंगे उस दिन हमारी अवस्था ही भिन्न होगी। ज्ञान की गंगा यहां बह रही होगी। समृद्धि का कुबेर अपना खजाना लुटा रहा होगा। सब कुछ होगा पर हमारी आध्यात्मिक वृर्तियां भी तो जागें। यदि इतना साहस हम में पैदा हो जाए तो समय को बदलते देर न लगेगी। वह स्वर्णिम बिहान विहंसता हुआ चला आएगा। आइए! अब उसी धर्म और संस्कृति के अवगाहन के लिए तैयार हों।

लेखक:- डॉ. नितिन सहारिया
संपर्क सूत्र:- 8720857296