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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति – 20 : डॉ नितिन सहारिया 

(सूर्योपासक जापान के कण-कण में हिंदू संस्कृति)

अमेरिका और जापान के बीच समुद्र में फैले हवाई दीप समूह में जापान से ही बौद्ध -धर्म पहुंचा है । जिस प्रकार चीन और कोरिया के भिक्षुओं ने जापान में धर्म प्रकाश फैलाया वैसे ही जापानी भिक्षुओं ने हवाई द्वीप समूह में पहुंचे और वहां की जनता को बौद्ध बनाया ।
जापान में इन दिनों बौद्ध धर्म के कई संप्रदाय हैं। उनकी आचार संहिता में थोड़ा- थोड़ा अंतर है। प्राचीनकाल जैसी धर्म श्रद्धा अब वहां नहीं है, तो भी विहारों और मंदिरों में निवास करने वाले भिक्षु अभी भी अपने ढंग से उपासना एवं धर्म शिक्षा के प्रयत्नों में तल्लीन रहते हैं । अभी भी वहां ” नामु अमिता बुत्सु ” (नमः अमित बुद्धाय) का प्रेरणाप्रद घोष सुनने में आता है।

जापान में बौद्ध धर्म के प्रसार -विस्तार के साथ-साथ उसकी अपनी चार विशेषताएं भी रही हैं ,जो विचारणीय ही नहीं अनुकरणीय भी हैं —
(1) जापानी वौद्दौ ने कट्टरता नहीं दिखाई वरन प्रचलित धर्मों के साथ उसका तालमेल इस सुंदरता के साथ बिठा दिया कि पुरातन पन्थियों को नवीन धर्म में प्रवेश करने में विशेष अड़चन ना हो। उन्होंने शिंतो, ताओ तथा कन्फ्यूशियस धर्मों के देवी-देवताओं को बौद्ध धर्म में सम्मिलित कर लिया। उनकी प्रतिमाएं भी अपने मंदिरों में रख ली और उन्हें भगवान बुद्ध के ही विभिन्न समय का अवतार बताया। नये बुद्ध अवतार को सबसे अधिक प्रमुखता इसलिए दी कि वह इसी युग के लिए विशेष रूप से अवतरित हुआ था।
(2) जापानी वौद्दौ ने चीनियों की तरह असंख्य बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद नहीं कराया । उन्होंने चुने हुए ग्रंथ ही अपनाएं और ग्रंथों की संख्या स्वल्प रखते हुए प्रचार- विस्तार पर अधिक ध्यान दिया, जिससे जनता बिना जंजाल भरी उलझनों में फंसे उस धर्म का स्वरूप सुगमता पूर्वक समझने और निर्देशों को अपनाने में समर्थ हो सकी।
(3) यों जापान में भी वौद्ध धर्म के कई संप्रदाय हैं- कुश, सानरोन, जोजित्सु ,केगोन, होस्सो, रित्सु, तेन्दाई, शिन्गोल, युजु ,नेनयुत्सु , रयोनिन, जो-दो शिन , शिन राज आदि। इनके दर्शन और आचार एक दूसरे से कुछ- कुछ भिन्न है। पर उस भिन्नता के कारण ना तो उनके बीच मनोमालिन्य है और न द्वेष- दुर्भाव , न असहयोग । भारत में जैसे एक पंथ दूसरे पंथ को फूटी आंखों नहीं सुहाता और विरोध आक्षेप के,शास्त्रार्थ के दौर चलते रहते हैं ,वैसा दृश्य जापान में बिलकुल देखने को नहीं मिलता । यह संप्रदाय वस्तुतः पंथ न बनकर संस्थाएं बन गए हैं। अपने क्षेत्र और वर्ग में काम करते हैं, पर अन्य सहधर्मी दलों के प्रति घृणा ,द्वेष का वातावरण नहीं बनाते। यही कारण है कि पन्थों का अस्तित्व टकराव का कारण नहीं बना है और पारस्परिक सहयोग से वौद्ध- मिशन के विस्तार में सहायता ही मिली है। विभिन्न अभिरुचि के लोग अपने- अपने प्रिय पंथ को अपनाते हैं। पर साथ ही एकता की आवश्यकता भी सच्चे मन से अनुभव करते हैं।
(4) जापानी वौद्दो कि चौथी विशेषता यह रही है कि उन्होंने अपने प्रयासों को पूजा-पाठ तक सीमित नहीं किया वरन धर्म-श्रद्धा को लोकोपयोगी प्रयोजनों में निरत करके उसे व्यक्ति और समाज की उन्नति के लिए विभिन्न क्रिया-कलापों में लगाया । फलत: उस धर्म को भार नहीं एक उपयोगी प्रयास माना जाता है । और प्रबुद्ध वर्ग का समर्थन तथा राजकीय अनुदान उसे मिलता रहा। जापानी वौद्दौ की यह विशेषता निसंदेह दूरदर्शिता और सराहनीय ही कही जा सकती है।

जापान के धर्मों में बौद्ध और ईसाई प्रमुख हैं। शिंतो धर्म उस देश का पुराना है पर उसका कोई दर्शन नहीं है। पितृपूजा के इर्द-गिर्द ही उसकी धुरी घूमती है। यों वहां हर वर्ग का एक कुलदेवता भी है, जिनके छोटे- बड़े मंदिर वहां देखने को मिलते हैं। और पूजा उपचार चलते हैं । वहां धार्मिक कट्टरता जरा भी नहीं है। इस आधार पर कोई कलह विग्रह भी नहीं होते। एक ही परिवार में कई सदस्य विभिन्न धर्मों के अनुयाई रहते हुए आपस में सद्भाव पूर्वक रहते हैं। भारत में जिस प्रकार परिवार का सदस्य किसी देवता या मंत्र की आराधना करें और सदस्य दूसरे की तो उनमें कोई विग्रह ना होगा। इसे श्रद्धा का विषय मानकर भिन्नता को सहज- सौजन्य के साथ सहन कर लिया जाएगा । ठीक इसी प्रकार जापान के धर्म को व्यक्तिगत अभिरुचि का विषय माना जाता है और इस संदर्भ में कोई किसी से झगड़ा- उलझता नहीं है।

जापान और अमेरिका के बीच प्रशांत महासागर में हवाई दीप समूह बसा है। यह जापान (टोक्यो ) से 3000 मील और अमेरिका के लॉस एंजिल्स से 2300 सौ मील की दूरी पर है । इस प्रकार यह एक प्रकार से जापान और अमेरिका के बीच में पड़ता है। इस पूरे द्वीप समूह का क्षेत्रफल 6400 वर्गमील और आबादी 8 लाख के करीब है। औसत आमदनी विश्व में सर्वोच्च है। इसमें बड़ा शहर एकमात्र ‘होनोलूलू’ है। यह छोटा सा देश अमेरिका के समान ही समृद्ध है। यहां 36 जातियां निवास करती हैं। उनमें वैवाहिक सम्मिश्रण होता जाता है । और पुरानी नस्लें समाप्त होकर नई नस्ल सामने आ रही हैं। यहां के निवासियों का स्वास्थ्य और सौंदर्य देखते ही बनता है।

भारतीयों के हाथ में भी यहां कितने ही काम हैं । मै. वाटूमल के यहां 26 स्टोर हैं, जिनमें सैकड़ों भारतीय काम करते हैं। ‘वाटुमल ट्रस्ट’ वहां के छात्रों को विविध विधि सहायता देता है। ओकासा में प्रायः 400 भारतीय परिवार रहते हैं । इनमें गुजरातियों की संख्या अधिक है । वे व्यवसाय करते हैं । मोती तथा दूसरी चीजों के निर्यात में उनका अच्छा हाथ है। जापान के अधिक भारतीय ओसाका में ही रहते हैं। यों वे अन्यत्र भी थोड़ी बहुत संख्या में बसे हुए हैं।

जापानी लोग स्वभाव से कर्मठ, देशभक्त व इमानदार होते हैं। इसके पीछे जापानियों का ‘बौद्ध धर्म’ अर्थात ‘हिंदू दर्शन’ जड़ में समाया हुआ है। तभी तो जापान 1945 के परमाणु हमले की त्रासदी से न केवल उबर सका वरन विश्व पटल पर प्रगति के उच्च सोपानो को छू चुका है। आज इलेक्ट्रॉनिक/ माइक्रो इलेक्ट्रॉनिक्स में जापान का विश्व में तहलका है। सदज्ञान व सत्कर्म पर चलते हुए जापान सर्वतोमुखि प्रगति की ओर अग्रसर है। वर्तमान में जापान और भारत के बीच बहुत ही मधुर संबंध हैं एवं दोनों ही आपस में प्रगति के लिए आदान-प्रदान करते रहते हैं ।