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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति -19 : डॉ नितिन सहारिया 

(सूर्योपासक जापान के कण-कण में हिंदू संस्कृति )

आरंभ में भारत से ही बौद्ध प्रचारक संसार के अन्य अन्यान्य देशों में धर्म प्रचार के लिए गए थे। पर पीछे यह स्थिति ना रही । जहां जड़ जम गयी वहां के निवासी ही भिक्षु बन गए और प्रवज्या लेकर समीप के क्षेत्रों में स्वयं ही धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े। सन 372 में एक चीनी वौद्ध ”सुन दो” सीन नान- पू से चलकर कोरिया के ‘कोगुरुयू’ प्रदेश में पहुंचा और वहां उसने अकेले ही धर्म विजय का झंडा गाड़ दिया। इन दिनों कोरिया तीन राज्यों में बटा हुआ था – (1 )कोगुरुयू (2) बकात्ति (3) सिल्ला। सुन दो का प्रचार कार्य इतना कुशलतापूर्ण था कि उस क्षेत्र की प्रजा असाधारण रूप से प्रभावित हुई और कोगुरुयू की राजधानी पिंग -यांग में दो सुसंपन्न बौद्ध-विहार बन गए। इनमें ऐसे विद्यालय भी थे जो नये प्रचारक तैयार करें तथा सामान्य जनता की धर्म जिज्ञासा का समाधान करें । पीछे इस पूरे राज्य का राष्ट्र धर्म ही बौद्ध धर्म अर्थात हिंदू हो गया।
जापान में सात देवताओं का पूजा प्रचलन है। घर-घर में उनकी मूर्तियां मिलेंगी । इन देवताओं को महाकाल,कुबेर, सरस्वती, गणेश , यम, हरीति और लक्ष्मी कहा जा सकता है। यद्यपि उनके जापानी नाम भिन्न है । टोकियो में ‘मिमेगुरी’ महाकाल का मंदिर है । इसी प्रकार कुबेर मंदिर को ‘तमोनाज’ और सरस्वती मंदिर का नामकरण ‘चोमेइजी’ किया गया है। यम -मंदिर में स्थापित ‘एकमा ‘ का भी उस देश में पूजन होता है । मार्च और सितंबर में जापानी अपने दिवंगत पूर्वजों (हाकापारी) का श्राद्ध तर्पण करते हैं। उस दिन वहां उपवास रखा जाता है।

टोक्यो के पास ‘गोहानु ‘ एकान मंदिर में प्राचीन धर्माचार्यों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। ” दारू मासान” देवता वहां मनोकामना पूर्ण करने वाला माना जाता है। वस्तुतः यह देवता और कोई नहीं बौद्ध धर्म प्रचारक “बोधिधर्म’ ही हैं। इस तथ्य को अब विज्ञ जापानी स्वीकार कर रहे हैं।
जापान में मंत्र लिखने के लिए सिद्दम लिपि प्रचलित है। इसे कश्मीर से वहां गए आचार्य प्रज्ञ ने देवनागरी वर्णमाला के आधार पर निर्मित किया था । ‘कोयासान’ में 120 मंदिर हैं । यहां सम्राट शिराका का, द्वारा प्रज्जलित अखंड ज्योति अभी भी जलती है। इस नगर में ‘शिंगोन’ तंत्र संप्रदाय प्रचलित है, जिसके पूजा तथा उपासना के मंत्र संस्कृत भाषा में बोले जाते हैं । जापानी मंदिरों में अग्निहोत्र होता है। उसे होम ना कह कर ‘जुमा’ कहते हैं । आहुतियां देते समय ‘ॐ पदमोद्रवाय स्वाहा’ आदि मंत्रों का उच्चारण किया जाता है।
जापानी सम्राट “शो तो कु ” ने बौद्ध धर्म को सर्वतोमुखि प्रगति का आधार माना और उसके सहारे अपने देश में अनेक सुधार किए तथा प्रगति के उत्साहवर्धक प्रचलन आरंभ किए । कोरिया उन दिनों बहुत समुन्नत था । समझा जाता था कि उसकी प्रगति का प्रधान आधार बौद्ध -धर्म की शिक्षा और संस्कृति है। जापान ने भी उसका अनुकरण किया और समुन्नत लाभ भी पाया। ‘ सो तो कु ‘ ने बौद्ध धर्म को राष्ट्र धर्म घोषित किया। अन्य देशों से आने वाले भिक्षुओं के निवास,निर्वाह का उचित प्रबंध किया। ‘ओसाका’ में एक विशाल बौद्ध विहार बनवाया । इसमें एक अच्छा विद्यालय भी था उसके बाद चीनी प्रचारक भी वहां पहुंचने लगे। राजा ने अपने जीवन-काल में सैकड़ों बौद्ध संस्थान बनवाएं, जिनमें ‘होर यूजि’ के विहार की विशालता और भव्यता सबसे अधिक थी। ‘सो तो कु ‘ अशोक जैसा धार्मिक जीवन बिताया । उसने प्रवचन करने का स्वयं एक नया आदर्श प्रस्तुत किया।
सम्राट शो. यु . ने सन 710 में ‘नारा ‘ को जापान की नई राजधानी बनाया ,उसके मध्य में ” तो दाई जी ” नामक विशाल मंदिर बनवाया, जिसमें स्वर्ण मंडित बुद्ध प्रतिमा स्थापित की गई थी । उसी के आस-पास कई चैत्य तथा बिहार बनवाए गए। आठवीं सदी में कोरियाई विद्वान ‘ग्योगी ‘ जापान में पहुंचा। 726 ई . में ‘बुद्धसेन’ नामक भारतीय विद्वान अपने साथ एक अच्छी संगीत मंडली लेकर वहां पहुंचा । इससे बहुत समय पूर्व ‘हो दो ‘नामक एक भारतीय भिक्षु जापान पहुंचा था। चीन से ‘गन जिन’ नामक एक विद्वान पहुंचा । इन लोगों ने मिल जुलकर जापान में धर्म -भावना की जड़ें जमाई। जापानी नव दिक्षित भिक्षुओं का भी उत्साह कम नहीं था। इनमें ‘गियन’ ‘ताई तो “और ‘शा टो ‘ के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । इन्होंने पिछड़े हुए देहातों को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और उन्हीं के बीच अपने को खफा दिया।

जापान में बौद्ध धर्म आठवीं सदी के पूर्वार्ध में बहुत ही लोकप्रिय हो चुका था। उन दिनों जनता में इसके लिए अपार श्रद्धा थी । संसार की सबसे बड़ी समझे जाने वाली बुद्ध प्रतिमा इन्हीं दिनों सन 749 ई .में बनी। इसमें 666 पौंड सोना ,16827 पॉन्ड टिन, 1954 पॉन्ड पारा और 98618 पॉण्ड तांबा एवं शीशा लगा है। इसी मंदिर का ‘ तो दाई जी ‘नामक घंटा 40 टन भारी है और 13 फुट ऊंचा है। ‘ नारा ‘ राजधानी के इर्द-गिर्द ‘चुगीजि’ ‘याकूशिचि ‘ आदि जो मंदिर विहार बने हैं। उन पर स्पष्टत: भारतीय वास्तुकला का प्रभाव है। उन दिनों बौद्ध धर्म के विस्तार के साथ-साथ जापान की सर्वतोमुखी प्रगति हुई और लोगों ने समझा कि समुन्नत संस्कृति को अपनाकर कोई देश या समाज किस प्रकार हर क्षेत्र में प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकता है।

आत्म- निग्रह और अनुशासन में ढील पडने से उस समय के भिक्षुओं में जो विकृतियां आयी उससे राजा और प्रजा में असंतोष बढ़ने लगा और खुलेआम आलोचनाये होने लगी। इस स्थिति को सुधारने के लिए जापानी संत ‘साईं चो’ और ‘कोकेई’ ने घोर प्रयत्न किया । इन सुधारक प्रयासों को ‘ धर्रर्ग्यो’ ‘ताई शी’ और ‘कोवो ताई शी ‘ ने और अधिक आगे बढ़ाया। उन्होंने मात्र धार्मिक पूजा-पाठ तक वौद्ध शक्ति को सीमित ना रहने देकर देश को सामाजिक ,शैक्षणिक एवं राष्ट्रीय प्रगति में नियोजित किया। तत्कालीन शासकों ने भी इसमें सहयोग दिया।

इसके बाद जापान के भिक्षु संप्रदाय और राज परिवार गृह कलह में, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं में ग्रसित होकर फंसते चले गए । इससे देश में दुर्बलता आई। फिर भी वह समर्थ बना रहा कि जिन मंगोल आक्रमणकारियों ने एशिया और यूरोप का बहुत बड़ा भाग अपने पैरों तले रौंद डाला था, उन्हें जापान के मोर्चे पर हर बार करारी हार खानी पड़ी । 12वीं और 13वीं सदी में ‘होने न ‘ शिरनन् ‘ और ‘ दोर्जन ‘ आदि प्रभावशाली संत विद्वानों ने जनता की धर्म -श्रद्धा को लोकमंगल के प्रयोजनों में नियोजित किया और धर्म को समाज की सर्वतोमुखी प्रगति का सहयोगी बनाने का अभिनव एवं सफल प्रयोग किया। जनता में इस सुधार परिवर्तन का उत्साहवर्धक स्वागत हुआ। पीछे उनके न रहने पर अनुयाइयों ने उनके नाम पर वैसे ही संप्रदाय खड़े कर दिए जैसे कि आजकल अनेक संतों के नाम पर अलग-अलग पंथ /सम्प्रदाय चल रहे हैं । इस अंधानुकरण ने उन सुधारवादी संतों का मूल उद्देश्य ही विकृत कर दिया । इन विकृतियों ने अराजकता का वातावरण उत्पन्न किया और उससे धर्म, समाज और राष्ट्र की जड़ें खोखली होती चली गयीं । एकता और निष्ठा के अभाव में 15 वीं सदी में जापान में सर्वत्र विद्वेष , विघटन का बोलबाला दिखाई पड़ने लगा।

इस अस्त- व्यस्तता में ईसाई पंथ ने जापान में घुस-पैठ का अवसर पाया और उसने अपनी विशेषता के कारण नहीं संव्याप्त क्षोभ, असंतोष से लाभ उठाकर अपनी जड़ें जमायी । 15 अगस्त 1949 को सर्वप्रथम एक ईसाई धर्म प्रचारक ‘फ्रांसिस जेवियर’ इस देश के ‘कागोशिया’ नगर में पहुंचा। उसने राजा और प्रजा को चमत्कृत करने में अद्भुत सफलता पाई। सम्राट ‘ तोयोतोग्मे हिदयोशि ‘ ने उसे समर्थन दिया, फलत: यूरोप से धर्म प्रचारको तथा व्यापारियों के जत्थे वहां आने और रहने लगे। दूसरी ओर सामंतों में बटा हुआ देश एक प्रकार से ग्रह- युद्घ की स्थिति में घिरने लगा और भारत की तरह जापान में भी विदेशी शक्तियों के पैर जम गए। सोलवीं सदी में यूरोपियनो के लिए सम्राट हिदोयोशी ने भी द्वार खोले और ईसाई पंथ वन्हा तेजी से बढ़ने लगा । सन 1868 में राजा मेईजी ने अपनी प्रसिद्ध ‘ मैग्नाकार्टा ‘ घोषणा की और पाश्चात्य विचारधारा के प्रवेश का द्वार विशेष रूप से खोला। तब ईसाई संस्कृति को सर्वतोमुखी उन्नति का आधार बनाया जाने लगा और लोगों ने उत्साहवर्धक उसे अपनाया, पर यह उभार बहुत दिन तक ना रहा। वौद्दौ ने अपने को सुधारा ,और जापान में बढ़ती हुई ईसाइयत के खतरे को समझा और तीव्र आंदोलन किया। जनता को वस्तुस्थिति समझाई । फलत: सन 1870 में जापान ने पुनः बौद्ध-धर्म को ‘राष्ट्रधर्म ‘स्वीकार कर लिया।

द्वितीय विश्व युद्ध 1945 में जापान पर अमेरिका ने 2 परमाणु बम गिराकर भयानक त्रासदी ,क्षति पहुंचाई किंतु जापानी जनता की जड़े ‘बौद्ध धर्म’ अर्थात ‘हिंदू धर्म’ पर जमी होने के कारण इतने कम समय मे आज जापान विश्व में सर्वत्र प्रगति के लिए धन्यवाद का पात्र है; क्योंकि भारतीय संस्कृति “सदज्ञान व सत्कर्म ” पर जो आधारित है। जापान की प्रगति का यही रहस्य है । जापानी बड़े रास्ट्रभक्त होते हैं ।