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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति -29

(स्वर्णद्वीप के कण-कण में हिंदू संस्कृति )

-डॉ.नितिन सहारिया

जिस तरह आज के वर्तमान भारत की सीमा है वैसा प्राचीन भारत सीमित ना था। तब उसका विस्तार सुदूर पूर्व में फैले हुए द्वीप-समूह तक था। वर्मा (म्यांमार) , श्याम (थाईलैंड) आदि देशों तक थल मार्ग से आवागमन था ,अस्तु यह क्षेत्र तो सहज ही भारत का अंग था। इसके लिए पृथक नामकरण की आवश्यकता ना थी। वे देश एक प्रकार से वृह्तर भारत के प्रांत ही थे।

सुदूर पूर्व के समुद्र में फैले हुए देशों को उन दिनों अलग नाम दिया गया था। उस क्षेत्र को ‘स्वर्णद्वीप’ कहते थे। उसकी परिधि में छोटे-बड़े सैकड़ों द्वीप आते हैं। इन दिनों क्षेत्र को मलेशिया, जावा, सुमात्रा, बाली, बोर्निओ, सिंगापुर आदि नामों से संबोधित किया जाता है। इनकी अपनी- अपनी सीमाएं भी राजनैतिक उथल-पुथल ने बना दी हैं। प्राचीन काल में इस पूरे क्षेत्र का एक ही नाम था। ‘स्वर्णदीप- समूह क्षेत्र’ में भारतीयो ने चिरकाल पूर्व प्रवेश किया था और उसे बसाने समुन्नत बनाने में अनवरत श्रम किया। उन दिनों नौकायन ही एकमात्र साधन इन लंबी यात्राओं के लिए उपलब्ध था। कितने कष्ट सहकर हमारे पूर्वज वहां पहुंचते होंगे और उन वीरान क्षेत्रों को बसाने, विकसित करने में अपने आप को कितना गलाते-धुलाते होंगे। सही स्वरूप कि यदि कल्पना की जा सके तो उनकी परमार्थ परायणता, महानता में किसी प्रकार का संदेश न रह जाएगा।

इतिहास के प्रश्नों का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि भारत के महत्वाकांक्षी व्यापारी ,राजनेता, धर्म-प्रचारक अपनी पहुंच की सीमा तक विदेशों में आते- जाते रहे हैं और अन्यान्य देशों की भौतिक एवं आत्मिक प्रगति में भौतिक योगदान देते रहे हैं।

दक्षिण- पूर्व एशिया के देशों को प्राचीन काल में स्वर्णदीप कहा जाता था। संभव है वहां की स्वर्णिम आभा- शोभा को प्रकृति- संपदा को देखकर यह नाम दिया गया होगा। जहां-तहां सुनहरी बालू का पाया जाना भी एक कारण हो सकता है। प्राचीन किवदंतीयो में वहां सोने की खानों के होने का भी वर्णन है। कारण जो भी रहा हो, भारत में इस क्षेत्र का नाम स्वर्णदीप प्रचलित था। जावा आदि देश इसी नामकरण के अंतर्गत आते थे।

बाल्मीकि रामायण कांड 2 ,अध्याय 11 में यवद्वीप (जावा) का उल्लेख है। ‘महा जनक जातक’ , ‘साहित्य सागर’ , ‘बृहत कथा श्लोक सार’ आदि ग्रंथों में व्यापारियों द्वारा क्षेत्र की यात्राएं किए जाने का उल्लेख है। अन्य कई संस्कृत ग्रंथों में इस भू-भाग का स्वर्ण भूमि, स्वर्ण द्वीप, स्वर्ण कूट, स्वर्ण कुंड, हेम कूट, आदि नामों से उल्लेख है। “कौटिल्य- अर्थशास्त्र” और ‘मिलिंद’ ग्रंथों से भी पता चलता है कि न केवल वहां भारतीयों का ही आना- जाना था वरन वे वहां बस भी गए थे।

इतिहासकार स्मित ने अपने ग्रंथ “ए हिस्ट्री आफ साउथ ईस्ट एशिया” में सिद्ध किया है कि- “हिंद, चीन और हिंद एशिया के आदि निवासी भारतीय मूल के ही थे। उनकी आकृति और परंपरा भारत में पाई जाने वाली ‘सुमेर’, ‘चम’ , ‘मुंडा’, ‘खस’ जातियों से मिलती- जुलती थी।” भाषा विशेषज्ञों का कथन है कि इस समूचे क्षेत्र में फैली हुई भाषाओं की शब्दावली का आदि स्रोत भारतीय भाषा ही रही है। शब्दों में विश्लेषण करने से अधिकांश शब्द भारत से ही उधार लिए दिखते हैं। ‘हिंदु जावानीज’ ग्रंथों के अनुसार भी जावा में आदि निवासी भारतीय मूल के ही थे। उन्हीं के आमंत्रण और सहयोग का आश्रय पाकर पीछे भारत के अनेक जत्थे वहां जाते और बसते रहे। कैलेम, वेल्स, स्टाइन के अनुसार- मलाया की सभ्यता का विकास भारतीय सभ्यता के प्रकाश, सहयोग एवं समन्वय के आधार पर ही हुआ है। स्ट्रटर हाउस के अनुसार ‘वर्मा, पेगू और प्रोम प्रांतों को उड़ीसा वासियों ने जाकर आबाद किया था। जावा के पुरातन शिलालेख दक्षिण भारत की पल्लव लिपि में लिखे हुए मिले हैं। हिंद- चीन के शिलालेख ब्राह्मी लिपि में है। विद्वान सिडी ने अपने ग्रंथ “ईस्ट वाक डी लैंड कनिष्क” ग्रंथ में सुदूर पूर्व की पुरातन स्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए यही निष्कर्ष निकाला है कि यह समूचा क्षेत्र भारतीयों द्वारा विकसित किया गया था।

‘पुराणों’ तथा ‘जातक’ ग्रंथों में स्वर्णदीप का वर्णन मिलता है। सुदूर पूर्व में फैले हुए द्वीप समूह के लिए ही यह ‘स्वर्णदीप’ अथवा ‘स्वर्ण भूमि’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। इन द्वीपों का तत्कालिक नाम अंगदीप, यवद्वीप ,मलयद्वीप, शंखद्वीप ,कुशद्वीप, वराहद्वीप ,नागद्वीप आदि था। इनका वर्णन जिस रूप में हुआ है, इससे मलाया, जावा, सुमात्रा, कटाह, अंडमान, निकोबार, संखेद्वीप आदि के साथ उनकी संगति पूरी तरह बैठ जाती है। ‘वायु पुराण’, ‘हरिवंश पुराण‘, ‘जातक ग्रंथ’, ‘वाल्मीकि रामायण’, ‘महाभारत’ आदि ग्रंथों में इस क्षेत्र का इस प्रकार वर्णन है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि भारत ही इसके विकास का श्रेयाधिकारी रहा है।

विश्व के इतिहास वेत्ता पामयोनियस, पेरीप्लस, पिल्नी, डिओनिसस ,पेरीगेटिस, सोलीनस, माटीआनस, कैपेला, सेविल, इसीडोर, थियोड़ल्फ आदि ने स्वर्णदीप का जिस प्रकार वर्णन किया है। उससे यह तथ्य सामने आता है कि वहां सर्वप्रथम भारतीय सभ्यता का प्रकाश पहुंचा और उसने उसे क्रम से अधिक ऊंची स्थिति में पहुंचाने में योगदान दिया अरबी और चीनी लेखकों द्वारा प्रस्तुत किए गए विवरण भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।

भारतीय राजनेताओं के उस क्षेत्र में जाने बसने और सुशासन की स्थापना में योग देने के उल्लेख इतिहास के पृस्ठो पर मौजूद हैं। चंपा देश में राजकुमार विदेह का पहुंचना, काशी देश के राजकुमार का अराकान में जाना, इंद्रप्रस्थ की राजकुमार का कंबोडिया में पैर जमाना,श्रीपाद बर्मन का जावा में सुशासन आरंभ करना जैसे अनेक प्रमाण ऐसे हैं, जिससे प्रतीत होता है कि भारत में बड़े राजकुमार को गद्दी मिलती थी और छोटे राजकुमारों की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहती थी। अस्तु वे समीपवर्ती विदेशों में अपनी कुशलता का परिचय देने के लिए नए क्षेत्रों का निर्माण करते थे। इतिहासकार ‘इत्सिंग’ ने सातवीं सदी के अपने विवरण में इस बात की विस्तृत चर्चा की है कि- पांचवी ,छठी और सातवीं शताब्दी में भारतीय राजकुमार दल-बल सहित जलपोतों द्वारा इस स्वर्णदीप में पहुंचते रहे और छोटे- बड़े शासन स्थापित करते रहे।

पुरातत्व खोजों से यह निश्चित रूप से प्रमाणित हो चुका है कि दक्षिण- पूर्व एशिया के अधिकांश निवासियों की संस्कृति, पाषाण युग की संस्कृति थी, जब बे भारतीय संस्कृति के प्रभाव में आए, यह तथ्य इंडोनेशिया के जावा एवं सुमात्रा द्वीपों पर तथा इंडोचाइना के अनाम, कंबोडिया और मलय प्रायद्वीप पर लागू होता है। सुदूर सेलेबीस में वौद्ध की एक कांस्य प्रतिमा जो अमरावती कला की है, प्राप्त हुई है। यह पाषाण युग की आदिम संस्कृति से कुछ ऊपर स्तर की संस्कृति की है। हिंदू उपनिवेशकर्ता जब पहली बार स्वर्ण भूमि में आकर बसे, तब उनका यहां के आदिम वासियों से घनिष्ठ संबंध कायम हुआ, जिसके फलस्वरूप यहां की आदिम संस्कृति अपने से उच्च स्तर की भारतीय संस्कृति में घुल- मिल गई।

बोर्निओ, जावा एवं मलय प्रायद्वीप में प्राप्त संस्कृत शिलालेखों से यह निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय भाषा ,धर्म ,साहित्य तथा राजनैतिक एवं सामाजिक संस्थाओं एवं मान्यताओं ने इन सुदूर देशों पर अपना प्रभुत्व कायम किया था। बोर्नियो के राजा मूल बर्मन के कुटेई शिलालेखों से स्पष्ट रूप से प्रकट होता है कि उस समय का राज दरबार तथा समाज हिंदू संस्कृति के रंग से सराबोर था। पश्चिम जावा में प्राप्त शिलालेखों से भी यह स्पष्ट होता है कि वहां का समाज और राजदरबार हिंदू संस्कृति से पूरी तरह प्रभावित किया गया था। यहां हमें हिंदू देवताओं के, जैसे विष्णु , इंद्र ,ऐरावत के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इस देश में भारतीय महीने, ‘खगोल विधा’ तथा दूरी नापने की भारतीय पद्धति प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त इन नए-नए हिंदू उपनिवेशों में भूगोल संबंधी भारतीय नामो, जैसे ‘चंद्रभागा’ ‘गोमती’ आदि का प्रयोग वहां की नदियों के नामों के लिए मिलता है।

क्रमशः….