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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति/04

बाल्मीकि रामायण सर्ग 8, स्लोक 23-24 मे वर्णन है की देवताओ से पराजित होकर साल कटंकट वंश के असुर पाताल चले गए थे। यह लोग मूलतः लंका के वासी थे। अहिरावण आदि का पाताल में रहना और उनका लंका के साथ संपर्क सूत्र जुड़ा होना भी रामायण में लिखा है। इससे भी पाताल लोक अमेरिका में भारतीयों का आवागमन सिद्ध होता है।

श्लोक-
अशक्नुवन्तस्ते विष्नुं प्रत्योदधुं बलादिर्त्ता :
वन्शे साल कटंकटे।।
अथार्थ- देवराज विष्णु का सामना ना कर सकने पर असुर लंका से पाताल लोक सपरिवार चले गए। साल कटं कट वंश के असुरों ने अपना निवास वहीं बनाया।

मैक्सको निवासियों की प्राचीन सभ्यता ‘मय’ कहलाती है। इसके विभिन्न पक्षों का पर्यवेक्षण करने पर उसके साथ भारतीय सभ्यता का असाधारण साम्य दृष्टिगोचर होता है।

10 UNESCO sites in South America - HISTRUCTURAL - SAHC

लैली मिचल द्वारा लिखित “कांकेस्ट आफ दी माया” ग्रंथ में मेक्सिको में ऐसे अनेक प्रमाणों का संग्रह है, जिनसे पुरातन भारत और मैक्सिको की सांस्कृतिक घनिष्ठ्ता सहज सिद्ध होती है।

मेक्सिको के प्राचीन मंदिर ‘कोपन’ की दीवारों पर हाथी पर सवार महावत के भित्ति चित्र में भारतीय चित्रकला की अमिट छाप है। ‘निकल’ में मुंड धारी शिव की प्रतिमा एक भव्य वेदी पर प्रतिष्ठित मिली है। अनंत, वासुकी और तक्षक सर्प देवताओं की प्रतिमाएं मंदिरों के स्तंभों पर खुद ही मिली हैं। ‘क्युरिग्वा’ में मिली मिट्टी की प्राचीन प्रतिमाओं में भारतीय शिल्प देखा जा सकता है।

मंदिर में भित्ति चित्रों पर सोने का काम हुआ है। जिस काल के मंदिर हैं उस समय सोना केवल देवताओं के लिए ही भारत में प्रचलित हुआ था। अन्यत्र ना तो वह उपलब्ध था और ना उसका प्रयोग होता था स्वर्ण रचित मेक्सिको के भित्ति चित्रों की कला उस देश के साथ भारत की घनिष्ठता का प्रमाण देते हैं। मय- सभ्यता में गणेश, इंद्र और हनुमान की देवपूजा प्रचलित थी। मृतकों का दाह- संस्कार होता था। श्राद्ध-तर्पण का प्रचलन था।

धार्मिक और दार्शनिक मान्यताएं भी भारत से मिलती-जुलती थी। इस प्रकार के अनेक प्रमाण भारत और मैक्सिको के बीच आवागमन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रमाणिक परिचय प्रस्तुत करते हैं।

मेक्सिको के सरकारी इतिहास ग्रंथ में उल्लेख है कि उस देश में माया सभ्यता पर प्रकाश डालने वाला किसी समय प्रचुर साहित्य उपलब्ध था। लेकिन उसे ईसाई बिशप ‘डियागो’ ने होली की तरह जलवा दिया, किसी प्रकार तीन पुस्तकें बच गई थी जिनमें से एक पेरिस में, एक मेड्रिड़ में और तीसरी ड्रेसडन में सुरक्षित है।

शोधकर्ताओं ने यह स्वीकार किया है कि ‘माया’ और ‘इंका’ सभ्यताओं के समय यहां के निवासी नाप-तोल, शासन व्यवस्था, धर्म, सामाजिक परंपराओं तथा उस क्षेत्र को सुरम्य और समुन्नत बनाने में शताब्दियों तक बड़ा परिश्रम करते रहे। समय के किस कुचक्र ने उन्हें क्यों और कैसे विनाश के गर्त में ढकेल दिया, इस संबंध में भी कुछ अधिकृत रूप से नहीं कहा जा सकता। तो भी यह मानने में अड़चन नहीं रह जाती कि उस देश को समुन्नत बनाने का श्री गणेश भारत वासियों द्वारा ही किया गया था।

कुछ समय पूर्व अमेरिका की ‘जॉन हापकिंस’ नामक पत्रिका में एक शोधपूर्ण लेख छपा था, जिसमें अनेक प्रमाण यह सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किए गए थे कि प्राचीन भारत और प्राचीन अमेरिका में घनिष्ठ संबंध था। व्यापारी और धर्मोपदेशक लंबी जल यात्राये करके आते-जाते थे।

उपलब्ध खंडहरों में मंदिरों और देवी देवताओं की मूर्तियों के जो अवशेष उपलब्ध हुए हैं, वे बताते हैं कि उस समय अमेरिका एक प्रकार से भारतवर्ष का सांस्कृतिक उपनिवेश ही था। इंद्र, अग्नि, गणेश, शिव और सूर्य की मूर्तियां वैसी ही हैं जैसी भारत में पाई जाती हैं।

मंदिरों और भवनों का निर्माण भारतीय वास्तुकला के अनुरूप ही है। राजमुकुट, आभूषण, पात्र, शस्त्र ,औजार आदि का मिलान करने पर उनका साम्य तत्कालीन भारतीय प्रचलन के अतिरिक्त और किसी के साथ बैठता ही नहीं। उन दिनों मेक्सिको में ‘राम सितवा’ (रामलीला) त्यौहार भारी उत्साह के साथ मनाया जाता था।

भारत में रामलीला जैसा ‘राम-सीता’ के चरित्रों का उसमें प्रदर्शन होता था। एक खन्डहर में नाग- प्रतिमा ठीक उसी आकृति की है जैसी भारत के सांची नगर में विद्यमान है।

भारत में जिस प्रकार समाधि, स्तूप एवं स्मारक बनाए जाते हैं। ठीक उसी प्रकार के गगनचुंबी स्तूप अमेरिका में बनते थे, जिन्हें ‘टिकल’ कहा जाता था। टिकलों में देव पूजा के विविध विधि-विधान संपन्न होते थे।

‘टोलो’ (मैक्सको) में विशालकाय पाषाण स्तंभों पर भारतीय देवताओं की प्रतिमाएं बड़े कलात्मक ढंग से खुदी हुई हैं। ‘कोयून’ (होंडूरास दक्षिण अमेरिका) में दैत्य की मूर्ति भी उसी आकृति में है जिस प्रकार असुरों का भारत में वर्णन पाया जाता है। पत्थरों की कलात्मक खुदाई के वैसे ही नमूने अमेरिका के खंडहरों में भी मिले हैं; जैसे कि उत्तर भारत के प्राचीन राजमहलों अथवा देवालयों में दृष्टिगोचर होते हैं।

इसी काल के शिलालेख भारत के साथ सांस्कृतिक संबंध होने की पुष्टि करते हैं। ‘सालोमन का न्याय’ और “महा साधना जातक” कि साहित्य पृष्ठभूमि में असाधारण साम्य है। विशालकाय जलयान बनाने का इतिहास भारतीय नेतृत्व में ही आरंभ होता है। सुदूर के भूखंडों तक समुद्र की दूरी को चीरते हुए पहुंच सकने की क्षमता उसी की थी। यही कारण है कि अमेरिका जैसे दूरवर्ती देश में भी भारतीयों का आवास-प्रवास क्रम चल पड़ना संभव हो सका।

पुराणों के अनुसार ‘माया सभ्यता’ का नामकरण मय-दानव के नाम पर हुआ। जो देवों से युद्ध में हार कर पाताल लोक चला गया था। पृथ्वी का गोलार्द्द देखने से स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका भारत के ठीक पीछे या नीचे है।

पाताल अर्थात नीचे का लोक, इसे नागलोक भी कहते हैं। इस क्षेत्र के निवासी नागवंशी थे। इसी से इसका नाम नागलोक पड़ा। दुर्गा सप्तशती में कितने ही राक्षसों के पाताल चले जाने का वर्णन है।

भगवती दुर्गा ने उन्हें परामर्श दिया- “युयं प्रयात पातालम यदि जीवितु मिच्छथ:” अर्थात “यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो पाताल चले जाओ।” वे लोग बड़ी संख्या में पाताल चले गए और वहां बस गए। अपने समुन्नत ज्ञान एवं पराक्रम से उन्ने उस भूमि क्षेत्र को समृद्ध बनाया। वर्तमान समय में भी अमेरिकियों की बुद्धि , दर्शन, चिंतन का अध्ययन करें तो पता चलता है कि आज भी उनकी बुद्धि एवं कर्म आसुरी, नकारात्मक,ध्वंसात्मक ही हैं।

लाखों वर्षों में पृथ्वी का मानचित्र बहुत बदलता रहा है। आज जहां समुद्र है वहां कभी थल था। इस समय जो भूभाग दिखाई पड़ते हैं वे कभी अथाह जल राशि के गर्त में डूबे हुए थे।

भूगर्भ में होने वाली उथल -पुथल ,हिम प्रलय ,वृष्टि असंतुलन, पृथ्वी की धुरी में हेरफेर, धुर्व प्रदेशों में परिवर्तन जैसे कारणों ने थल को जल में और जल को थल में परिणित किया था। इसलिए भूखंड (महाद्वीप) कटते और जुड़ते रहे हैं। आज के कितने क्षेत्र जो समुद्र पार हैं, वे प्राचीन काल में एक ही थल भाग के अंतर्गत थे और बिना जलयानों के ही वहां जाना संभव था। इसके अतिरिक्त नौकायन की कला भी अति प्राचीन काल से ही मनुष्यों द्वारा प्रयुक्त होती आई है। उस समय के दुस्साह्सी लोग लंबी समुद्री यात्राएं करने में अपने पुरुषार्थ का परिचय देते रहे हैं। इसलिए इस संदेश के लिए गुंजाइश नहीं रह जाती है कि जो देश आज समुद्र पार है, वहां भारतीय सभ्यता किस प्रकार पहुंच पायी होगी? वस्तुत? वैसी कठिनाई थी ही नहीं और सुदूर देशों का यातायात उन दिनों के साधनों से भी भली प्रकार संपन्न हो जाता था।

अब से 200 वर्ष पूर्व तुर्की नौसेना के अध्यक्ष ‘पीरी’ का बहुत सा सामान तोपकापी के राजभवन में मिला था। उसमें एक अति प्राचीन काल में भू- सर्वेक्षण का एक नक्शा भी मिला। यह मुद्दतों बर्लिन के शाही अजायबघर में रखा रहा। उस पर संसार भर के भू- विज्ञान वेत्ता खोज करते रहे।

अंततः अमेरिका के विशेषज्ञ आलिंगटन मलारी ने उस पर जो रिपोर्ट दी है- उसमें उस नक्शे को किसी समय का अत्यंत प्रमाणिक बताया गया है। इसमें भारत, मिश्र, मध्यपूर्व तथा यूरोप को एक ही थल-खंड दिखाया गया है। समुद्री व्यवधान जिस तरह अब हो गए हैं और उस कारण से जो विभाजन हो गया है, वह उस समय नहीं था। तब अमेरिका से भी उस भू-खंड की दूरी अधिक नहीं थी। उस समय बहुत- सा अमेरिका तो पानी में डूबा हुआ था, जो पीछे समुद्र तल से उभर कर ऊपर आ गया।

क्या प्राचीन काल में अमेरिका में था हिन्दू धर्म का प्रचलन?

सन 1927 में “तिआ हुआना” (पेरू दक्षिण अमेरिक) में पुरातत्व विभाग ने जो खुदाई कराई है, उसमें एक ऐसा शिव त्रिशूल मिला है, जिसकी ऊंचाई 850 फिट है। इसी में 20 टन भारी और 24 फीट लंबा एक शिवलिंग भी है, जिस पर ग्रह -नक्षत्रों की आंतरिक स्थिति अंकित है। एक ही पत्थर से तराशा हुआ 10 टन भारी सूर्य मंदिर द्वार,तीन कतारों में उपलब्ध 48 प्रतिमाएं भी इस काल के कला कौशल की साक्षी देते हैं।

शोधकर्ता एच. एस. बेलामी और पी. अलान ने उस सामग्री पर एक शोध पुस्तक प्रकाशित की है, इसमें सिद्ध किया गया है यह सामग्री अब से 27000 वर्ष पुरानी है। उस समय के पंचांग से पता चलता है कि उस समय पृथ्वी की धुरी और कक्षा वर्तमान समय की अपेक्षा भिन्न प्रकार की थी। तब वर्ष 282 दिन का था, 365 दिन का नहीं।

लेख़क – डॉ. नितिन सहारिया (भारद्वाज)
संपर्क सूत्र – 8720857296