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विश्व की महान संस्कृति का ध्वजवाहक है हिन्‍दू नववर्ष !

हमारी भारतीय संस्कृति का पावन पुनीत पर्व जिसे सृष्टि का आरंभ कहते यह पर्व है अपना नववर्ष जिसे हम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि को मनाते आ रहे हैं। यद्यपि कालान्तर में भारत विभिन्न बाहरी शक्तियों यथा मुगलों एवं अंग्रेजों के आधीन रहा,
जिसके कारण उनके द्वारा थोपे गए अंग्रेजी नववर्ष को नया वर्ष कहने की परंपरा शुरू हो गई। किन्तु हम भारतीयों का नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि को ही आता है इसे हम उल्लास एवं आनंदित होकर अपनी संस्कृति की सर्वोत्कृष्टता के भाव में डूबकर मनाते आ रहे हैं।

13 अप्रैल 2021 से हिंदू नव वर्ष चैत्र प्रतिपदा से प्रारंभ हो जायेगा news in hindi

हमारे वैदिक ग्रंथों में स्पष्टतया यह उल्लेखित है कि भगवान ब्रम्हा ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से ही सृष्टि की रचना के प्रवर्तन का कार्य प्रारंभ किया था, जिसे सात दिनों पूर्ण कर लिया गया। अर्थात हमारा यह नववर्ष सृष्टि के निर्माण का आधारभूत स्तंभ व मूल है,
जिसकी छाया में सौहार्द प्रेम एवं आत्मिक परिशुद्धता का वातावरण पुष्ट होता आया है। भारतीय संवत्सर विश्व की कालक्रम गणना से सत्तावन वर्ष (57) आगे चलता है जो कि इस बात का प्रमाण है कि हम विश्व का दीर्घकाल से नेतृत्व करते हुए समस्त क्षेत्रों में कीर्ति की पताका फहराते आए हैं,
इसलिए यह और भी आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी संस्कृति के मूल स्वरूप के महात्म्य को ग्रहण कर अपनी पुरातन परिपाटी को पुनर्स्थापित करने के लिए मजबूती के साथ प्रतिबद्धता व्यक्त करें। विश्व में प्रचलित कैलेण्डरों में ऐसा कोई भी नववर्ष नहीं है जो अपनी एक विशिष्टता रखता हुआ प्रकृति के आत्मबोध के साथ साहचर्य बनाकर चलता हुआ दिखे,
किन्तु हमारा नववर्ष प्रकृति के साथ नैसर्गिक रुप से जुड़ा हुआ कदमताल करता है। हमारे यहां कि जलवायु ऋतुप्रधान है जो समयान्तरालों पर अपनी छटा बिखेरती रहती है, इसी क्रम में हमारे यहां वसंत को ऋतुओं का राजा कहा जाता है। इस बात पर ध्यानाकृष्ट करने एवं प्रमुखता के साथ समझने की आवश्यकता है कि
हमारे नववर्ष के प्रारंभ के लिए प्रकृति सहगामिनी के रूप में दृष्टव्य होती है। बसंत पंचमी को ज्ञान की देवी माँ आद्या भगवती सरस्वती का अवतरण दिवस मनाया जाता है, इसी के साथ ही नववर्ष के आगमन की सूचना सम्पूर्ण चराचर जगत में पहुंचने लगती है। प्रकृति अपना श्रृंगार करने लग जाती है सहज ही चहुँओर नूतनता परिलक्षित होने लगती है।
फाल्गुन मास में ही वसंत का आगमन होता है  किन्तु वसंत अपनी सभी कलाओं से परिपूर्ण होता हुआ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से ही मूलस्वरूप को प्राप्त करने लगता है । इस समय प्रकृति में विद्यमान पेड़-पौधों में पूर्णतया नई पत्तियाँ एवं कोपलें आने के साथ-साथ सभी ओर शुध्दता का माहौल निर्मित होने लगता हैं, जिसके आनंददायी वातावरण में मन आह्लादित होकर झूमने लगता है।
भौरों की कलियों में गुंजार नवीनता का एवं रसपूर्ण वातावरण के बोध को प्रकट करती है। हमारे यहां की फसलें पक जाती हैं जिसकी कटाई-गहाई का कार्य द्रुत गति से चलने लगता है वर्तमान में आधुनिक तकनीकों के आ जाने के उपरांत हँसिए की खेतों में खनक भले ही कम सुनाई देती हो किन्तु अभी भी ग्रामीण परिवेश में यह संस्कृति बनी हुई है।
नए अनाज के घर आगमन पर किसानों के चेहरे प्रसन्नता से भर जाते हैं। वर्तमान में लुप्त प्राय होने की कगार में हमारी लोक-कलाओं की प्रस्तुति पुरानी पीढ़ी के द्वारा हमें देखने और सुनने को मिलती हैं। इनमें से फसलों की कटाई के समय ही विन्ध्य अर्थात् बघेलखण्ड , बुन्देलखण्ड क्षेत्र सहित देश के अन्य भागों में अहीर यानि यादवों के द्वारा राई गायन खेतों में सुनने को मिलता है ,
यह सब हमारे नववर्ष के आगमन से प्रकृति एवं मानव सम्बन्धों की अभिव्यक्ति ही तो है। जो विभिन्न कलाओं की मनमोहक प्रस्तुति के तौर पर दृष्टव्य होती है। चैत्रमास के आगमन एवं नववर्ष से सम्पूर्ण वातावरण आनंदित होकर मंगल गायन करने लगता है, सभी ओर आनंद की अमृत समान स्फूर्ति व चेतना रुपी वर्षा होने लगती है ।
पशु-पक्षी, जीव-जंतु सभी में नवजीवन के सञ्चारित होने से प्रेम एवं आनंद से परिपूर्ण नावांकुर प्रस्फुटित होते है जिसकी पावनता में सुख-शांति एवं समन्वय की रसधारा बहने लगती है। चैत्रमास की मुख्य विशेषता यह होती है कि इस ऋतु में न तो ज्यादा शीत और न ही ज्यादा गर्मी सरलतम रूप में कहें तो संतुलित सरसतापूर्ण वातावरण बना रहता है
सम्भवतः इसीलिए विधाता ने सृष्टि की रचना करने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समय माना गया होगा।हालाँकि बदलते परिवेश में ऋतुचक्र की प्रकृति में परिवर्तन आया है, फिर भी उसका भाव अभी विद्यमान है। हमारे पूर्वज- मनीषियों द्वारा चैत्रमास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से नववर्ष के आगमन का स्वागत करते आए हैं।
भारतीय नववर्ष या चैत्र मास की श्रेष्ठता यह बस ही नहीं बल्कि हमारे यहां धार्मिक, आध्यात्मिक , पौराणिक एवं वैज्ञानिक महत्ता के प्रतिपादन का भी एक लम्बा इतिहास रहा है , उसी वटवृक्ष की शाखाएं विविध रूपों में अपने मूलतत्व को समेटे हुए जीवटता का बोध कराती हैं।
चैत्रनवरात्रि के प्रारंभ के साथ शक्ति की उपासना का प्रारंम्भ इसी प्रतिपदा तिथि के साथ होता है इसके और पहले के समय अर्थात त्रेतायुग में हमारी संस्कृति के आधार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम प्रभु का अवतरण चैत्र शुक्ल की नवमीं तिथि को हुआ था।

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हमारे लिए आदर्श के रुप में रामराज्य की स्थापना भी नववर्ष के साथ जुड़ी रही है। अन्याय, अत्याचार एवं अधर्म रूपी रावण का समूलनाश करने के उपरांत भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन के उपरान्त प्रभु का राज्याभिषेक भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही हुआ था , और इसी तिथि को रामराज्य के शंखनाद की ध्वनि से समूचा जगत एकरूपता में तल्लीन हो गया था।
चैत्र प्रतिपदा को भगवान झूलेलाल जिनका अवतरण सनातन धर्म की शाखा के सिन्धी समाज द्वारा चेटीचंड के रूप में मनाते हुए विश्व में सुख-शांति -सौहार्द एवं जीवमात्र के प्रति प्रेम की ईश्वर से कामना करते हैं।भगवान झूलेलाल को हमारे धर्मग्रंथों में वरुणदेव अर्थात् जल के देवता के रुप में भी पूजा जाता है, तथा उनकी विभिन्न रूपों में आराधना करते हुए ।
सभी दिशाओं में खुशहाली एवं हरियाली से प्रफुल्लित जीवजगत के आह्लादित होने का वरदान माँगा जाता है। महाभारत काल अर्थात् द्वापर युग में भी चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि का अपना एक अलग महत्व रहा है इसी तिथि को सत्य व असत्य के महाभारत युद्ध में दिग्विजयी होने पर महाराज युध्दिष्ठिर का भगवान श्रीकृष्ण के पाञ्चजन्य शंख के उद्घघोष के साथ राजतिलक हुआ था।
युध्दिष्ठिर के धर्मराज्य में धर्म की स्थापना का संकल्प लिया गया जिससे सम्पूर्ण आर्यावर्त्त में सुख-शांति एवं धार्मिक चेतना की अविरल धारा निरंतर प्रवाहित होती रही। भारतीय चेतना में चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि का विशेष महत्त्व सहस्त्रों वर्ष पूर्व से रहा है, वर्तमान में समय की गति के साथ ही चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि अपने अर्थ एवं महात्म्य बोध को अपने में समेटे हुए है।
हमारे धार्मिक, पौराणिक इतिहास के साथ अपने अद्वितीय महत्व को यह तिथि समेटे हुए है।महाराजा विक्रमादित्य ने विक्रम संवत्सर का प्रतिपादन भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को किया था।उसी दिन भगवान महाकाल की पावन नगरी तत्कालीन उज्जैनी वर्तमान उज्जैन की पावन पुनीता शिप्रा नदी के तट पर संवत पर्व मनाया गया था, जिसे हम तब से लेकर हिन्दूनववर्ष के रूप में मनाते आ रहे हैं।

 

भारतीय धार्मिक-सामाजिक एवं अध्यात्मिक चेतना के प्रखर पुरुष महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही की थी, जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान को पुनर्स्थापित एवं समाज को जागृत करने का था। विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के संस्थापक आद्य सरसंघचालक केशवराव बलिराम हेडगेवार जी की जयंती भी चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि को ही मनाई जाती है।
अपनी विशुद्ध वैज्ञानिक पध्दति, प्रकृति साहचर्य के साथ चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि को मनाया जाने वाला हिन्दूनववर्ष हमारे राष्ट्र की सांस्कृतिक-पौराणिक, सामाजिक-ऐतिहासिक, आध्यात्मिक परम्परा के संवाहक के रुप में जीव व प्रकृति के मध्य अन्तर्निहित सम्बन्धों को व्यक्त करने के साथ धर्म व मानवीय चेतना के प्राणतत्व को समाहित किए हुए विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति का ध्वजवाहक है।
भारतीयों का यह प्रथम कर्तव्य है कि पश्चिमी अंधानुकरण के भ्रमजाल से निकलकर अपनी जड़ों की ओर लौटे। विश्व की महान सभ्यता के नववर्ष को बढ़चढ़कर मनाएं जिससे भारतवर्ष का गौरव पुनः विश्वपटल पर स्थापित हो सके, जिसमें सभी प्रकार की उन्नति का सार छिपा हुआ है।
 !! जयतु माँ भारती !!
लेखक:- कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
सम्पर्क – 9617585228