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विश्व व्यापी राम / 9

बर्मा में पुरातत्व वेत्ताओ ने एक स्मारक में एक घड़ा खोद निकाला है, जिसमें दाह- कर्म के उपरांत बची हुई भस्म रखी हुई है। इस पर राजा ‘विक्रम’ का नाम लिखा है। इससे वर्मा में तत्कालीन भारतवंशी राजा का होना विदित होता है। जो वहां शासन करते थे। चीनी इतिहासकारों के अनुसार सन 849 में 19 ग्रामों के प्रमुख ‘पिनका’ सरदार का उल्लेख है, जो बौद्ध धर्मानुयायी था। भारत के दक्षिणात्या लोगों ने वहां पहुंचकर नाग पूजा भी प्रचलित कराई थी। वर्मा का क्रमबद्ध इतिहास 11वीं सदी से आरंभ होता है। जिसमें कहा गया है कि ‘अनावृत’ वहां का शासक था। उसे वैशाली की राज कन्या पंचकल्याणी विवाही थी।

वर्मा के कितने ही नगर भारतीय संस्कृति का उस क्षेत्र में होना सिद्ध करते हैं। पेगु का ‘ विष्णुनगर ‘ अब तक ‘विष्नुम्यो’ है । इस प्रकार कुछ समय तक ‘ रामपुरा ‘ नाम से पुकारा जाने वाला नगर अब ‘मौलमीन’ हो गया है। ” रामावती ” का पुराना कस्बा अब नया नाम बदलकर ‘दविर्ची’ बन गया है।

वर्मी इतिहासकार बताते हैं कि 11वीं शताब्दी में “शीन अर्हा” नामक ब्राह्मण भारत से उत्तर वर्मा में आया और उसने बौद्ध धर्म फैलाया। तब बागान में सैकड़ो वौद्ध विहार बने। इन्हें बनाने वाले कुशल कारीगर भारत से आए थे। इस क्षेत्र में एक विशाल विष्णु मंदिर अभी भी जीर्ण -शीर्ण अवस्था में पड़ा है। भीतरी दीवारों पर विष्णु के 10 अवतारों की प्रतिमाएं अंकित है। पागान पर सन 1084 से 1112 तक “क्यांजीटा” राजा का शासन रहा। वह अपने को ‘राम ‘का वंशज बताता था। याजदी पगोड़ा में लगे हुए एक शिलालेख से वर्तमान पागान का पुराना नाम ‘अरिदमनपुर ‘और वहां के राजा का यज्ञकुमार विदित होता है। यह उल्लेख पाली, तेलंग, प्यू और वर्मी भाषा में है। 11वीं सदी में वैशाली की राजकन्या पंचकल्याणी के पुत्र का शासनरूढ़ होना एक ऐतिहासिक तथ्य है।

इतिहास बेत्ता जी. ई. हार्वे ने लिखा है कि- “वर्मा में जितनी भी लोक कथाएं प्रचलित हैं, वे प्राय सभी भारत से गई है।” थारोन, प्रोम, पेगु, रंगून आदि क्षेत्रों में भारतीयों की बस्तियां थी। भारत से ही बौद्ध धर्म वर्मा में पहुंचा। इस उत्साह में प्राचीन हिंदू -मंदिरों का परिवर्तन बौद्ध मंदिर में कर दिया गया। रंगून का “स्वेडगो पैगोड़ा मंदिर ” विख्यात है। इन पैगोडा नुमा विशाल मंदिर में बड़े-बड़े घंटे टंगे हैं। इनमें से एक 140 टन और दूसरा 16 टन का है। रंगून नगर के मध्य में “सुले पैगोडा/ मंदिर” है। मांडले के पास मिंगुन पैगोड़ा- मंदिर में 12 फीट ऊंचा, 10 फीट चौड़ा, 100 टन वजन का कांसे का घंटा है। संसार का यह सबसे बड़ा घंटा माना जाता है। अत: समझा जा सकता है कि यह विशाल घंटा यहां मंदिर में ही लगाया गया होगा; जो की बाद में परिवर्तित होकर “वौद्ध पैगोडा” का रूप ले लिया। किसी समय यह सब प्राचीन मंदिर रहे हैं।
रंगून के समीप एक बौद्ध विश्वविद्यालय है। बर्मा में गणनीय बौद्ध मंदिरों में श्वेजीगो थानवन्यु ,गोद्दौ पालिन,महाबोधि, स्वेतनदी आदि पैगोड़ा अपनी -अपनी ढंग के अनोखे हैं। आक्रमणकारी विधर्मियों ने जितने बौद्ध मंदिर तोड़े और प्रतिमाएं नष्ट की उन सबका लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाए तो यह देश भी भारत की तरह धार्मिक ध्वंसावशेषो की कथा कहते सुना जाएगा।

बर्मा में हिंदू देवी -देवताओं और रीति- रिवाजों का अनुकरण होता है। वर्मा ,थाईलैंड, कंबोडिया इन तीनों ही देश में होली मनाई जाती है और उसे ‘ जलोत्सव ‘ कहा जाता है। भारतीय ” गणेश उत्सव” की तरह गणेश पूजा वहां भी उत्साहपूर्ण समारोह से की जाती है। उसका नाम है – “महा पैइने” । सन 1767 में वर्मा के शासक ‘हसीब बुशीन’ ने श्याम देश को जीता तो वहां से रामलीला के कुशल कलाकार अपने साथ लाया। तब श्याम के दरबारी भी ‘रामलीला’ खेलते थे। राजघराने के कई प्रतिष्ठित सदस्य भी उस समय अभिनय में भाग लेते थे। इन लोगों ने वर्मा आकर वहां बड़े उत्साह से रामलीला का प्रचार किया।

कविश्वर ‘ उतो ‘ की लिखी ‘ रामयज्ञ ‘( रामायण) वर्मा मे बहुत लोकप्रिय है । यह याग्य, नाटकों के अधिकांश विवरण इसी ‘रामयज्ञ’ रामायण के आधार पर बने हैं। जो प्राय: 2 सप्ताह लगातार चलता है और रात भर दिखाया जाता है । दर्शकों की भारी भीड़ उसे देखने जमा हो जाती है।
बर्मा को भारत में ‘ब्रह्मदेश’ कहा जाता था और वह भारत का अविछिन्न अंग माना जाता था। यहां के निवासी ‘बर्मन’ अथवा ‘वर्मा’ कहे जाते थे। भारत में भी इस उपाधि को धारण करने वाले आज बहुत लोग हैं।

जापान चीन की तरह जापान में भी अभी उस ‘आर्य’ जाति की एक शाखा मौजूद है। जिसकी अन्य शाखों से जापानियों की उत्पत्ति हुई है। उस मूल वासनी जाति का नाम ‘एन्यु’ (आर्य) ‘ है। एन्यु को काकेशियन विभाग के अंतर्गत समझा जाता है। ‘ एन्यु’ लोग अब तक प्राचीन ऋषियों के बेस में रहते हैं। दाढ़ी और केस नहीं निकालते हैं। इसलिए इनको आजकल ‘ हेयरी मैन ‘ अर्थात “बाल वाले लोग” कहा जाता है। चाहे जापानी लोग इन काकेसियन की संतति हो चाहे चीनियों की, दोनों स्थितियों में यह आर्य क्षत्रिय ही हैं।

जापान के गणमान्य और वृद्धतम विद्वान ” श्री रिंगतारो नागासाबा ” का कहना है कि – जापान का प्राचीन धर्म “ब्राह्मण ओके” Brahman Okyo ब्राह्मण धर्म (वैदिक धर्म ) था जो कि भारत से चीन और कोरिया होता हुआ बुद्ध धर्म के पदार्पण से बहुत समय पूर्व ही यहां आ गया था। चीन और जापान सहित संपूर्ण पूर्वी एशिया में भारत के विभिन्न देवी- देवताओं के मंदिर उनकी पूजन -अर्चन की विधि, रीति- रिवाज और परंपराओं की व्याप्ति इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।”
विद्वान प्रोफेसर एन. नाकामुरा का कहना है कि- “सांस्कृतिक दृष्टि से भारत जापान की मां है।”

‘टोक्यो’ के प्राचीन मंदिरों में विष्णु के अवतारों यथा मत्स्य, वराह, श्रीकृष्ण आदि की चित्रावलियां दीवारों पर चित्रित है। जापान की पुरानी राजधानी ‘नारा’ के एक प्राचीन बुद्ध मंदिर के प्रवेश द्वार पर “वेणु बजाते हुए कन्हैया” की मूर्ति उत्क्रीण की गई है। अचल पर्वत के रूप में पूजित शिव के कई मंदिर हैं। टोक्यो में महाकाल का ”मिनी मिन्मेगुरी मंदिर”, कुबेर का तागोन्जि मंदिर और सरस्वती का “चोमेईजी मंदिर” भी यहां के प्रसिद्ध मंदिर हैं। जापान में सभी वैदिक देवताओं की पूजा- आराधना होती है।
जापान में भारतीय देवताओं के निम्न नाम है – एम्मा सामा – यम, विरुशेम-विरोचन, विशामोन- कुबेर , जुटी-चंडी, फ़ूडो – शिव, कन्गीतेन-गणेश, दाईकोकू – महाकाल, मरीशितेन-मरीचि, बोनटेन सामा- ब्रह्मा, बेनेटन सामा-सरस्वती, किंचिजोतेन- महालक्ष्मी, क्वान्ंनोन- सहस्त्रबाहु आदि ।
शिव का मंदिर ‘कोयासन’ में विद्यमान है, जिसे जापान की काशी कहा जाता है। भगवान ‘ब्रह्मा’ का मंदिर भी जापान के टोक्यो में है। डाक टिकटों में भगवान वुद्द विराजमान है। बहुत से मंदिरों में अब भगवान बुद्ध की मूर्तियां स्थापित कर दी गई हैं।

जापान मंदिरों का देश है। कोयासन में 120 मंदिर हैं। सारे देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा संस्कृत मंत्रो से हुई है। कलयुगाव्द 4125 में सम्राट शिराकावा ने यहां के प्राचीन मंदिर में एक दीप प्रज्वलित किया था। जापान की वर्तमान राजधानी ‘टोक्यो’ है ,यही प्राचीन ‘क्योटो ‘ नगरी है। इसी के पास प्राचीन ‘होर्यूजी’ मंदिर है। टोक्यो के समीप “गोहयाकू राकान” मंदिर है। 500 मंदिरों में आचार्यो की मूर्तियां हैं । जापान का राष्ट्रीय संप्रदाय “झेन बुद्धिझम” है, ‘झेन’ याने ‘ध्यान’ । भारत के आचार्य ‘बोधिसेन’ ने जापानियों को सनातन/ बुद्दिज्म धर्म का उपदेश दिया, दिक्षित किया। जापान का प्रत्येक घर मंदिर होता है।
जापान के ‘टोक्यो’ शहर में सुंदर लकडियों का एक मंदिर बना हुआ है जो इंद्र का प्रसिद्ध मंदिर कहलाता है। उसमें रामायण में वर्णित हनुमान देवता का चित्र लगा हुआ है।

उक्त सभी तथ्य यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि जापान देश भारतीयों का ही बसाया हुआ है अर्थात भारत का ही एक अंग रहा है।

क्रमशः ….

डॉ. नितिन सहारिया