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वीर सावरकर और नई संसद

एकात्म फीचर सेवा

वीर सावरकर अर्थात विनायक दामोदर सावरकर को लेकर चाहे जो विवाद हो, पर वीर सावरकर का देश की आजादी की लड़ाई में जो योगदान रहा, वह तो कल्पनातीत है। वह अकेले ऐसे स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे, जिन्हें दोहरे काले पानी की सजा दी गई। उनके परिवार की सभी संपत्तियाँ अंग्रेज सरकार द्वारा जब्त कर ली गईं। इतना ही नहीं उनका पूरा परिवार ही कहीं-न-कहीं आजादी की लड़ाई के लिये समर्पित था। उनके भाई गणेश सावरकर भी उसी अंडमान जेल में बन्द थे, पर एक जेल में बन्द होते हुये भी 11 वर्ष तक उन्होंने एक दूसरे का मुंह तक नहीं देखा।

वीर सावरकर स्वतंत्रता संग्राम के महान और अतुलनीय सेनानी ही नहीं, वह ऐसे व्यक्तित्व के थे। जिन्होंने कई राष्ट्रवादियों और राजनीतिक नेताओं को प्रेरित किया। इनमें एम.एन. राय, हीरेन्द्र नाथ मुखर्जी और श्री पाद अमृत डांगे जैसे राजनीतिक भी थे। यह भी उल्लेखनीय है कि हिन्दुत्व की विचारधारा से तीब्र मतभेद होते हुये भी एम.एन. राय और ई.एम.एस. नम्बूदरियाद जैसे ख्यातिलब्ध कम्युनिष्ट सावरकर के प्रति बहुत ऊँचा सम्मान रखते थे। फिर ऐसी क्या बात हुई के जैसे ही हिन्दुत्व जो राष्ट्रीयता का प्रवाह है, वह अस्सी के दशक से जब देश में तेजी से बढ़ने लगा तो सावरकर जो प्रश्नों से परे देशभक्त थे, घोर साम्राज्यवाद विरोधी थे और निर्भीक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे- वामपंथियों द्वारा उन्हें अछूत बनाने का प्रयास किया जाने लगा। आपातकाल के बाद उन्हें शरारतपूर्ण ढंग से महात्मा गांधी के वैचारिक शत्रु के रूप में खड़ा किया गया। वस्तुतः सावरकर के जिन पत्रों को काफीनामा बतौर प्रचारित किया जाता है, वह क्रान्तिकारी गतिविधियों के विस्तार के दृष्टि से लिखे गये थे। इतिहास में ऐसे अनेको उदाहरण हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज जब औरंगजेब की अधीनता स्वीकार करने का दिखावा करते हुये उसके दरबार में उपस्थित होते हैं तो यह कोई आत्म समर्पण नहीं, बल्कि परिस्थितियों के चलते एक रणनीतिक कदम था। इसी तरह से बुंदेल केशरी छत्रसाल ने पता नहीं कितने बार औरंगजेब की अधीनता स्वीकार करने का नाटक किया पर यह सब परिस्थितियों के चलते रणनीतिक कदम थे। जैसे कि आगे चलकर साबित भी हुआ। यह बड़ी हकीकत है कि सावरकर का पूरा जीवन शौर्य, साहस एवं बलिदान की गाथा है। ऐसी स्थिति में देश की स्वतंत्रता को लेकर गांधी एवं सावरकर के रास्ते अलग भले थे, पर सिर्फ वीर सावरकर पर ही नहीं, उनके भाई जी.डी. सारवकर पर भी गांधी जी के विचार ‘कलेक्टेट वर्क्स आफ महात्मा गांधी’ (बाल्यूम 20 पेज 368) में देखा जा सकता है। जिसमें महात्मा गांधी ने स्वतः कहा है कि बड़ी संख्या में राजनीतिक कैदियों को राजकीय क्षमादान दिए जाने के बावजूद सावरकर बन्धुओं के साथ अन्याय किया गया। जबकि वह छोड़े गये दूसरे कैदियों की तरह राजनीतिक अपराधी ही थे। इस लेख को गांधी जी ने 26.05.1920 को ‘सावरकर ब्रदर्स’ टाइटिल के नाम से लिखा था। सच्चाई यह है कि उस दौर में बड़ी संख्या में राजनीतिक कैदी इस तरह के राजकीय क्षमादान के लिये लिखते थे, पर यह सावरकर के लिये बहुत बड़ा अपराध हो गया। उक्त आलेख में गांधी जी ने वी.डी. सावरकर पर ही नहीं, बल्कि उनके बड़े भाई जी.डी. सावरकर पर भी उनके संघर्ष और बलिदान को लेकर विस्तार से लिखा। उन्होंने इसमें विशेष तौर से यह भी लिखा, दोनो सावरकर बन्धुओं ने अपने राजनीतिक दृष्टिकोण को घोषित किया है और यह भी कहा है कि वह किसी हिंसक गतिविधि में भाग नहीं लेंगे। यदि उन्हें मुक्त किया जाता है तो वह रिफार्म ऐक्ट (1919) के अन्तर्गत कार्य करेंगे, क्योंकि यह भारत की राजनैतिक जिम्मेदारी के लक्ष्य के अनुरूप हैं। सावरकर के इन पत्रों में कही भी अपने कृत्यों के लिये माफी या क्षमा मांगना तो दूर पश्चाताप तक नहीं व्यक्त किया गया है। तभी तो गांधी जी ऐसे पत्र की पूरी जानकारी के बाद सावरकर को भारत का विश्वसनीय और वीरपुत्र बताते हैं। गांधी जी ने आगे यह भी लिखा है कि वायसराय ने सावरकर को लोक शांति के खतरे के चलते मुक्त नहीं किया। स्पष्ट है कि यदि सावरकर जेल से छूटकर बाहर आते तो वह शांत न बैठकर भारत माता की आजादी के लिये ही कार्य करते, तभी तो अंग्रेज उन्हें खतरा ही मान रहे थे। श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी प्रधानमंत्री रहते 1970 में वीर सावरकर के संदर्भ में डाक टिकट जारी किया था, उनके जीवन पर वृत्त फिल्म बनवाई थी और 11 हजार रूपये का चंदा भी दिया था। पर मणिशंकर अय्यर जैसे कांग्रेसी अंडमान के सेल्यूलर जेल में जाकर वीर सावरकर की नाम पट्टिका को तोड़-फोड़ का जघन्य कृत्य करते हैं। तो राहुल गांधी जैसे लोग बार-बार सावरकर को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं, जो सूरज में थूकने जैसा प्रयास है।

1857 का ‘स्वतंत्रता समर’ उनकी ऐसी पुस्तक है जो अतुलनीय है। किसी के शब्दों में जो इतिहास की पुस्तक नहीं, स्वयं इतिहास है। बहुत से प्रबुद्धजनों को पता होगा कि सावरकर ने कितनी विपरीत परिस्थितियों में लंदन में रहते हुये इस पुस्तक को लिखा था। इस पुस्तक को छिपाकर भारत लाना एक साहसपूर्ण क्रान्ति कर्म बन गया था। वह देशभक्त क्रान्तिकारियों की गीत बन गई थी। उसकी एक-एक प्रति गुप्त रूप से एक हाथ से दूसरे हाथ होती हुई अनेक अतःकरणों में क्रान्ति की ज्वाला सुलगा जाती थी। यहाँ तक कि महान क्रान्तिकारी भगत सिंह ने भी इसकी कई प्रतिया छपवाकर वितरित किया था। जब 1910 में यह पुस्तक फ्रेंच भाषा में अनूदित हुई तो फ्रांसीसी क्रान्तिकारी व पत्रकार ई. परियोन ने उसका प्राकथन लिखा- ‘‘यह पुस्तक एक महाकाव्य है, दैवी मंत्रोच्चार है, देश भक्ति का दिशाबोध है। यह सही अर्थाें में राष्ट्रीय क्रान्ति थी।’’

उल्लेखनीय है कि ड़ेढ़ दशक बाद जब वीर सावरकर जेल से छूटे, तब समाज सेवा के क्षेत्र में उन्होने उल्लेखनीय कार्य किया। यह उनके हिन्दुत्व का ही विस्तार था कि वह समाज में समरसता के इतने बड़े पक्षधर थे। उनका कहना था- ‘हमारे 1 करोड़ धर्मावलंबियों को अस्पृश्य’ व पशुओं से बदतर कहना न केवल मानव जाति का बल्कि हमारी आत्मा का भी अनादर करना है। इसलिए मेरा अटूट विश्वास है कि अस्पृश्यता का समूल उन्मूलन होना चाहिए। 1920 में अंडमान से भेजे गए एक पत्र  में उन्होंने लिखा, जैसा कि मेरा मानना है कि मैं हिन्दुस्तान पर विदेशी हुकूमत के खिलाफ बगावत करू, इसी तरह मैं यह मानता हूँ कि जातिगत भेदभाव और आस्पृश्यता के खिलाफ भी बगावत करनी चाहिए। बतौर हिन्दू महासभा अध्यक्ष उनकी कोई यात्रा अस्पृश्य रहे लोगो के घरों में जाए बिना पूरी नहीं होती थी। गणेशोत्सव के अवसर पर वह एक ही शर्त पर व्याख्यान देते थे कि उस अवसर पर अस्पृश्य माने जाने वाले लोग भी मौजूद रहे। रत्नागिरि जिला उन दिनों पुरातन पंथियों का गढ़ माना जाता था, वहां उन्होंने व्यवस्था की- महार, कुम्हार व बाल्मीकी जैसे निचली जातियों के बच्चे प्रतिदिन स्कूल जाएं। इसके लिये वे उनके अभिभावकों को चाक-स्लेट के साथ पैसे भी देते थे। उनका मानना था, एक साथ शिक्षित होने के बाद बच्चे बाद के जीवन में जातिगत भेदभाव को नहीं मानेंगे। वह जाति के आधार पर बंटवारा नहीं चाहेंगे। 1933 को उन्होंने एक कैफे की शुरूआत की जो अन्य जातियों के साथ अस्पृश्यों के लिये भी था। वह समूचे भारत में इस तरह का पहला हिन्दू कैफे था। इसमें चाय, पानी आदि महार जाति के व्यक्ति द्वारा ही दिया जाता था। सावरकर से मिलने आने वाले किसी भी व्यक्ति के लिये उस कैफे में जाकर पहले चाय पीना अनिवार्य था। उन दिनों ऐसे कृत्य कितने साहस के काम थे, यह सावरकर के अंध-निंदक नहीं समझ सकते। उस समय की परिस्थितियां यह थी कि ब्राह्मण, मराठो तक के साथ बैठकर नहीं खाते थे। सावरकर महारो के साथ बैठकर भोजन करते थे और ऐसी ही जातियों के लोगो से पानी लेकर पीते थे। 22 फरवरी 1933 को उत्सव के रूप में उन्होंने अस्पृश्यता का पुतला भी फूंका था। ऐसे कार्याे के लिये उन्होंने डॉ0 अम्बेडकर के अभियानों का खुलकर समर्थन किया था। इसी को दृष्टिगत रखते हुये उन्होंने पतित पावन मंदिर की स्थापना कराई थी। स्नान के बाद कोई भी हिन्दू यहां पूजा कर सकता था। इतना ही नहीं मंदिर के न्यास में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व अस्पृश्य सभी वर्गाें के लोग थे। सावरकर ने उन लोगो के लिये शुद्धिकरण का, धर्म परिवर्तन की भी शुरूआत की जिन्होंने किसी भय या प्रलोभन के चलते हिन्दू धर्म छोड़ा था। यह सावरकर जैसा हिन्दुत्ववादी ही कह सकता था- ‘‘आप मुस्लिम हैं तो मैं हिन्दू हूँ, वरना मैं तो विश्व मानव हूँ।’’ उनके जन्मदिन के अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा नई संसद को उद्घाटन किया जा रहा है। निश्चित रूप से यह वीर सावरकर के प्रति राष्ट्र की अघोषित रूप से विनम्र श्रद्धांजलि के साथ कहीं-न-कहीं राष्ट्र उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर रहा है। नई भारतीय संसद में पुरातन भारतीय राजदण्ड के प्रतीक सेंगोल की स्थापना कर वह वीर सावरकर के संघर्ष और उनकी विचारधारा को सार्थक और फलीभूत करने का भी प्रयास कर रहे हैं। वीर सावरकर जैस महापुरूषों ने देश में ‘स्व’ के लिये जो यातनायें झेली, यह उनका गुणात्मक विस्तार है।

लेखक- वीरेन्द्र सिंह परिहार