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संविधान बनाम न्याय पालिका

देश में विगत कई वर्षाें से संविधान की समीक्षा को लेकर बाते हो रही हैं। कई लोग तो ऐसे भी हैं जो इसलिये संविधान की समीक्षा चाहते हैं, कि संविधान को निष्प्रभावी बनाकर जाति और मजहब का कार्ड ‘खुला-खेल फर्रूखावादी’ के तौर पर खेल सकें। संविधान की समीक्षा निश्चित रूप से होनी चाहिए, जिसमें समीक्षा का एक प्रमुख विषय यह होना चाहिए क्या हमारी संसदीय प्रणाली सफल रही है, अथवा कठोर दलीय पद्धति के चलते वह अंध बहुमतवाद का शिकार हो गई है। कुल मिलाकर यदि संसदीय प्रणाली समय की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकी है तो संयुक्त राज्य अमेरिका एवं फ्रांस की तरह देश में अध्यक्षीय प्रणाली क्यों न लागू की जाये? जिससे व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका शक्ति पृथककरण के सिद्धांत पर स्वतंत्र होकर कार्य कर सके, साथ ही एक दूसरे पर नियंत्रण रखने का संतुलन एवं निरोध (चेक ऐण्ड बैलेंस) का सिद्धांत भी अपनाया जा सके। जैसा कि हमारे संविधान निर्माता चाहते थे।

निसंदेह संविधान की समीक्षा हो कि संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल होते हुये भी अभी तक कामन सिविल कोड लागू करने का प्रयास क्यों नहीं किया गया? संविधान की समीक्षा इसलिये भी जरूरी है कि परिवार नियोजन की व्यवस्था सभी पर बाध्यकारी ढंग से लागू हो, जिससे एक ओर तो देश की बढ़ती जनसंख्या को रोका जा सके तो दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय में अनुपातिक रूप से ज्यादा बढ़ रही जनसंख्या के अनुपात को लेकर व्याप्त आशंकाओं से ही नहीं, डेमोग्राफी के बदलाव को भी रोका जा सके।

संविधान की समीक्षा इसलिये भी जरूरी है कि संसद और विधानसभाओं में भारी तादात में दागी और अपराधी किस्म के लोगो की घुसपैठ कैसे हो गई है? संविधान की समीक्षा इसलिये भी जरूरी है कि कभी लालू यादव और शिबू सोरेन जैसे कई घोटालों के आरोपी केन्द्रीय मत्रिमण्डल में कैसे शामिल हो गये? संविधान-समीक्षा इसलिये भी होनी चाहिए कि संविधान निर्माताओं ने जाति-विहीन, वर्ग-विहीन समाज का जो सपना देखा था, उसकी जगह जातीपता एवं साम्प्रदायिकता की प्रवृत्तियाँ क्यों जोर पकड़ रही हैं? संविधान की समीक्षा इसलिये भी जरूरी है कि राजनीतिज्ञों को कैसे जवाबदेह बनाया जाये और उसके भ्रष्ट एवं अनुचित कारनामों के लिये उन्हें कैसे दण्डित किया जाये?

न्यायालिका किसी भी कृत्य या कानून की समीक्षा करने का अधिकारी है। पर उस पर भी युक्त-युक्त नियंत्रण के लिये कोई प्रभावी तौर-तरीका केसे लागू किया जाये? वस्तुतः आज के दौर में न्यायपालिका जो सर्वशक्तिमान हो चुकी है, और संविधान की मूल भावना के विरूद्ध चेक एण्ड बैलेंस सिद्धांत से पूरी तरह अलग है। इतना ही नहीं सिर्फ भारत एक ऐसा देश है, जहाँ जज ही जहों को नियुक्त करते हैं। इतना ही नहीं, उच्च न्यायापालिका के जजों के लिये भ्रष्टाचार एवं स्वेच्छाचारिता पर कार्यवाही के लिये महाभियोग छोड़कर जो अत्यन्त दुरूह व्यवस्था है, कोई प्रभावी तंत्र नहीं है। यद्यपि वर्ष 2014 में मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद सर्वानुमति से ‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’ बनाया पर अक्टूबर 2015 में सर्वाेच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को यह कहकर निरस्त कर दिया कि यह संविधान के मूल ढ़ाँचे का उल्लंघन है। सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा यह भी कहा गया था कि न्यायिक नियुक्ति आयोग में विधि मंत्री और दो प्रख्यात विधिवेता जो कमेटी के सदस्य होंगे, वह न्यायिक आजादी में दखल का कारण बन सकते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि संविधान के मूल ढ़ाँचे का उल्लंघन ऐसे कानून नहीं, बल्कि कालेजियम प्रणाली कर रही है। इसका मतलब यह है कि निर्बाध अधिकार एवं स्वतंत्रता किसी को नहीं दी जा सकती। जैसा कि कहा जाता है- ‘‘सम्पूर्ण सत्ता सम्पूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है।’’ बेझिझक यह कहा जा कसता है कि न्यायपालिका सम्पूर्ण सत्ता अपने पास रखना चाहती है। जबकि सच्चाई यह कि भ्रष्टाचार को लेकर सर्वाेच्च न्यायालय के कई मुख्य न्यायधीशों तक के विरूद्ध उंगली उठ चुकी है। प्रयागराज उच्च न्यायालय के संदर्भ में दिसम्बर 2010 में सर्वाेच्च न्यायालय स्वतः यह टिप्पणी कर चुका है कि वहाँ कुछ गड़बड़ है। इस तरह से न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका में भी परिवारवाद का विषाक्त पभाव एक व्यापक चर्चा का विषय है।

सर्वाेच्च न्यायालय ने न्यायिक नियुक्ति आयोग को इस आधार पर निरस्त कर दिया था कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित होगी। जबकि 6 सदस्यीय आयोग में चीफ जस्टिस और दो वरिष्ठतम जज यानी तीन तो न्याय पालिका के ही जज रहते। दो विधिवेत्ताओं का भी जो चुनाव होता- उसमें प्रधानमंत्री एवं विपक्ष के नेता के साथ चीफ जस्टिस की भी भूमिका होती। ऐसी स्थिति में यह पूछा जा सकता है कि क्या अकेले भारत के विधि एवं न्यायमंत्री द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित किया जा सकता था? विडम्बना यह कि न्यायपालिका यह तो चाहती है कि और सब जवाबदेह हों, पर वह अपने को जवाबदेही से ऊपर मानती है। यद्यपि प्रधानमंत्री मोदी यह कह चुके हैं न्यायपालिका को सिर्फ ताकतवर ही नहीं होना चाहिए पर इसके साथ एकदम से सही भी होना चाहिए। इसके लिये वह न्यायपालिका में गुणात्मक सुधार की जरूरत बता चुके हैं। इसीलिये उन्होंने न्यायपालिका को न सिर्फ स्व-मूल्यांकन प्रणाली पर जो दिया बल्कि न्याय पालिका की खामियों और समस्याओं को दूर करने के लिये एक आंतरिक तंत्र विकसित करने पर भी जोर दिया। पर न्यायपालिका है कि- ‘‘अति स्वतंत्र कुछ बंधन नाहीं’’ की पद्धति पर ही चलना चाहती है।
लाख टके का सवाल यह कि जो लोग यह कहते हैं कि न्यायिक मामलों में सरकार की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए, वह क्या बताऐंगे कि किसी भी नियुक्ति में निर्वाचित सरकार को पूरी तरह से अलग केसे रखा जा सकता है? यद्यपि यह भी सच है कि सर्वाेच्च न्यायालय स्वतः कह चुका है कि कालेजियम प्रणाली में कुछ खामियां खासतौर पर पारदर्शिता की कमी है। जिसमें सुधार के लिये सरकार से मदद की बात भी की गई। पर यह सब बाते हवा-हवाई ही साबित हुई। इसी को ध्यान में रखकर देश के पूर्व एटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी भी कह चुके हैं कि संविधान ने सभी के लिये लक्ष्मण रेखा तय की है।

विडम्बना यह कि न्यायपालिका स्वतः ही अपनी बातों पर गम्भीर नहीं है। न्यायिक नियुक्ति आयोग को निरस्त करते वक्त उसने सरकार से जजों की नियुक्ति के सम्बन्ध में एम.ओ.पी. बनाने को कहा था जिसे केन्द्र सरकार जुलाई 2016 में ही प्रस्तुत कर चुकी है। पर एम.ओ.पी. के प्रारूप पर वह बार-बार आपत्ति जताकर जजों की नियुक्तियों में सारे अधिनियम अपने पास रखना चाहती है। जबकि एम.ओ.पी. के जरिये मोदी सरकार ऐसी व्यवस्था चाहती है कि कालेजियम जिन नामों का प्रस्ताव करे, उसमें सम्बन्धित व्यक्ति की पात्रता एवं योग्यता साफ-साफ झलकनी चाहिए। उनकी ईमानदारी एवं निष्ठा पूर्ण रूपेण असंदिग्ध हो। मोदी सरकार यह भी चाहती है कि किसी सेशन जन को हाईकोर्ट का जज बनाने के पहले हाईकोर्ट का कालेजियम उसके पन्द्रह साल के कामकाज का मूल्यांकन कर उसका विवरण अपनी अनुसंशा के साथ संलग्न करें। पर न्यायपालिका मात्र वरिष्ठता की ही जिद पकड़े है। इसी तरह से मोदी सरकार यह चाहती है कि सर्वाेच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के जजों के विरूद्ध आने वाली शिकायतों के निपटारे के लिये एक पारदर्शी, स्थायी एक समान सचिवालय बने। देश के तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीश यह कह चुके हैं कि जजों की नियुक्ति के समय उनके गुणों एवं दुर्गुणों पर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष बहस होनी चाहिए। उपरोक्त सम्बन्ध में देश के कानून एवं न्याय मंत्री किरण रिजजू की अभी हाल में कई आपत्तियां व्यक्ति कर चुके हैं। बेहतर हो कि इस मामले में देश कोई कठोर फैसला करे, इसके पहले न्यायपालिका को ही इस मामले में पहल करनी चाहिए। संविधान दिवस पर इस बात पर गम्भीरता से मनन होना चाहिए कि न्यायपालिका कैसे संविधान की भवना के अनुरूप कार्य करें।

वीरेन्द्र सिंह परिहार
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