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‘’समस्त वैश्विक समस्याओं का समाधान: आध्यात्मिक हिंदू जीवन मूल्य” भाग-2…

‘’समस्त वैश्विक समस्याओं का समाधान: आध्यात्मिक हिंदू जीवन मूल्य” भाग-2…

वैश्विक संकट का समाधान भारतीय संस्कृति ,हिंदू यानी आध्यात्मिक जीवन मूल्यों में छुपा हुआ है। स्वामी नित्यानंद जी महाराज इस संदर्भ में कहते हैं कि- “जिस प्रकार दुनिया गोल है ,व्यक्ति जिस बिंदु से चलता है पुन: गोलाकार चलता हुआ लौटकर उसी बिंदु पर आता है ।

जिस प्रकार पक्षी समुद्र में उड़कर ,थक कर विश्राम करने  ,शरण पाने,जहाज पर ही आता है ।ठीक वैसे ही मनुष्य अपनी भारतीय संस्कृति ,हिंदू संस्कृति ,सनातन संस्कृति को त्याग कर काल के प्रवाह में बहकर ,पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध, में विचलित होकर अब थक,परेशान होकर ,दुर्गति करा कर वापस अपने मूल स्थान पर आने को व्याकुल है ।

जैसे गाय का बछड़ा भूखा प्यासा, व्याकुल होकर अपनी मां को पुकारता हुआ उसकी गोद में ही शांति व प्रेम की अनुभूति करता है। वही स्थिति आज हम सब मानव समाज की हुई है ।

समाधान के स्वर हिंदू संस्कृति के जीवन मूल्य-

सिद्धांत , शील,सनातन  धर्म के 10 लक्षणों में निहित हैं ।ऋषियों  की बनाई दिव्य जीवन शैली ,सदाचार ही हमें ,मानव से महामानव व देव मानव बनाने के पथ पर अग्रसर करती है। भारतीय संस्कृति त्यागमयी, परोपकार, जियो और जीने दो ,अपरिग्रह का संदेश देती है ।

रामायण में त्यागमय, श्रेष्ठ जीवन, राष्ट्र के लिए ,लोक मर्यादा पालन के लिए त्याग, पिता आज्ञा के लिए ग्रह का त्याग ,राज के लिये भाई का त्याग, वन गमन धर्म रक्षा-ऋषि रक्षा ,लोक कल्याण के हेतु से जीवन दांव पर लगाने, कर्तव्य( वचन )पालन हेतु राज्य त्याग ,की ही प्रेरणा, शिक्षा प्रदान करती है ।जीवन के प्रत्येक हिस्से का श्रेष्ठ शिक्षण ,कर्तव्य पालन की प्रेरणा ,श्री राम कथा में मौजूद है ।

वही गीता कर्मयोग ,भक्ति योग, ज्ञानयोग, कर्मफल का रहस्य ,आत्मा का रहस्य ,योग विज्ञान ,आत्मा की अमरता ,पुनर्जन्म का सिद्धांत ,जीवन जीने की कला ,का अद्भुत प्रतिपादन करती है ।संसार का सर्वश्रेष्ठ तत्वज्ञान श्री राम कथा वा श्रीमद्भागवत कथा में मौजूद है। फिर भी हम दीन -हीन भिकारी बने  रहें । तो विधाता का क्या दोष? तब फिर गीत की यह पंक्तियां ही सत्य प्रकट करती दिखाई देती हैं ——

कोठरी मंन की सदा ,रख साफ बंदे  ।

कौन जाने कब स्वयं ,प्रभु आन बैठा ।।   

तुम बुलाते हो उसे यदि ,भावना से   ।                                                                               

 कौन   जाने कब, निमंत्रण मान बैठे  ।।

 स्वर्ग भूतल पर गड़े ,कैसे विधाता    ।  

 नर्क में ही सुख ,मनुज यदि मान बैठे ।।

सूर्य उगकर भी भला ,क्या हित करेगा ।

 आंख पर पट्टी ,अगर हम बांध बैठे   ।।

 मांगने की रीत सी ,कुछ चल पड़ी है ।                                                                            

कृपणता  से प्रीति सी,कुछ हो चली है ।।

 क्यों नहीं परमार्थ पथ का, मान रखते ।

क्यों नहीं इंसानियत की ,शान रखते है।।

 तुम्हें दाता विधाता ,   ने बनाया   ।

 क्यों अरे खुद को,भिकारी मान बैठे। 

 क्यों अरे खुद को,भिकारी मान बैठे ।।

 अथर्ववेद कहता है –  ” माता भूमि पुत्रोस्याम पृथिव्या ” अर्थात पृथ्वी माँ है।व हम सभी उसके पुत्र हैं। इस भाव से जब हमारा प्रत्येक -कार्य, व्यवहार ,चिंतन होगा तब दुनिया की सभी समस्याएं हल होती नजर आएंगी एवं उत्पन्न ही नहीं होंगी अब बात आती है समाज में नारी के प्रति दृष्टिकोण तव हमारे ग्रंथों में लिखा है “मात् वत पर्द्रवेशु “,,, पर्दृवेसू लोस्टवत “अर्थात पराई स्त्री को मां ,बहन ,बेटी के समान एवं पराए धन को ,मिट्टी के समान मानना चाहिए ।

ऐसे उदात भाव के कारण भारत दुनिया का’ गुरु,’ मार्गदर्शक ‘रहा था ।कभी घास फूस की झोपड़ी में रहने वाले ऋषि मुनियों के सामने बड़े-बड़े राजे महाराजे चरणों में लोटपोट हुआ करते थे ।एवं एक दर्शन , चरण स्पर्श को ,अपने जीवन का सौभाग्य मानते थे।

प्राचीन काल में ऐसी गौरव -गरिमा वाला अपना भारत रहा है। एवं भविष्य में पुन:उसी अधिष्ठान की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर है । “तेन त्यक्तेन भुंजीथा” त्याग जीवन का स्रेस्टम मूल्य है। इसे प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक के सभी महापुरुषों ने अपनाया है ।भगवान श्री रामचंद जी का जीवन, त्याग की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति था।

भगवान श्रीकृष्ण महलों में वैभव के बीच रहकर भी योगेश्वर थे ।जैसे कमल पत्र,उस पर जल नहीं ठहरता वैसा ही अनासक्त भाव जीवन था अर्थात त्याग पूर्वक भोग ही हमारे जीवन पुस्प का पराग रहा है।

सत्य के पालन के लिए महाराज हरिश्चंद्र ने पत्नी ,बच्चे ,राजपाट सब दान कर, त्याग कर दर -दर की ठोकर खाई और ‘सत्य के प्रतीक’ बन गए। महाराज दिलीप ने अपने शरीर का ही दान कर दिया हमारे यहां तो सत्य में ही धर्म की प्रतिष्ठा मानी गई है।

 वर्तमान में विद्यमान अधिकांश वैश्विक समस्याओं के समाधान के रूप में हिंदू चिंतन ,आध्यात्मिक चिन्तन मे  एक ऊक्ति-“आत्म सर्वभूतेषु “अथवा “ईशा वास्य मिदं सर्वम ,,,,,,यत्किच्तयां जगत”  की चर्चा आती है हिंदू चिंतन में गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज श्री रामचरितमानस में लिखते हैं कि –

सिया राम माय सब जग जानी । 

करहू  प्रणाम जोरी  जुग पानी ।।“

अर्थात-कण -कण मे ,  कंकण- कंकड में राम ही राम व्याप्त है ।सृष्टि के चराचर में एक ही तत्व ,वह दिव्य चेतना व्याप्त है। ऐसा कोई स्थान नहीं जहां वह नहीं एवं उसके बगैर किसी चीज का कोई अस्तित्व नहीं है। संपूर्ण पृथ्वी, जल थल ,वृक्ष -वनस्पति जीव -जंतु ,स्थूल- सूक्ष्म,अंदर-बाहर, सब जगह वही राम रोम- रोम में रम रहा है। व्याप्त है ।

इसीलिए तो हिंदू सांप को ब चूहा,हाथी  मोर ,शेर, नंदी, वृक्षों में- पीपल बरगद ,आंवला, तुलसी, आम को आदिकाल से पूजता चला आ रहा है। क्योंकि कण-कण में पत्थर कंकड़ में जीब- अजीब-सजीब सभी में एक ही परमात्मा चेतना व्याप्त है ।

उसी को प्रोफ़ेसर जगदीश चंद्र बसु ने अपने प्रयोग में अनुभूत सिद्ध किया और कहा कि – “वृक्ष- वनस्पतियों में भी संवेदना है उन्हें भी दुख वा प्रसन्नता की अनुभूति होती है”। यही भाव रखकर एक हिंदू, एक सामान्य से पत्थर को ,भगवान बनाकर पूजता है। ऐसे ही एक मिट्टी की मूर्ति बनाकर ,गुरु की एकलव्य श्रद्धा पूर्वक नित अभ्यास करता है और श्रेष्ठ धनुर्धर बन जाता है ।

नरेंद्र अपने गुरु को सर्वस्व समर्पण करके स्वामी विवेकानंद बन जाता है ।भारतीय संस्कृति में तो– ” भवानी शंकरो बंदौ ,श्रद्धा विश्वास रुपिनौ ।” श्रद्धा ही भवानी -विश्व  माता है ।विश्वास ही शंकर है। इसलिए गाया जाता है कि —

सीता श्रद्धा देवी की, राम अटल विश्वास।

 रामायण तुलसी सहित ,हम तुलसी के दास ।।

 राम सिया राम सिया राम जय जय राम…

 इसी  बात को श्री रामचंद्र जी ने रामायण में कहा है जिसे गोस्वामी जी चौपाई के रूप में वर्णन करते हैं ।-

सकल विश्व यह मोर उपाया।     

सब पर कीन समानी दाया  ।। 

  यह सारा जगत ,संसार मेरा ही उपजाया बनाया हुआ है ।और मैं ही कण-कण में सब में व्याप्त हूं ।यह मेरा ही विराट रूप है। और मैंने सब पर समान रूप से दया की है। और इन सब में मनुज, (मनुष्य) मुझे सबसे अधिक भाया पसंद है ।

इसी सत्य की पुष्टि करते हुए स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं कि यह सारा संसार उस विराट महामाया की छाया मात्र है और वही सबका पालन -पोषण ,संहार कर रही है। हमारा जन्म ही माता को समर्पित होने के लिए हुआ है। हे भारत! तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री ,दमयंती हैं।

मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्व त्यागी, उमानाथ शंकर हैं ।मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, धन और जीवन इंद्रिय -सुख के लिए,अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं ,मत भूलना कि तुम्हारा जन्म ही माता के लिए समर्पित होने के लिए हुआ है ।

मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र है ।मत भूलना कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र तुम्हारे रक्त हैं। तुम्हारे भाई हैं। हेवीर !साहस का श्रेय लो और गर्व से कहो कि मैं भारतवासी हूं ,और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। कहो कि अज्ञानी भारतवासी, दरिदृ भारतवासी,ब्राह्मण भारतवासी, चांडाल भारतवासी ,सब मेरे भाई हैं। भारतवासी मेरे प्राण हैं ।भारत की देव- देवियां मेरे ईश्वर हैं ।

भारत का समाज मेरे बचपन का झूला ,जवानी की फुलवारी और मेरे बुढ़ापे की काशी है ।भाई बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है। भारत के कल्याण से मेरा कल्याण है ।और रात दिन कहते रहो -हे गौरीनाथ !हे जगदंबे !!मुझे मनुष्य्त्व दो मां! मेरी दुर्बलता और कापुरुषता  दूर कर दो मां!मुझे मनुष्य बना दो ।”

                      रामायण में प्रभु राम एक श्रेष्ठ भक्त की व्याख्या करते हुए कहते हैं। कि जो विनम्र ,संतोषी है ,और सब में मुझे जानकर, मानकर शुद्ध प्रेम, करुणा, सेवा का व्यवहार करता है ।ऐसा भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है ।

निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।

मोहि कपट छल, छिद्र न भावा  ।।

हिंदू की ऐसी ही –“आत्मवत सर्वभूतेषु”की दृष्टि होने से ,वह जल में डूबते बिच्छू को भी अपने हाथ में उठा लेता है ।भले ही फिर कस्ट ही क्यों ना सहना पड़े ।खुद कष्ट में हो कर भी जो दूसरों की सेवा सहायता को तत्पर रहता है। वह ‘हिंदू’ ऐसा ही होता है ।

अतः समस्त वैश्विक समस्याओं की एक रामबाण औषधि समाधान विराट “उदात्त हिंदू चिंतन “ही है “आध्यात्मिक चिंतन “ही है जो समस्त विश्व को विनाश के मार्ग से हटाकर ,सृजन की ओर ले जाएगा । अध्यात्म विज्ञान का मिलन होकर संतुलित विकास “सस्टेनेबल डेवलपमेंट” की संकल्पना साकार होगी तभी संसार सुख- शांति से भरपूर होगा ।

अयं निज :परोवेति ,गणना लघु चेतसाम ।

उदार चरिता नाम तू, वसुधैव कुटुंबकम ।।

आध्यात्मिक हिंदू चिंतन कहता है कि यह छोटा है या बड़ा है यह अपना है, वह पराया है। ऐसा तो छोटी सोच वाले सोचते हैं ।हमारे लिए तो यह विस्व-वसुधा ही कुटुंब ( परिवार) है । Global Family है ।अत:कोई पराया नही है ।

सभी अपने ही बंधु-बांधव हैं कालचक्र की मजबूरी में रिश्ते नाते बिछड़ गए एक बड़ा परिवार हमारा जड़ में जीवन हिंदू है पुरखे सबके हिंदू हैं संस्कृति सबकी एक चिरंतन खून रगों में हिंदू है। जड़ में जीवन हिंदू है ।

हिंदू संस्कृति में श्रेष्ठ आचरण ,आर्यत्व के  धर्म कर्तव्य, के 10 लक्षण (गुण )बताए गए हैं। वह ‘हिंदू’ कहलाने का अधिकारी है –

  धृति :क्षमा दमोहस्तेयम शोचं इंद्रियनिग्रह ।

  धी:विधा सत्यम क्रोधो दसकमं धर्म लक्षणं।।

मनु महाराज जो हमारी सृष्टि के हमारी मानव जाति के आदिपुरुष ,प्रथम पुरुष थे। स्रेस्ट पुरुष ( धर्मशील )को 10 गुणों को धारण करने का, आचरण करने का निर्देश देते हैं

धृती-तात्पर्य जो सुख-दुख, लाभ-हानि में धर्म के स्वरूप में स्थित व्यक्ति दोनों स्थितियों में सम रहता है । क्षमा अलौकिक गुण हैं। वह तो महान व्यक्तियों का आभूषण है।अति कृपालु परमब्रह्म क्षमा का अनंत भंडार है।

दम- यानी  दमन पांचों इंद्रियों-(आंख ,कान, नाक, जिव्हा, त्वचा )गलत दिशा में ना जाएं इसलिए इन पर नियंत्रण -दमन रखो जैसे पतंगा (रूप) हाथी (स्पर्श )हिरण (ध्वनि ) भौरा (सुगंध)मछली (रस) मृत्यु के वशीभूत हो जाते हैं। वैसे ही मनुष्य विषयों में फंसकर, अपनी दुर्गति करा लेता है ।अतः उसे इंद्रियों के दमन करना चाहिए …

आस्तेय- चोरी ना करना ।जो वस्तु अपनी नहीं है ।उसकी कामना नहीं करना जो व्यक्ति मन ,वचन ,कर्म से आस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाता है। उसे सभी रत्नों की प्राप्ति स्वत:ही हो जाती है ।(योग दर्शन 239)

शौचं –पवित्रता- वाहा  और आंतरिक पवित्रता, धर्म का प्रमुख अंग है ।शरीर ब अंत:करण की शुद्धता,जल से शरीर शुद्ध होता है। सत्य से मन ।विद्या ब तप से जीव ,ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है।

इंद्रिय निग्रह- विषयों में फंसी हुई इंद्रियों को विवेक पूर्वक रोकना ,इंद्रिय  निग्रह है । धी बुद्धि बुद्धि के द्वारा ही ज्ञान ग्रहण किया जाता है ।वस्तुतः बुद्धि को धारण करने के लिए महर्षि पतंजलि ने कहा है कि- आहार-विहार शुद्ध सात्विक होना चाहिए इससे सत्व शुद्ध होता है सत्व   शुद्ध होने से स्मृति ध्रुव अटल हो रहती है ।कहा भी गया है कि -“जैसा खाए अन्न वैसा होगा” मन यह मन ही इंद्रियों का ड्राइवर (चालक) है अतः भोजन की सात्विकता शाकाहार का बड़ा ही महत्व है।

प्रत्येक बात का इतना गहन सूक्ष्म,चिंतन -मनन मात्र ऋषि संस्कृति -हिंदू संस्कृति में विश्व में एकमात्र देखने को मिलता है। विद्या – विद्या दो प्रकार की होती है परा और अपरा अर्थात आध्यात्मिक व भौतिक जीवन के लिए दोनों ही आवश्यक है ।तभी जीवन सही रूप में सफल होता है।

सत्य सत्य ही ब्रह्म है ।सत्य ही तप है। सत्य ही जीवन है, सत्य ही धर्म है तथा सत्य ही धर्म का आधार है। और “धर्मस्य मूलम सुखम  ”तीनों लोकों में सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं कोई तप नहीं। तभी तो संत कबीर कहते हैं-  –    

सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।

 जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप ।।

 योग दर्शन कहता है कि -यदि मन, वाणी और कर्म से सत्य में स्थित हो जाया जाए  तो वाणी में अमोघता,  वरदान -श्राप की क्षमता आ जाती है। अर्थात मुख से कुछ भी कहने पर सत्य हो जाता है ।सत्य का पालन ही, मोक्ष मार्ग का विस्तार करने वाला है।

आक्रोधक्रोध के समान मनुष्य का कोई शत्रु नहीं है क्योंकि यह मनुष्य के धैर्य, ज्ञान और सारी अच्छाइयों को नष्ट कर देता है ।क्रोध से शारीरिक ,मानसिक तथा आत्मिक उन्नति का द्वार बंद हो जाता है।

अतः इन्हीं 10 गुणों को धारण करने के कारण ,तपस्वी होने के कारण, त्याग मय  जीवन जीने के कारण , ‘हिंदू ‘ ‘विश्ववन्ध ‘हुए भूसुर  कहलाते थे। एवं यह भारतभूमि-देवभूमि -हिन्दू भूमि,जगतगुरु कहलाती थी अतः “गुरुत्व यानी हिंदुत्व” यही हमारी उत्कृष्टता (गुरुत्व) का आधार था, है और भविष्य में भी होगा ।

इसे अन्यान शब्दों में आध्यात्मिकता आर्यत्व ,मानवता ,भारतीयता ,देवत्व, मनुष्यत्व , के नाम से कालांतर में संसार में  पुकारा गया है। इसी संदर्भ में स्वामी विवेकानंद  लिखते हैं कि-

” भारत ईश्वर (अध्यात्म) की शोध में रत हो गया तो  अमर हो जाएगा और यदि राजनीति के कीचड़ में लौटता रहा तो विनाश अटल है।”

डॉ. नितिन सहारिया
(लेखक सामाजिक चिंतक एवं विचारक)