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समृद्धि से ज्यादा स्वस्थ शरीर और मानसिक शांति महत्वपूर्ण

भारतीय संस्कृति में ज़िन्दगी केवल सांसों का सफर नहीं……

एक पुरानी कहावत है भूत मारता भले न हो लेकिन परेशान जरूर करता है. कोरोना की तीसरी लहर और उसके साथ ओमिक्रोन नामक नए वायरस के बारे में भी यही कहा जा रहा है कि वह दूसरी लहर की तरह जानलेवा नहीं होगा परन्तु उसके चंगुल में आने वाले व्यक्ति को कुछ समय तक परेशानी उठानी पड़ेगी.

लगे हाथ ये चेतावनी भी दी जा रही है कि इसे हल्के में न लें क्योंकि इसके लक्षण पहली और दूसरी लहर से भिन्न हैं जिनकी अनदेखी घातक हो सकती है. सबसे बड़ी बात जो देखने में आ रही है वह ये कि कोरोना के दोनों टीके लगवा चुके व्यक्ति को भी ये वायरस संक्रमित कर रहा है. हालाँकि अब तक के निष्कर्षों के अनुसार ओमिक्रोन से पीड़ित मरीज को अस्पताल और ऑक्सीजन की जरूरत नहीं पड़ रही और घर में ही अलग रहकर वह साधारण इलाज से स्वस्थ हो जाता है किन्तु इसके साथ नुकसानदेह बात ये है कि इसका संक्रमण कोरोना से कई गुना ज्यादा फैलता है. यही वजह है कि बीते कुछ दिनों के भीतर ही देश में संक्रमितों का नियमित आंकड़ा डेढ़ लाख के निकट जा पहुंचा है.

चिकित्सा वैज्ञानिक ये मान रहे हैं कि जनवरी का अंत आते तक ये संख्या 10 और 20 लाख से भी ऊपर जा सकती है. लेकिन दूसरी तरफ ये भी आश्वासन मिल रहा है कि कोरोना की दूसरी लहर का चरमोत्कर्ष जहाँ तीन माह बाद आया था वहीं ओमिक्रोन फरवरी के मध्य तक उतार पर आने लगेगा. विश्व भर के चिकित्सा विशेषज्ञ ये भी मान रहे हैं कि 2022 खत्म होते–होते कोरोना का चक्र पूरा हो जाएगा. लेकिन दबी जुबान कहा जा रहा है कि अनुकूल परिस्थितियों के चलते इसी तरह की कुछ और बीमारियाँ मानव जाति के लिए परेशानी का कारण बनी रहेंगीं.

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जिस तरह समुद्र के किनारे रहने वाले ज्वार भाटा, चक्रवात और तूफ़ान आदि के अभ्यस्त हो जाते हैं ठीक वैसे ही अब हमें भी इसी तरह के वायरस हमलों के लिए खुद को तैयार रखना होगा क्योंकि बीती एक सदी में मानव जाति ने विकास की वासना के वशीभूत होकर जो कुछ हासिल किया उसके दुष्प्रभाव अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही किन्तु सामने आने लगे हैं.

ये देखते हुए विज्ञान से जुड़े महानुभावों का ये दायित्व है कि वे पूरी दुनिया को उस जीवनशैली को अपनाने हेतु प्रेरित करें जो प्रकृति से संघर्ष की बजाय सामंजस्य बनाते हुए सह – अस्तित्व के उस सिद्धांत पर आधारित है जिसमें चीटी से लेकर हाथी और कंकड़-पत्थर से पर्वत तक का महत्व स्वीकार किया गया था. घास का तिनका हो या वट वृक्ष, सभी को पूजित मानने का भारतीय चिंतन वैज्ञानिक अध्ययन और शोध पर ही आधारित था किन्तु सैकड़ों वर्षों की गुलामी के कारण विदेशी प्रभाव के मोहपाश में जिस भोगवादी जीवनशैली ने हमारी सोच पर आधिपत्य कायम कर लिया उसके कारण ही तरह-तरह की ऐसी समस्याएं आपदा के रूप में आ धमकने लगी हैं जिनके सामने पूरा का पूरा विज्ञान लाचार नजर आता है.

अन्तरिक्ष की अनंत ऊंचाइयों को छूने का पराक्रम करने वाला विज्ञान एक अदृश्य वायरस के हमले से हतप्रभ हो गया. आज तक वह ये खोज कर पाने में सफल न हो सका कि उसकी उत्पत्ति क्यों , कहाँ और कैसे हुई ? पहले दावा किया गया था कि टीके की दो खुराक इसके प्रकोप से बचा लेगी लेकिन वह दावा भी विश्वसनीय साबित नहीं हुआ. पूरी दुनिया उसके हमले से किस तरह हिल गई है, ये बताने की जरूरत नहीं है. ज्ञान-विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र पर इसका असर पड़ा है और ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि 21वीं सदी के पहले दो दशक में दुनिया जितनी आगे बढ़ी थी उतनी ही बीते दो साल में पीछे हो गई.

दूसरी तरफ ये उम्मीद भी है कि मानव जाति में संघर्ष की जो नैसर्गिक क्षमता है उसके बल पर वह इस झंझावात से भी बचकर बाहर आ जायेगी परन्तु उसे इससे कुछ सबक जरूर लेना चाहिए. हर आपदा अपने पीछे कुछ न कुछ ऐसा छोड़ जाती है जिसमें भविष्य के लिए संकेत होते हैं प्रकृति की अपनी कोई भाषा भले न हो लेकिन जिस सांकेतिक शैली में वह हमें आने वाले खतरों से सावधान करती है उसे समझ लेने पर उनसे बचाव संभव है.

कोरोना की तीसरी लहर , जैसा कहा जा रहा है जल्द ठंडी पड़ जायेगी परन्तु इसके बाद भी निश्चिन्त होकर बैठ जाना मूर्खता होगी. समय आ गया है जब हम अपनी जिम्मेदारी समझते हुए अपनी संतानों के लिए ऐसी दुनिया छोड़ जाने की दिशा में प्रयासरत हों जिसमें शुद्ध हवा और पानी उपलब्ध ह. देश के जिन महानगरों में विकास और आर्थिक समृद्धि की चकाचौंध नजर आती है उनमें रहने वालों की सांसों में कितना जहर घुल रहा है ये बताने की जरूरत नहीं है.

दुनिया के कुछ समझदार देशों ने विकास के साथ ही सुखमय जीवन को अपना लक्ष्य बनाया, जिसके कारण वहां रहने वालोँ की जीवन शैली पूरे विश्व के लिए आकर्षण का विषय बन गई है. भारत के पड़ोसी पहाड़ी देश भूटान को भी ऐसे ही देशों में शुमार किया जाता है. हमारे देश में बेहतर जीवन जीने के लिए जो तौर-तरीके अपनाये जाते रहे हैं उनसे अपने बच्चों का परिचय करवाते हुए उनमें उनके बीज रोपित करना मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरूरत है.

कोरोना नामक महामारी के बाद बड़ी संख्या में लोगों को इस बात का एहसास हुआ कि जीवन में समृद्धि से ज्यादा स्वस्थ शरीर और मानसिक शांति महत्वपूर्ण है. लेकिन इसके लिए हमें अपनी सोच में जरूरी बदलाव करना होंगे. भारतीय संस्कृति में ज़िन्दगी केवल सांसों का सफर नहीं अपितु ईश्वर प्रदत्त दायित्वों के निर्वहन करने का अवसर है. रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने बड़े ही सरल शब्दों में लिखा है.

बड़े भाग मानुष तन पावा,
सुर दुर्लभ सद्ग्रंथहिं गावा।

काश, हम इसका आशय समझ सकें तो मृत्युलोक में भी स्वर्ग का एहसास हो सकता है.

लेखक:- श्री रवीन्द्र वाजपेयी