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सांसदों का आचरण देखकर लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने वालों का हौसला बुलंद

पिछले सत्र में अशोभनीय आचरण के कारण निलम्बित विपक्ष के 12 राज्यसभा सदस्यों द्वारा संसद परिसर में दिए जा रहे धरने के जवाब में भाजपा सांसदों ने भी प्रदर्शन किया। इस मुद्दे पर विपक्ष निलम्बन रद्द करने का दबाव बना रहा है वहीं सभापति वेंकैया नायडू और संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद जोशी इस बात पर अड़े हैं कि निलम्बित सदस्यों को बिना शर्त क्षमा याचना करना चाहिए। अक्सर ऐसे मामलों में सुलह और समझाइश के बाद भूलो और माफ़ करो की नीति अपनाई जाती रही है। लेकिन इस बार सभापति और संसदीय कार्य मंत्री ने कड़ा रुख अपनाते हुए विपक्ष के दबाव को अनदेखा करने का मन बना लिया है।

हुआ यूँ था कि पिछले सत्र में सरकार के विरोध में गर्भगृह में आकर हंगामा कर रहे विपक्षी सदस्यों को बाहर निकालने के लिए बुलाये गए मार्शलों के साथ भी उन सदस्यों द्वारा झूमा-झटकी की गई जिनमें महिला मार्शल भी रहीं। उसके वीडियो सभी ने देखे। इस पर उनके निलम्बन की कार्रवाई की गई जिसके तहत पूरे शीतकालीन सत्र में उन्हें सदन से बाहर रहना होगा। विपक्ष इस बारे में सभापति के अधिकारों पर सवाल उठा रहा है वहीं श्री नायडू का दावा है कि उन्होंने अपने अधिकारों के अंतर्गत ही उक्त कार्रवाई की है।

बहरहाल मामला अभी तक अनसुलझा है। निलम्बित सदस्य संसद परिसर में धरना दे रहे हैं जिसे अन्य विपक्षी नेताओं का भी समर्थन है। कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंघवी ने इसे सरकार की रणनीति बताते हुए कहा कि ऐसा कर उसने उच्च सदन में बहुमत का इंतजाम करते हुए अपने प्रस्ताव पारित करने का रास्ता साफ़ कर लिया। दूसरी ओर सभापति श्री नायडू ने उस वाकये को अपने संसदीय जीवन की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना बताते हुए कहा है कि निलम्बित सदस्यों को माफी मांगे बिना राहत नहीं दी जायेगी।

ऐसे विवादों को चूंकि राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है इसलिए गुण-दोष की बजाय इकतरफा निष्कर्ष निकाल लिए जाते हैं। विपक्ष को संसदीय मर्यादा और आसंदी के सम्मान की फ्रिक नहीं है। इसी तरह सत्ता पक्ष की नजर में सभापति ने जो फैसला किया वह पूर्णत: विधि सम्मत और संसदीय गरिमा बनाये रखने के लिए आवश्यक था। लेकिन आरोप- प्रत्यारोप के बीच एक बात समझनी जरूरी है और वह ये कि संसदीय प्रजातंत्र कानून नहीं अपितु स्वस्थ परम्पराओं और समन्वय पर आधारित व्यवस्था है। इसमें सत्ता और विपक्ष दोनों की भूमिका अपनी-अपनी जगह बेहद महत्वपूर्ण होती है।

दोनों के अपने अधिकार हैं लेकिन उनके साथ जुड़े दायित्व भी कम नहीं और ये भी उतना ही सच है कि दायित्व बोध न हो तो लोकतंत्र अपना अर्थ खो बैठता है। उस दृष्टि से देखें तो भारत में संसदीय प्रणाली की गरिमा और सम्मान के प्रति राजनीतिक दलों का आचरण बहुत ही गैर जिम्मेदाराना है। संदर्भित प्रकरण के पहले भी अनेक ऐसे वाकये हुए जब संसद के भीतर उसकी पवित्रता को उन्हीं सांसदों द्वारा नष्ट किया गया जिनको जनता ने लोकतन्त्र के इस मंदिर की रक्षा का भार सौंपा था। एक दौर था जब संसद में होने वाली बहस सुनने दर्शक दीर्घाएं ठसाठस भर जाया करती थीं। लेकिन अब टेलीविजन पर सीधा प्रसारण होने के बावजूद संसद की कार्रवाई कुछ विशेष अवसरों को छोड़कर देखने में देश की जनता को कोई रूचि नहीं रहती।

राजनीति और नेताओं के प्रति सम्मान में कमी आने के पीछे एक बड़ा कारण संसद के भीतर होने वाला हंगामा और असंसदीय आचरण भी है। संसद की बैठकों पर प्रतिदिन करोड़ों रूपये खर्च होते हैं। ऐसे में ये अपेक्षा गलत नहीं होती कि इन बैठकों में देश हित से जुड़े विषयों पर सार्थक विचार-विमर्श हो और पक्ष-विपक्ष अपनी बात कहते हुए दूसरे की सुनें भी। लेकिन हमारे देश में संसदीय प्रणाली को सड़क पर होने वाले हंगामे में तब्दील कर दिया गया है। इसके लिए आज के विपक्ष को पूर्णत: दोषी ठहरा देना पक्षपात होगा क्योंकि जब भाजपा विपक्ष में थी तब उसने भी सरकार के विरोध के चलते पूरे के पूरे सत्र को हंगामे की भेंट चढ़ा दिया।

देश के कानून मंत्री रह चुके स्व. अरुण जेटली ने भी इसका बचाव करते हुए इसे संसदीय प्रणाली का अभिन्न हिस्सा बताया था। अनेक अवसर ऐसे भी आये जब सत्तारूढ़ सदस्यों ने ही मंत्री के हाथ से विधेयक की प्रति छीनकर फाड़ दी। महिला आरक्षण विधेयक पर सदन में दोनों पक्षों के अनेक सांसदों का व्यवहार बेहद गैर जिम्मेदाराना था। उनके विरुद्ध समुचित कार्रवाई नहीं किये जाने के कारण हंगामा पसंद दूसरे सदस्यों की हौसला अफजाई हुई। बेहतर तो ये होगा कि गर्भगृह में जाने वाले सदस्यों को उनके दलों के नेता ही रोककर आसंदी से क्षमा याचना करें परन्तु होता उल्टा है।

मौजूदा विवाद भी क्षण भर में सुलझ सकता था लेकिन विपक्ष के नेतागण मार्शलों के साथ हाथापाई करने वाले सदस्यों को माफी मांगने के लिए प्रेरित करने की बजाय उनका बचाव कर रहे हैं। राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू लम्बे समय तक इस सदन के सदस्य रहे हैं। उन्होंने बतौर मंत्री भी काम किया और विपक्ष में भी। संसदीय नियम और प्रक्रिया के बारे में उनके ज्ञान और अनुभव को विपक्षी सदस्य भी नकार नहीं सकते। उन्होने जिस तरह अपनी पीड़ा व्यक्त की उसे समझकर निलंबित सांसद अपने अमर्यादित आचरण के लिए खेद व्यक्त कर देते तो विवाद कभी का खत्म हो जाता। लेकिन बजाय ऐसा करने के विपक्षी नेता उनके बचाव में खड़े होकर अनुशासनहीनता को प्रोत्साहित कर रहे हैं।

सत्ता पक्ष में बैठे लोगों को भी ऐसे अवसरों पर आत्म निरीक्षण करना चाहिए जो विपक्ष में रहते हुए हंगामा करने में ही अपनी बहादुरी समझते थे। बेहतर तो ये होगा कि गर्भगृह में आने पर पूरी तरह रोक लगे। इसी तरह हंगामा करने वालों के विरुद्ध भी सख्त नियम बनाये जाने चाहिए। ये इसलिए जरूरी है क्योंकि सांसदों के अमर्यादित आचरण से प्रोत्साहित होकर देश में होने वाले आन्दोलन अराजकता और मनमानी में बदलने लगे हैं।

जेएनयू, जामिया मिलिया, शाहीन बाग और किसान आन्दोलन इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। प्रजातंत्र में अभिव्यक्ति के अधिकार का उपयोग जिम्मेदारी के साथ न किया जावे तो वह स्वछंदता और स्वेच्छाचारिता में बदल जाता है। संसद सदस्यों का आचरण देखकर हंगामा और अनुशासनहीनता राष्ट्रीय चरित्र के रूप में स्थापित होती जा रही है।

संसद केवल चुने हुए सांसदों के बैठने की जगह न होकर देश के सामने आदर्श प्रस्तुत करने का मंच भी है। यदि उसकी गरिमा से खिलवाड़ न रुका तब लोकतंत्र को भीड़तन्त्र में बदलने वालों के मंसूबे पूरे होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। संसद के भीतर किसानों के लिए आवाज उठाने वाले नेताओं को किसान आन्दोलन के मंच पर बैठने से रोककर ये संकेत दिया जा चुका है।

लेखक:- रवीन्द्र वाजपेयी