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सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के प्रवर्तक आचार्य शंकराचार्य

जगत गुरू श्री शंकराचार्य का जन्म उस समय हुआ था, जब बौद्ध धर्म पतनात्मक स्थिति की ओर जा रहा था, धर्म के नाम पर अनाचार फैल रहा था। विदेशियों ने ढलती हुई बौद्ध सत्ता का उन्नायक बनकर भारत में प्रवेश किया और बौद्धों ने बिना सोचे समझे उनका सहयोग किया।

लेकिन प्रखर राष्ट्रीयता का पोषक हिन्दू समाज इसे सहन न कर सका जिसके चलते कुमारिल भट्ट द्वारा प्रज्वलित चिंगारी शंकराचार्य के रूप में दावानल बनकर प्रगट हुई- जिसने सभी झाड़-झंखाड़ को भष्मीभूत कर दिया, जिसके चलते देश एवं धर्म की रक्षा हुई।

वैशाख शुक्ल पंचमी, आदि शंकराचार्य जयंती पर विशेष - Demokratic Front

शंकराचार्य के माता-पिता को पुत्र जयंती पर विशेष की प्राप्ति पर भगवान शंकर का वरदान मानकर उनके पिता शिवगुरू ने उनका नाम शंकर रखा। शंकर की असाधारण बुद्धि को देखते हुए शिवगुरू ने तीन वर्ष की उम्र में ही उनका अक्षराभ्यास आरंभ करा दिया।

पांच वर्ष की आयु तक शंकर ने समस्त लौकिक साहित्य पढ़ लिया। पांच वर्ष की आयु में शंकर का उपनयन संस्कार हुआ तथा बालक शंकर वेदाध्ययन के निमित्त गुरूकुल गये। अपनी बुद्धि की विलक्षणता के चलते छोटी ही उम्र में “बाल-बोध संग्रह’ नाम का एक ग्रन्थ भी रच डाला।

उन्होंने अनुभव किया कि वास्तव में हम सब एक हैं और यही सत्य है। आठ वर्ष की अवस्था तक में रहने और समस्त वेद-शास्त्रों में पारंगत होने के चलते शंकर को आचार्य की उपाधि दी गई और वह शंकराचार्य हो गये।

घर लौटने पर उन्हें ऐसा महसूस होने लगा कि घर-बार छोड़कर सच्चे हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए काम करना चाहिए, क्योंकि देश में इतने मतांतर फैले हुए थे कि लोग सच्चे वैदिक धर्म को भूल गये थे। अपनी माता को प्रणाम करके गुरू की खोज में शंकराचार्य निकल पड़े।

नर्मदा किनारे पहुंच कर अमरकांत आश्रम में उन्होंने विधिवत् सन्यास धर्म की दीक्षा गोविन्दपाद से ली और गोविन्दपाद ने शंकराचार्य को समस्त शास्त्रों का अध्ययन बड़ी योग्यता से कराया।इसके बाद गोविन्दपाद शंकराचार्य को लेकर बदरिकाश्रम चले गये जहां शंकर ने चार वर्ष विताये।

वहां रह कर शंकराचार्य ने गोविन्दपाद के गुरू गौड़पाद की आज्ञा से तथा उन्हीं के तत्वावधान में अनेक ग्रन्थों की रचना की। उन्होंने परम गुरू से आज्ञा लेकर उनकी मुंडकोपनिषद –कारिका पर भाष्य लिखने के साथ वेदान्त-प्रस्थानत्रयी पर भी भाष्य लिखा।

वेदान्तसूत्र पर तो उनका भाष्य अद्वतीय है ही। इस कार्य को समाप्त कर शंकराचार्य ने देश भ्रमणार्थ गुरू से आज्ञा प्राप्त की और हाथ में भगवा ध्वज, दण्ड और कमण्डलू लेकर धर्म यात्रा पर निकल पड़े। पर इसी बीच उनका संबंधी अग्नि शर्मा वहां पहुंच गया।

उसने बहुत सा धन निकाल कर शंकराचार्य के सामने रखा और बताया कि यह तुम्हारी मां द्वारा भेजा गया है और वह अंतिम सांसे गिन रहीं हैं। उस धन से शंकराचार्य ने बदरिकाश्रम में श्री बद्रीनाथ का मंदिर बनवाया।

तेरह हजार फिट की ऊंचाई पर हिमालय की उपत्यका में आज भी वह मंदिर खड़ा है और इसके साथ वह विशाल राष्ट्र भी खड़ा है जिसकी नींव शंकर ने इस मंदिर के माध्यम से डाली थी। शंकराचार्य ने निश्चित किया कि सम्पूर्ण भारतवर्ष में आंदोलन करने के पूर्व साथ देने वाले साथी तैयार करने होंगे।

इसके लिए उन्होंने गोविन्दपाद के शिष्यों के साथ काशी में डेरा डाल दिया। उनकी धारणा स्पष्ट थी कि राजनीतिक एकता के मूल में सांस्कृतिक एकता होनी चाहिए। काशी में अब उनकी शिष्य मण्डली इतनी बड़ी हो गई थी कि स्थान-स्थान पर अपने शिष्यों को छोड़कर वे सम्पूर्ण भारत में एक ही विचारधारा उत्पन्न कर सकते थे।

फलतः वह दिग्विजय के निमित्त निकल पड़े। हिन्दू धर्म में समन्वय की दृष्टि से वह बताते कि सम्पूर्ण देवी-देवता एक ही परम्ब्रम्ह के भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं, जो वैष्णव है वह शैव भी है और शक्ति भी है। एक की पूजा और दूसरे का विरोध-भला यह कैसे चल सकता है?

कोई छोटा और बड़ा नहीं होता। स्थान-स्थान पर उन्होंने पंचायतन् की पूजा करने को कहा, हां अपने इष्टदेव को मध्य में रखने की सबको छूट थी। इसके पश्चात शंकराचार्य दक्षिण की ओर बढ़े, क्योंकि वे सम्पूर्ण भारत को एकात्मता का अनुभव कराना चाहते थे,

सम्पूर्ण जन सामान्य को अद्वैत (हम सब एक हैं) का पाठ पढ़ाना चाहते थे। वह कांची पहुंचे जो दक्षिण की काशी कही जाती है। वह ऐसा स्थायी प्रबंध करना चाहते थे कि देश के जन-समाज में एकत्व की भावना युगों-युगों तक बनी रहे।

अतः उन्होंने समाज को स्फूर्ति देने वाले उसके जीवन-स्त्रोत स्वरूप प्रत्येक की श्रद्धा के केन्द्र मठ की स्थापना का विचार किया। सुरेश्वाचार्य को उन्होंने श्रृंगेरी का सबसे पहला मठाधीश नियुक्त किया और उत्तर में जोशी मठ का आचार्य दक्षिण का ब्राम्हण नियुक्त किया।

जीवन के एक-एक क्षेत्र में उन्होंने भारत की एकता को बनाये रखने के लिए कितनी सावधानी से प्रयास किया था, तभी तो चैतन्यमय भारत का आज भी अभिव्यक्त और अविछिन स्वरूप हमारा आराध्य बना हुआ है। इतना ही नहीं आगे चलकर वह जगन्नाथपुरी में मठ की स्थापना की और वहां से चल कर काशी होते हुए

एकत्व का संदेश सुनाते हुए द्वारिकापुरी जाकर मठ की स्थापना की। इतना ही नहीं वह कश्मीर, प्रागज्योतिषपुर पहुंच कर वाममार्गियों से देश को सावधान किया और वैदिक धर्म की पताका फहराई। आचार्य शंकर ने जिस तरह से भारतवर्ष का उद्धार किया,

आदि शंकराचार्य जयंती: धर्म, संस्कृति और देश की सुरक्षा के लिए 'दसनामी संप्रदाय' और चार मठों की स्थापना की थी - गोंडवाना एक्सप्रेस

उनके इस एकत्व के सिद्धांत को अपने जीवन में लाकर पुनरपि भारतवर्ष को उन्नत और वैभवशाली बनायें। यहीं हैं उनका पुण्य- स्मरण एवं उनकी सच्ची पूजा।” वस्तुतः आचार्य शंकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और एकात्मता की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। यह देश सदैव उनका ऋणी रहेगा।

  श्री वीरेन्द्र सिंह परिहार ज़ी
(लेखक वरिष्ठ स्तंमकार है)