देशवासियों में प्रबल राष्ट्रभाव का जागरण कर वह सब कुछ हासिल किया जा सकता है, जिसका सपना हमारे स्वतंत्रता संग्राम में शहीद हो गये सेनानियों ने देखा था। देश को आजादी तो मिली, सत्ता का हस्तांतरण भी हुआ, लेकिन देश की आजादी के महान संघर्ष, बलिदानी परम्परा के बावजूद ऐसा कोई समूह विकसित नहीं हो सका, जो राष्ट्रीयता के प्रति समर्पित हो और उलट विदेशी विचार-धाराओं से प्रेरित एक राष्ट्र विरोधी शत्रु समूह है, जो देश को तोड़ने और बिखराव पैदा करने की राह पर चल रहा है। हमारी मूल समस्या राष्ट्रवादी सोच का अभाव है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम देश के विरोधियों और उनकी छिपी सत्तालोलुप्ता को समझें। राष्ट्रवादी राजनीति का भी संकट यही है कि उसने भी सत्ता को एक साधन मान रखा है। हमें ऐसे विश्वासी, श्रद्धाभाव रखने वाले लोगों की जरूरत है जो चन्द्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी जैसे महान बलिदानियों जैसा आदर्श अपने समक्ष रखते हों।
संकट यहीं है कि ऐसी प्रतिबद्धता, भविष्य दृष्टि कर्मठता, विवेकपूर्ण भारतीयता की पूर्ति कैसे हो? हम अमृत की आकाँक्षा तो रखते हैं, लेकिन समुद्र-मंथन के प्रयासों से दूर रहना चाहते हैं? क्यों? समुद्र मंथन से ही राष्ट्रवाद का अमृत कलश प्राप्त होगा-तबतक विश्राम का कोई प्रश्न ही नहीं उठता?
सन् 1947 में भारत का एक अभिन्न अंग पाकिस्तान के रूप में अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की गढ़ी गयी भावना के कारण विखंडित हुआ। उसके बाद बांग्ला देश और जरा पीछे जायें तो महाभारत के गांधार नरेश और गांधारी का देश गांधार- अफगानिस्तान तीन सौ साल पहले भारत से अलग हुआ। म्याँमार- लंका ये भी तो कभी भारत के ही अंग थे। इस तथ्य पर ध्यान तो केन्द्रित ही करना पड़ेगा कि अब और विभाजन की स्थिति निर्मित न हो अन्यथा यहाँ निवास करने वाले हिन्दू कहाँ जायेंगे?
आज भारत में मुसलमान और ईसाई सभी तरह के हथकण्डे अपनाते हुये हिन्दुओं का मतान्तरण कर रहे हैं। तथाकथित सेकुलरों ने हिन्दू को सम्प्रदाय बना दिया है, जबकि हिन्दुत्व धर्म नहीं जीवन-पद्धति है। इस्लाम का प्रचार करने वाले भारत सहित पूरी दुनिया को इस्लाम के अंतर्गत लाना चाहते हैं। यही उनका अंिन्तम मजहबी मकसद है। अतीत से अब तक के इतिहास पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि कुरान और हदीस, सुन्ना आदि को अपना अस्तित्व और महत्व बनाये रखने के लिये भीषण रक्तपात की आवश्यकता क्यों पड़ती है? इसके प्रचार-प्रसार के लिये इस्लामवादियों को जबरिया छल प्रपंच और हिंसक वारदातें करते रहना पड़ती हैं। ये वारदातें इस्लाम की कमजोरी को स्वयं उजागर करती हैं। आम तौर पर जो सामान्यतया अनुभव में आता है कि मुसलमान इस्लाम एवं कौम से मुहब्बत तो करता है, मुल्क से नहीं।
कश्मीर के विगत हालातों का परिणाम देखने समझने से इस समस्या की गम्भीरता को आसानी से समझा जा सकता है। आज राजस्थान, केरल, तामिलनाडु, कश्मीर आदि देश के विभिन्न भागों में हिन्दुओं की हत्यायें क्यों हो रहीं हैं? हिन्दुत्व के प्रति नफरत फैलाने वाला दुराग्रह ब्रिटेन और अमेरिका तक भी जा पहुंचा है। हमले और हिंसक घटनायें चिन्ता का कारण तो बनेंगी ही।
इस्लामी आतंकी संगठन और उनके जिहादी प्रचारकों द्वारा लव-जिहाद, हिन्दू त्यौहारों के खिलाफ जिहाद और इसी तरह के विभिन्न प्रकार के जिहादों को क्रियान्वित कराने के लिये भारी- भरकम रकम के रूप में फंड उपलब्ध कराना भी शामिल है, जिसका दुरूपयोग करके स्थान स्थान अशान्ति फैलायी जाती है और हिंसक वारदातों को अंजाम तक पहुंचाया जाता है।
इसी तर्ज पर भारत का विखण्डन कराने की दुर्नीति के अंतर्गत दिलचस्पी रखने वाली कतिपय अन्य विदेशी एजेंसियाँ औरे ईसाई मिशनरियों द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य से संबंधित अन्यान्य क्षेत्रों में अपनी गहरी पैठ बनाने के लिये मदद, सुविधाओं के नाम पर तथा धन का प्रलोभन देते हुये मतांतरण का दुष्कृत्य भी संचालित किया जा रहा है।
इन सब प्रकार के छल- प्रपंच, दृष्कृत्यों के संचालन के परिणाम स्वरूप आबादी का असन्तुलन बढ़ा है, वहाँ-वहाँ हिन्दुओं को असहज और कठिन, त्रासदायक परिस्थितियों का सामना करने बाध्य होना पड़ रहा है। उन क्षेत्रों में हिन्दुओं का जीवन सुरक्षित नहीं रह सका है। पं. बंगाल के 49 जिलों मे ऐसी ही स्थ्तियाँ निर्मित हुयी हैं, तामिलनाडु, कर्नाटक, केरल, दिल्ली और मुम्बई जैसे शहरों में ऐसे ही बहुत से इलाके हैं, जहां से हिन्दुओं को पलायन करने मजबूर किया जा रहा है।
बांग्लादेश और म्याँमार से आने वाले रोहिंग्या मुसलमानों और अवैध घुसपैठियों के कारण देश के भागों में भारतीयों के अल्पसंख्यक हो जाने की सम्भावनाओं को नकारा नहीं जा सकता।
धर्म व्यक्ति को संतोष देे, सुख दें, शान्ति देे, स्थायी समाधान दें, समानता दें-तभी वह ग्रहणीय होता है, अपनी ओर आकर्षित करता है। लेकिन ईसाईयों और मुसलमानों के बीच यह द्वन्द की स्थिति न केवल भारत में ही नहीं वरन् दुनिया भर में प्रत्यक्ष नजर आने लगी है। हिन्दुत्व के प्रति बढ़ता निम्नस्तरीय दुराग्रह निरन्तर चिन्ता का विषय बनता चला जा रहा है।
कट्टरवाद, चरम पंथ, पाखण्ड और मजहबी उन्माद हमेशा मानवता-इन्सानियत के लिये खतरनाक होते हैं। गत दश-बारह दशकों के दौरान विश्वभर में इस्लाम के मानने वाले एक तबके की गतिविधियाँ पूरी दुनिया के लिये चिन्ता का विषय बन चुकी है। समय पर चेत जाने की जरूरत है ताकि मानवता को एवं व्यवस्थाओं का सुचारू बनाये रखा जा सके।
प्रख्यात समाज शास्त्री डॉ. पीटर हेमंड ने अपनी पुस्तक‘स्लेबरी, टेरिज्म एंड इस्लाम द हिस्टोरिकल रूट्स एंड कन्टेम्प्रेरी थ्रेट’ में गहराई से किये गये शोध के आधार पर लिखा है तथा उन स्थितियों का खुलासा किया है कि जिनके कारण कट्टरवाद, पाखंड, चरमपंथ और मजहबी उन्माद के लिये धरातल तैयार किया जाता है। ये तथ्य डराने वाले हैं, चिन्तित करने वाले हैं। इसी प्रकार के विचार एक अन्य प्रख्यात लेखक लियोन यूरिस ने अपनी पुस्तक ‘‘द हज’’ में स्पष्ट तौर पर लिखे हैं। जो तथ्य सामने लाये गये हैं, वे सब हमारी सभ्यता और वर्तमान व्यवस्था का अस्त-व्यस्त बना देने की साजिश की ओर इशारा करते हैं।
इन दोनों विद्वान लेखकों ने अपनी शोध-अध्ययन का विश्लेषण करते हुये पाया कि जिस किसी क्षेत्र में मुसलमानों की जनसंख्या दो प्रतिशत या इससे कम होती है, तब यह इस्लामी समुदाय शांतिप्रिय और कानून का पालन करते हुये अमन और भाईचारे के संबंधों के साथ गुजर-बसर करता है, जब यही जनसंख्या पाँच प्रतिशत से आगे बढ़ जाती है, तब यह समुदाय अन्य धर्मावलम्बियों के साथ उग्र व्यवहार करने लग जाता है। इतना ही नहीं साम, दाय, दंड, भेद की नीति का उपयोग करते हुये इस्लाम धर्म का प्रचार-प्रसार तेजी से करना आरम्भ कर देता है। इसी प्रकार के लक्षण डेन्मार्क, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन, थाईलैण्ड जैसे शान्तिप्रिय देशों में मुस्लिम सम्प्रदाय द्वारा जिस प्रकार की गतिविधियाँ चलायी गयी, उनका यही निष्कर्ष रहा है।
जब यही जनसंख्या पांच प्रतिशत से दस प्रतिशत को भी पार कर जाती है, तब अन्यान्य धर्मावलम्बियों के मार्ग में कठिनाईयों खड़ी करना प्रारम्भ कर दिया जाता है। इसके अलावा मांसाहार के रूप में ‘‘हलाल’’ के मांस की बिक्री के लिये विशेष व्यवस्था की माँग की जाने लगती हैं, अपना दबदबा कायम करने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं।
यही आबादी बढ़कर दस प्रतिशत से अधिक हो जाने पर कानून-व्यवस्था में सरकार की परेशानियाँ बढायी जाती है। अपराधियों का गिरोह तैयार होता है, अपराधी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया जाता है, अपराधियों को पकड़े जाने पर गरीबी-बेरोजगारी का हवाला देकर हो-हल्ला मचाया जाता है, फिर छोटी-छोटी सी बातों पर तोड़-फोड़, आगजनी आदि घटनाओं को अंजाम दिया जाता है।
डॉ. पीटर हेमंड ने अपने अनुभवों को साझा करते हुये अपनी पुस्तक में यह भी लिखा है कि किसी देश में जब संख्या 40 प्रतिशत को छूने लगती है या इससे आगे बढ़ जाती है, तब इन मजहबियों का मनोबल बहुत ऊँचा हो जाता है और ऐसी हरकतें शुरू कर देते हैं ताकि अन्य लोग वह स्थान छोड़कर चले जायें, उन्हें भाग जाने को विवश कर दिया जाता है।
इसके बाद 50 प्रतिशत आबादी हो जाने पर उस देश में राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने की होड़ लग जाती है और अन्य शासन प्रणालियों को प्रभवित करने या बदल देने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं।
इस कड़ये सत्य को भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के नागरिकों को जितनी जल्दी समझ में आ जाय, वहीं बेहतर होगा।
इस विस्तृत विवरण के माध्यम से इस तथ्य को गंभीरता से समझा जा सकता है कि भारत वासियों के लिये राष्ट्रीय सोच-राष्ट्रीय जागरण की आज के समय में क्यों आवश्यकता महसूस की जा रही है। राष्ट्रवाद राष्ट्र की रक्षा, अखण्डता और सशक्तिकरण को संरक्षित कर सुदृढ़ बनाना है। किसी भी महान राष्ट्र का निर्माण रातों रात नहीं होता। इसके लिये लम्बी योजनाबद्ध तैयारियों करनी होती है। यह क्रम पीढ़ियों के योगदान, श्रेष्ठ योग्य एवं समर्पित आदर्श मानवों, शिक्षकों को एवं छात्रों के अथक परिश्रम और लगन शीलता और कड़ी मेहनत की प्रक्रिया से गुजरता है।
यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों से ताकत के बल पर हमेशा के लिये छुटकारा पाना या उन पर शासन करना हर समय संभव नहीं है। भारत को अपने अल्पसंख्यकों को देशभक्ति के माध्यम से मुख्यधारा में जोड़ना चाहिये ताकि हमारे राष्ट्र की मुख्यधारा एवं पुनर्निर्माण में सच्चे भागीदार बनें।
आर्थिक स्तर पर भारत ने पिछले कुछ वर्षों में विकास की गति को विस्तार देने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ायें हैं। कोरोनाकाल में राष्ट्र की गति को धीमा किया। पर पिछले पांच-छै वर्ष में अपना सफल सफर तय किया है, जो विश्वभर में सराहनीय माना गया है।