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हिजाब : ईरान में विरोध , हिन्दुस्तान में समर्थन

इसे संयोग ही कहेंगे कि एक तरफ जहाँ भारत जैसे धर्म निरपेक्ष कहे जाने वाले देश में मुस्लिम महिलाओं द्वारा उपयोग किये जाने वाले हिजाब को इस्लामिक अनिवार्यता के तौर पर मान्यता दिए जाने के मुद्दे  पर सर्वोच्च न्यायालय में बहस चल रही है वहीं दूसरी तरफ कट्टर इस्लामी देश ईरान की महिलायें सड़कों पर उतरकर न सिर्फ हिजाब जला रही हैं वरन अपने बाल कैंची  से काटते हुए उसके चित्र सोशल मीडिया पर प्रसारित करने का दुस्साहस भी कर रही हैं ।

उल्लेखनीय है ईरान में हिज़ाब का उल्लंघन करने वाली महिला को कैद के साथ ही  जुर्माना और कोड़े मारने तक का प्रावधान है । पुलिस वाले ऐसी किसी भी महिला को गिरफ्तार कर लेते हैं जिसने हिजाब सही तरीके से नहीं पहना हो । हिजाब विरोधी आन्दोलन की शुरुआत 22 वर्षीय माहसा अमीनी नामक युवती की मौत के बाद हुई जिसे गलत तरीके से हिजाब का उपयोग करने के आरोप में गिरफ्तार कर बुरी तरह पीटा गया । हालत बिगड़ने पर उसे अस्पताल में दाखिल किया गया जहाँ वह चल बसी । इस घटना से नाराज होकर देश भर में महिलाओं ने सड़कों पर उतरकर हिजाब जलाकर और अपने बाल काटकर इस्लाम के नाम पर फैलाये जा रहे पुलिसिया आतंक के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया ।

हालाँकि ईरान की सरकार आन्दोलन को कुचलने में जुटी हुई है और अब तक पांच लोग मारे भी जा चुके हैं । लेकिन इसकी  वजह से इस्लामी देशों में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों का मामला एक बार फिर वैश्विक परिदृश्य पर छा गया है । रोचक बात ये है कि भारत में कर्नाटक के एक शिक्षण  संस्थान द्वारा कुछ मुस्लिम छात्राओं द्वारा हिजाब के उपयोग पर रोक लगाये जाने से सांप्रदायिक तनाव पैदा हो गया था । संस्थान ने गणवेश का हवाला दिया तो उन मुस्लिम छात्राओं ने धार्मिक अनिवार्यता बताते हुए उसके उपयोग की जिद पकड़ ली । अनुमति न मिलने पर अनेक छत्राओं ने पढाई हेतु आना बंद कर दिया । यहाँ तक कि परीक्षा तक छोड़ दी । मौलिक अधिकारों के साथ बात धार्मिक स्वतंत्रता तक जा पहुँची ।

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने जब हिजाब पर लगी रोक हटाने से इंकार कर दिया तब मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुँच गया जहाँ इस पर बहस चल रही है । मुस्लिम पक्ष हिजाब पररोक को धार्मिक स्वतंत्रता का हनन  बता रहा है वहीं राज्य  सरकार शिक्षण संस्थान में गणवेश की अनिवार्यता पर बल दे रही है । मामले में रोचक मोड़ तब आया जब उसके अधिवक्ता ने ईरान में महिलाओं द्वारा किये जा रहे आन्दोलन का हवाला देते हुए तर्क दिया कि जब इस्लामी देश में हिजाब को लेकर महिलाएं खुलकर सामने आ चुकी हैं तब भारत में इसे लेकर की जा रही जिद बेमानी है ।

मामला देश की सबसे बड़ी अदालत के सामने विचाराधीन होने से उसके वैधानिक पहलुओं पर टिप्पणी करना तो उचित न होगा लेकिन बड़ा सवाल ये है कि भारत में इस्लाम के जो प्रवक्ता हैं वे ईरान की घटना पर चुप क्यों हैं ? ऐसे में सोचने वाली बात ये है कि जब एक कट्टर मुस्लिम देश में महिलाएं खुलकर हिजाब के विरोध में खडी हो गईं हैं तब भारत में उसकी अनिवार्यता पर अड़ियलपन दिखाना अटपटा लगता  है ।

आश्चर्य तो तब होता है जब विदेश से उच्च शिक्षा हासिल करने वाले असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोग भी इस्लामिक कट्टरता की वकालत करते हैं । इस बारे में ताजा प्रकरण जम्मू कश्मीर का है । एक सरकारी विद्यालय में छात्रों से गांधी जी के प्रिय भजन रघुपति राघव राजा राम गवाए जाने पर पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने ऐतराज जताते हुए इसे राज्य के अल्पसंख्यक स्वरूप को बदलने का भाजपाई प्रयास बताया वहीं दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ये कहते हुए सामने आये कि वे भी भजन गाते हैं और इसमें कुछ भी बुराई नहीं है क्योंकि अजमेर शरीफ जाने से कोई हिन्दू , मुसलमान नहीं हो जाता । हालाँकि फारुख बहुत बड़े नाटकबाज है और गिरगिट की तरह रंग बदलने  में माहिर हैं । महबूबा को दिया उनका जवाब  विधानसभा के आगामी चुनाव में जम्मू के हिन्दू बहुल इलाकों में अपने लिए समर्थन जुटाने का दांव भी हो सकता है । लेकिन जिस तरह इस्लामिक रवायतों को लेकर कट्टरता का प्रदर्शन मुस्लिम संगठन और धर्मगुरु करते हैं उससे इस समुदाय का फायदा कम नुकसान ज्यादा हो रहा है ।

मुस्लिम महिलाओं के सामने भी ये अवसर है मजहब के नाम पर बनाई गईं बेड़ियों से निकलने का । ईरान में जो हो रहा है  उसका अंजाम अभी कोई नहीं बता सकता क्योंकि वहां की सरकार आन्दोलन को कुचलने का हरसंभव प्रयास करेगी । लेकिन ये बात साबित हो गई कि 1979 तक आधुनिकता के दौर में जी रहे ईरान को अयातुल्ला खोमैनी ने जिस तरह इस्लामिक कट्टरता में जकड़ा उसके प्रति ईरानी जनमानस में दबी हुई नाराजगी हिजाब विरोधी इस मुहिम के रूप में सामने आई है ।

ये भी स्मरणीय है कि इस्लामिक तौर-तरीकों से चलने वाले संयुक्त अरब अमीरात में शामिल देशों के अलवा दुनिया भर के मुस्लिमों के सबसे बड़े आस्था केंद्र सऊदी अरब में भी महिलाओं को आज़ादी देने की शुरुआत हो चुकी है । शाह के दौर का ईरान आधुनिकता के मामले में किसी पश्चिमी देश से कम न था । ईराक में भी सद्दाम हुसैन के दौर में महिलाओं को पर्याप्त आजादी हासिल थी । लेकिन पता नहीं क्यों हमारे देश के मुस्लिम धर्मगुरु बजाय आगे ले जाने के अपने समाज को पीछे ले जाने में जुटे रहते हैं ।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनेक मर्तबा कहा है कि मुस्लिम युवाओं को कुरान और कम्प्यूटर दोनों से नाता जोड़ना चाहिए । ईरान में जो हो रहा है वह भारत में भी हो ये जरूरी नहीं। लेकिन एक ऐसे देश की महिलाओं की आवाज को सुनना और समझना तो बनता है जो इस्लाम के नाम पर सत्ता चला रहा है । क्या भारत के मुस्लिम धर्मगुरुओं और ओवैसी जैसे नेताओं में इतना साहस है कि वे ईरान की महिलाओं के विरोध में मुंह खोल सकें ?

लेख़क – रवीन्द्र वाजपेयी