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हिजाब का मुद्दा धर्म नहीं संस्थान के अनुशासन से जुड़ा हुआ है

बड़ी ही रोचक स्थिति है. कट्टर इस्लामिक शासन वाले ईरान में महिलाएं हिजाब के विरोध में आन्दोलन कर रही हैं. पुलिस की बर्बरता और सरकार की निर्ममता भी उन्हें रोक नहीं पा रही, जानकार तो यहाँ तक कह रहे हैं कि उनके अभियान की परिणिति ईरान में सत्ता परिवर्तन के तौर पर भी हो सकती है. यदि ऐसा हो सका तो उसकी हवा से अन्य इस्लामिक देश भी प्रभावित हो सकते हैं. लेकिन भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में हिजाब के पक्ष में इस्लामिक संगठन राजनीतिक और कानूनी दोनों मोर्चों पर लड़ाई लड़ रहे हैं. कर्नाटक के एक निजी शिक्षण संस्थान में अचानक जब कुछ मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहनकर आने लगीं तब प्रबंधन ने उसे गणवेश का उल्लंघन मानते हुए प्रतिबंधित कर दिया.उस पर राजनीतिक और साम्प्रदायिक बवाल मचा सरकार ने हिजाब पर रोक लगाई तो विवाद उच्च न्यायालय में गया जिसने हिजाब को इस्लाम में अनिवार्य बताये जाने के दावे को गलत ठहराते हुए प्रतिबन्ध को जायज बता दिया. उसके बाद प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय में आया. लेकिन गत दिवस उसकी खंडपीठ के दोनों न्यायाधीशों ने परस्पर विपरीत फैसले सुनाकर मामले को और उलझा दिया. अब प्रधान न्यायाधीश द्वारा गठित की जाने वाली बड़ी पीठ में चूंकि तीन या पांच न्यायाधीश होंगे इसलिए बहुमत के आधार पर अंतिम फैसले तक पहुंचा जा सकता है. बहरहाल तब तक कर्नाटक में हिजाब पर रोक जारी रहेगी और ये विवाद राजनीतिक लोगों के लिए वोटों की फसल काटने का औजार बना रहेगा कर्नाटक में अगले साल विधानसभा चुनाव भी होने वाले हैं. हालाँकि हिजाब के मुद्दे से पूरे देश का मुस्लिम समुदाय जुड़ गया है जिसे ये लगता है कि धीरे-धीरे उसकी परम्पराओं और रीति-रिवाजों को खत्म किया जा रहा है. हालाँकि उसी के बीच से ये आवाजें भी सुनाई दीं हैं कि हिजाब सहित अनेक रस्मो-रिवाज का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है. लेकिन बहुसंख्यक मुस्लिम ऐसे मुद्दों पर मुल्ला-मौलवियों की बातों का आँख मूंदकर अनुसरण करते हैं. अन्य धर्मों में भी धार्मिक कट्टरता का पालन करने वाले कम नहीं हैं लेकिन मुस्लिम धार्मिक मसलों पर किसी भी प्रकार के सुधार या संशोधन को सहज रूप से स्वीकार नहीं करते. हिजाब का मामला भी ऐसा ही है. ये बात भी सही है कि कर्नाटक के एक संस्थान की छात्राओं द्वारा अचानक हिजाब का इस्तेमाल किये जाने के पीछे पीएफआई नामक इस्लामिक संगठन की भूमिका थी जिसे केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में प्रतिबंधित कर दिया गया. अन्यथा देश के हजारों संस्थान ऐसे हैं जहां पढ़ रही मुस्लिम लड़कियां हिजाब का उपयोग नहीं करतीं. नौकरपेशा मुस्लिम महिलाएं भी अपवादस्वरूप ही हिजाब में नजर आती होंगी. ऐसे में उसके उपयोग को इस्लामिक अनिवार्यता कहना भ्रामक है. सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों के एकमत न होने के बाद अब इस मामले पर बौद्धिक बहस भी चलेगी. न्यायाधीश सुधांशु धूलिया ने उच्च न्यायालय के फैसले को गलत बताते हुए चिंता जताई कि उसके कारण अनेक मुस्लिम छात्रों ने पढाई छोड़ दी. वहीं दूसरे न्यायाधीश हेमंत गुप्ता के अनुसार एक समुदाय को धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल की अनुमति देना धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध होगा. बहरहाल इस मामले में मुस्लिम महिलाओं का अभिमत चूंकि खुलकर सामने नहीं आ पा रहा इसलिए ये कह पाना कठिन है कि वे हिजाब को इस्लामिक परम्परा मानने की पक्षधर हैं या नहीं ? सबसे बड़ी बात ये है कि भारत के प्रगतिशील मुस्लिम तबके ने भी अब तक ईरान की महिलाओं के समर्थन में एक बयान तक जारी नहीं किया. और यही भारत के मुस्लिम समुदाय के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है. राजनीतिक और धार्मिक दोनों मोर्चों पर उनकी रहनुमाई करने वाले खुद तो आधुनिक परिवेश में रहते हैं. उनके बच्चे भी देश-विदेश के अच्छे शिक्षण संस्थानों में शिक्षा हासिल करने के बाद अपना भविष्य सुरक्षित करने में सफल हो जाते हैं. लेकिन मध्यम और निम्नवर्गीय तबका मुल्लामौलवी के फेर में फंसा हुआ हैन. दुर्भाग्य से मुस्लिम राजनेता भी अपने समाज को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से आगे बढ़ाने के बजाय उन्हें मजहब की बेड़ियों में जकड़कर रखने में लगे हुए हैं. हिजाब को लेकर मुस्लिम लड़कियां क्या सोचती हैं ये जानने का प्रयास किसी भी महिला संगठन ने नहीं किय, ऐसे में धार्मिक नेताओं या अदालत का कोई भी फैसला उनके साथ न्याय होगा ये कहना कठिन है. जो लोग हिजाब की वकालत कर रहे हैं वे उसका इस्तेमाल नहीं करने वाली मुस्लिम लड़कियों के बारे में क्या सोचते हैं ये भी स्पष्ट किया जाना चाहिए क्योंकि किसी भी मुस्लिम धर्मगुरु ने इस पर कुछ भी नहीं कहा. लेकिन संदर्भित मामला धार्मिक के साथ ही किसी संस्थान के अनुशासन का भी है. मसलन किसी विद्यालय में यदि किसी परिधान या अन्य वस्तु के उपयोग पर रोक है तब वहां के विद्यार्थी को उसका पालन जरूरी होना चाहिए, वरना अनुशासन की धज्जियां उड़ जायेंगीं. ये उसी तरह है कि गुरुद्वारे अथवा दरगाह पर जाने वाले को सिर पर टोपी और पगड़ी न हो तो रुमाल ही रखना पड़ता है. जिसे ऐसा करने पर ऐतराज हो वह वहां न जाए. लेकिन उस परिसर का जो अनुशासन है उसका पालन उसे करना ही पड़ता है. इसी तरह अनेक मंदिरों में परिधान संबंधी निर्देशों का पालन अनिवार्य है. इस प्रकार कर्नाटक से शुरू हुए विवाद की जड़ में शिक्षण संस्थान का अनुशासन ही था जिसे तूल देकर स्थानीय मुस्लिमों ने व्यर्थ का विवाद पैदा कर दिया. उन्हें ये देखना और सोचना चाहिए था कि जिन छात्राओं ने हिजाब पहनने की जिद पकड़ी वे अब तक उससे परहेज क्यों करती रहीं? उल्लेखनीय है इस बवाल के रचनाकर पीएफ़आई पर प्रतिबंध लगाये जाने का ज्यादातर मुस्लिम धर्मगुरुओं और संस्थाओं ने स्वागत किया था. अब चूंकि प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय की बड़ी पीठ के समक्ष विचारार्थ भेजा जाना है इसलिए जल्द फैसले की उम्मीद करना बेकार है लेकिन इस समय का उपयोग यदि मुस्लिम समाज के भीतर महिलाओं के मनोभाव जानने के लिए किया जावे तो बड़े सामाजिक सुधार की नींव रखी जा सकती है. ईरान में जो कुछ हो रहा है उसके बारे में मुस्लिम बुद्धिजीवियों, धर्मगुरुओं और राजनेताओं की चुप्पी उनके अपराधबोध का ही प्रमाण है. उनके मन में ये डर भी बैठ गया है कि भारत में भी मुस्लिम महिलायें ईरानी बहनों से प्रेरित होने लगीं तो उनका रुतबा खत्म होते देर नहीं लगेगी.

    लेख़क
रवीन्द्र वाजपेयी
9425154295