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हिन्दी को उसका गौरव प्राप्त होकर रहेगा

डॉ. किशन कछवाहा

निज भाषा उन्नति अहे रख उन्नति की मूल
बिनु निजभाषा-ज्ञान के,मिटत न हिय की शूल

भारतेन्दु हरिश्चन्द ने अपनी कविता की इन पंक्तियों में मातृभाषा के प्रति अपनी भावना व्यक्त करते हुये संदेश दिया है कि अपनी भाषा, अपनी संस्कृति- इतिहास पर भारतीयों को गर्व का अनुभव होता है। यही तथ्य सच्चाई को प्रगट करता है कि विदेशी भाषा संस्कृति और आयातित इतिहास पर आत्मगौरव का अनुभव नहीं हो सकता।

हिन्दी भारत-संघ की राजभाषा तो है ही, साथ ही ग्यारह राज्यों और तीन संघ शासित क्षेत्रों की राजभाषा होने का उसे गौरव प्राप्त है। केन्द्र सरकार के अधीनस्त सभी शासकीय कार्यालयों में अधिक से अधिक हिन्दी भाषा के प्रयोग की ओर विशेष ध्यान दिया भी जा रहा है। हिन्दी के समुचित विकास की दृष्टि से राजभाषा विभाग का गठन भी इसी दृष्टि से किया गया है, न्यायिक क्षेत्रों में भी इस ओर ध्यान दिया जाने लगा है।

प्रसन्नता का विषय यह भी है कि विश्व भर में हिन्दी भाषा के प्रति अनुराग बढ़ा है। आज विश्व में हिन्दी भाषा जानने और उसका उपयोग करने वालों की संख्या एक अरब के आसपास पहुंच चुकी है। विश्व के 170 से अधिक देशों में इसका विस्तार हुआ है। विश्व के दो सौ से अधिक विश्वविद्यालयों एवं संस्थानों में हिन्दी का विधिवत अध्ययन-अध्यापन का कार्य उत्साहपूर्वक हो रहा है।

यह तथ्य अत्यन्त आश्चर्यजनक है कि विश्वभर में तेजी से लोकप्रियता अर्जित करने वाली हिन्दी भाषा को अपने ही देश वह सम्मान प्राप्त नहीं है, जिसकी वह हकदार है। उसे राजरानी के रूप में सम्मानजनक स्थान क्यों नहीं मिलना चाहिये? भारत की आजादी के आन्दोलन के कालखण्ड में स्वामी दयानन्द जी सरस्वती महाराज ने सर्वप्रथम यह अनुभव किया था कि राष्ट्रीयता की भावनात्मक एकता और राष्ट्रीय उत्थान के लिये सम्पूर्ण देश में एक सशक्त भाषा होना चाहिये। इसके लिये उन्होंने सभी देशी भाषाओं में हिन्दी को सबसे अधिक उपयुक्त माना था। यद्यपि वे स्वयं जन्म से गुजरात से संबंधित थे। किन्तु उन्होंने अपनी मातृभाषा को नहीं वरन् हिन्दी को सारे राष्ट्र की एकता के सूत्र में पिरोने की सार्म्थ्यता को पहिचाना था। यह तथ्य सर्वमाननीय है कि हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि राष्ट्रीय एकता के लिये सर्वश्रेष्ठ है। यहाँ तक कि उनके युगान्तकारी ग्रंथ ‘‘सत्यार्थ- प्रकाश’’ की रचना हिन्दी भाषा में ही की थी। लाखों-लोगों ने उस समय के लोकप्रिय ग्रंथ सत्यार्थ- प्रकाश को पढ़ने के लिये हिन्दी भाषा सीखी और पठन-पाठन का एक आन्दोलन चलाया।

आजादी के संघर्ष में तब की पीढ़ियाँ उस देश भक्ति का प्रतीक मानकर देश की शान बढ़ाने वाले झंडागीत ‘‘झंडा ऊँचा रहे हमारा’’ घर-घर बच्चे बूढ़ों की जवान से शंखनाद कर रहा था। इस झंडे को लेकर लोगों में अति उत्साह था तथा सभी प्रकार की आशंकाओं और भय को दरकिनार रखकर अंग्रेजों के बेइन्तहाँ जुल्म सहे, यातनाये सही, जेल गये और अंग्रेजों की गोलियों का सामना किया। वह पीढ़ी हिन्दी को अपने सिर पर रखने में गौरवांवित महसूस करती थी। आज तो अंग्रेजी को महत्व दिया जा रहा है। प्रत्यंक घर से बच्चों को इंग्लिश स्कूलों में भेजा जा रहा है। इस मानसिकता को क्या कहा जाय? क्या रोजगार, नौकरी, सत्ता प्रतिष्ठा के आगे आत्म सम्मान कुछ नहीं है? यह झूठी होड़ की प्रक्रिया क्यों अपनायी जा रही है?

हम भले ही हिन्दी दिवस का आयोजन कर आत्म संतुष्टि पा लें लेकिन इस गुलामी की मानसिक को समझने की जरूरत है। इस अवसर पर सूर, तुलसी, भूषण, केशव बिहारी, पंत-निराला, महादेवी, सुभद्राजी का स्मरण करते हुए गुणगान कर लें, विराट साहित्य के धनी होने का गौरव महसूस कर लें, पर न तो हम इन महानुभावों की आत्मा को सुख दे पा रहे हैं न ही हिन्दी को सम्मान दे पा रहे हैं। प्रश्न यही है कि हम किस व्यामोह में जीवन जी रहे हैं? क्या राष्ट्र जागरण मातृभाषा के प्रचार के बिना सम्भव है?

माँ, मातृभाषा एवं मातृभूमि का विकल्प नहीं है। पूरे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ लगभग 401 भाषायें बोली जाती हैं। इनमें से 14 विलुप्त प्राय हैं। भारत की आजादी के लिये चले लम्बे संघर्ष के दौरान देश को एक सूत्र में पिरोकर रखने वाली हिन्दी आज भी स्वावलम्बन और स्वाभिमान को जगाने के लिये प्रथम पंक्ति में खड़ी है। वह निश्चय ही अपने सशक्त कंधों से ही अपने सम्मान की यात्रा पूरी करेगी। प्रख्यात विद्वान एवं भाषा शास्त्री प्रो. महावीर शरण जैन का मानना है कि ‘‘हिन्दी साहित्य के इतिहास की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है। एक ओर हिन्दी इतर राज्यों के विश्वविद्यालयों और विदेशों के 176 विश्वविद्यालयों एवं संस्थाओं में छात्र-शोधार्थी अध्ययन, अध्यापन एवं शोध कार्यों के लिये समर्पित हें, वहीं दूसरी ओर हिन्दी भाषा क्षेत्र में ही अनेक लोग हिन्दी के विरूद्ध साजिश रच रहे हैं।’’

हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना ही चाहिये। वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा लगभग 9,00,000 शब्दों के अलग-अलग कोष प्रकाशित होने के पश्चात् आवश्यकतानुसार प्रत्येक विषय तथा भाषा की शब्द- सम्पदा प्रशासनिक या अकादमिक उपलब्ध हैं। कोई इनसे परिचित न होना चाहे और भाषाओं की दरिद्रता की चर्चा करें उन्हें क्या कहा जाये? निश्चय ही हिन्दी उस स्थान को प्राप्त करेेगी जिसकी कामना पं. मदन मोहन मालवीय जैसे सहत्पय महानुभावों ने की थी।