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हिन्द की चॉदर: गुरू तेगबहादुर

गुरू तेगबहादुर सिख धर्म के नवें गुरू के रूप में प्रख्यात हैैं। ये सिख जाति के लिए ‘‘नवम् नानक’’ के रूप मे जाने-जाते है। इनका जन्म पंजाब के प्रसिद्ध शहर अमृतसर में 29 अप्रैल 1621 को हुआ। इनके पिता का नाम हरिगोविन्द जी था, जो सिखों के छठें गुरू एवं माता का नाम नानकी था। वे छोटी अवस्था से ही बड़े होनहार थे। एक बार एक स्त्री अपने बीमार बालक को लेकर तेगबहादुर जी के पास आई, और कहने लगी- ‘‘मेरा पुत्र अस्वस्थ रहता है, इसके स्वस्थ होेने का कोई उपाय बताइए।’’ गुरू तेगबहादुर ने उसे दो दिन बाद आने को कहा। दो दिन बाद जब वह आई तो उन्होने उससे कहा- यह मीठी चीजे बहुत खाता है, यदि आप इसकी मीठी चीजे खाना छुड़वा दे, तो यह स्वस्थ हो जाएगा। उस स्त्री ने कहा कि यह तो मुझे आप दो दिन पहले ही बता सकते थे। गुरू तेगबहादुर ने कहा- ‘‘पहले वह स्वतः मीठी चीजे बहुत खाते थे, पर अब मै उनका प्रयोग बहुत सीमित कर दिया हू। मैं अपनी कथनी और करनी में भेद नही करना चाहता।’’ इस तरह से गुरू तेगबहादुर बचपन से ही जो कहते थे, उसे अपने जीवन में चरितार्थ करते थे। अपनी आध्यात्मिक वृत्ति और ध्यान में मग्न रहने के चलते वह बहुत वर्षो तक गुरू गद्दी से अलग रहे। 20 मार्च 1665 को परम्परागत ढंग से वह गुरू गद्दी पर बैठे।

गुरू तेगबहादुर जी गुरू गद्दी पर सुशोभित होने के बाद सर्वप्रथम अमृतसर गए। पर जब हरि-मंदिर के पुजारियों को उनके आगमन की सूचना मिली तो जल्दी-जल्दी वहां के सभी द्वार बंद करवा दिए। उनके मन में भय था कि यदि गुरू सा. वहां पंहुच गए तो उनके हाथो से सारी धन-दौलत जाती रहेगी तथा इससे उनका सम्मान समाप्त हो जाएगा। उन्होेने सिख-संगत के इस अनुरोध को ठुकरा दिया कि वे ताकत से हरि-मंदिर में प्रवेश करे और निकट रहकर ही गुरू नानक देव जी के उपदेशों का प्रचार करने लगें। उस स्थान पर आज का ‘‘घड़ा साहिब’’ गुरूद्वारा बना हुआ है। इसके बाद गुरू साहिब बल्ला गॉव को चले गए, वहां इन दिनों गुरूद्वारा कोठा सा. बना हुआ है। घूमते-घूमते वह माखोवाल कस्बे में गए और वहां की कुछ जमीन खरीदकर उन्होने एक नए नगर की नींव रखी। उसका नाम उन्होने अपनी माताजी के नाम पर नानकी चक्क रखा जो बाद में आंनदपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यहीं पर गुरू साहिब सच्चे बादशाह के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होने आनन्दपुर में ही रहकर सिख धर्म के संदेश को सारे भारत में फैलाने का निर्णय लिया।

इधर औरंगजेब जो हिन्दुओं और सिखों से सख्त घृणा करता था। उसने फतवा जारी कर दिया कि जो भी हिन्दू मुसलमान बनने से इंकार करें, उसे कत्ल कर दिया जाए। उसने अपनी सेना तथा मुसलमानों को यह खुली छूट दे दी कि वे हिन्दुओं के घरों में खुली लूटपाट करें। हिन्दुओं की बहन-बेंटियों की इज्जत लूटकर उन्हे अपमानित करें। उनकें मंदिरों को तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिद बनाए। उनके विद्यालयों और धर्म-ग्रंथों को आग लगा दें, तथा उनके तीर्थ-स्थलों को नष्ट कर दें। एक बार लगभग दो हजार साधुओं ने औरंगजेब का विरोध करना चाहा तो उसने उन्हे सरेआम कत्ल करवा दिया। मथुरा, काशी व आयोध्या जैसे पवित्र स्थलों को तुड़वाकर उसने मस्जिदें बनवा दी। हिन्दुओं पर बेतहाशा जुल्म ढ़ाने के बाद उसने सिखों को भी समाप्त करने का मन बना लिया।वह जगह-जगह पर बने गुरूद्वारों को भी नष्ट करने लगा।

इधर छः महीने आनन्दपुर में रहकर गुरू तेगबहादुर परिवार के साथ यात्रा पर निकल पड़ें। वे वृन्दावन, मथुरा, आगरा और कानपुर होते हुए प्रयाग के कुम्भ मेलें में गए और इसके पश्चात पटना चले गए। यहीं पर अपनी पत्नी गूजरी देवी को गर्भवती होने के कारण पटना में छोड़कर आसाम चले गऐ और यही से ढ़ाका गए, जहां पर उन्हे पुत्र-रत्न गोविन्द सिंह के प्राप्ति की सूचना प्राप्त हुई। चार सवाल बाद वह पटना लौटे, और औरंगजेब के अत्याचारों को सुनकर तत्काल पंजाब जाने का निर्णय कर लिया।

औरंगजेब का सोचना था कि हिन्दुओं में ब्राम्हणों का स्थान सर्वोपरि है और यदि इन्हे मुसलमान बना दिया जावे तो शेष लोग अपने आप ही मुसलमान हो जाएगे। इसीलिए उसने काश्मीर के सुबेदार को आज्ञा दी कि वह सभी काश्मीरी पंडितों को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए विवश करें। सुबेदार ने जब काश्मीर के सभी पंडितों को औरंगजेब का आदेश सुनाया तो उन्होने सोच-विचार के लिए छः मास का समय मांगा। सुबेदार ने समय तो दे दिया लेकिन यह भी बता दिया कि यदि छः माह के बाद उन्होने इस्लाम धर्म को नही अपनाया तो उन्हे जान से हाथ धोना पड़ेगा। इस दौरान काश्मीरी पंडितों ने बड़ा प्रयास किया, वे सभी पहाड़ी राजाओं से भी मिले। परन्तु औरंगजेब के डर से कोई भी उनकी मदद के लिए तैयार नही हुआ। इसी दौरान गुरू साहब से ईष्या रखने वाले किसी व्यक्ति ने उन्हे सलाह दी की वह गुरू तेगबहादुर के पास जाए। इसके बाद काश्मीरी पंडितों का एक समूह आनन्दपुर जाकर गुरू सा. को अपनी दर्द भरी कहानी सुनाई। शरण में आए हुए की रक्षा करना गुरूओं की पंरपरा थी। उन्होंने उनकी व्यथा को बड़ें ही ध्यानपूर्वक सुंना तथा सहायता करने का आश्वासन दिया। पर वे यह समझ नही पा रहे थे कि कैसे उनकी सहायता करें और सोच-विचार में डूबें ही थे कि उनके नौ वर्षीय पुत्र गोविन्द राय जो आगें चलकर गोविन्द सिंह के नाम से सिखों के दशमें गुरू बने, वहां आ पहुचे। गोविन्द राय ने जब उनकी चिंता का कारण पूंछा तो उन्होने बताया कि इन काश्मीरी पंडितों का संकट तभी टल सकता है, जब कोई महापुरूष इस जुल्म के विरूद्ध आवाज उठाए और अपने शीश की बलि देने से भी न घबराए। इस पर गोविन्द राय ने कहा ‘‘पिताजी इस समय आपसे बढ़कर महापुरूष कौन हो सकता है? यदि आपके बलिदान देने से इन पंडितों के धर्म की रक्षा हो सकती है, तो फिर हिचकिचाहट कैसी? इस पर गुरू सा. काश्मीरी पंडितों से बोले- ‘‘जाओं जाकर अपने सुबेदार से कह दो कि तुम्हारा गुरू मैं हॅू और यदि वह मुझे मुसलमान बना ले हम सभी खुशी-खुशी अपना धर्म बदलकर मुसलमान हो जाएगे।’’ इसके बाद गुरू सा. ने बिना देरी किए गोविन्द राय को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुने हुए सिखों के साथ दिल्ली की ओर चल पड़ें। आगरा पंहुचते ही गुरू सा. को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हे दिल्ली लाया गया तथा अनेकों प्रकार से यातनाएं दी गई। इस्लाम धर्म, स्वीकार करने के लिए उन पर तरह-तरह से जुल्म ढ़ाए गए। उनकी ऑखों के सामने उनके साथी भाई मतिदास जी को आरे से चीर डाला गया तथा भाई दयाला जी को उबलती हुई देगली में बिठाकर शहीद कर दिया गया। भाई सतीदास के शरीर के चारों ओर रूई बांधकर उनको जिंदा जला दिया गया। परन्तु गुरू तेगबहादुर तनिक भी विचलित नही हुए बगैर स्पष्ट कहा- ‘‘आपको जो भी करना है करें, मै अपना धर्म नही बदल सकता। ऐसी स्थिति में जब गुरू सा. किसी प्रकार नही माने तो उनको लोहे के एक ऐसे पिंजरे में बंद कर दिया गया, जिनमें न तो वह खड़ें हो सकते थे, और न लेट ही सकते थे। औरंगजेब के आदेश पर उस पिंजरे को चॉदनी चौक में पक्की नहर के किनारे एक ऊॅचे चबूतरे पर रखवा दिया गया, तांकि लोग उनको देखकर सबक सीख सके। अगले दिन उन्हे कोतवाली के सामने औरंगजेब के जल्लादों ने पिंजरे से बाहर निकाला तथा उनका शीश धड़ से अलग कर दिया। यही पर गुरूद्वारा शीशगंज मौजूद है। जहां पर गुरू सा. के शीश का अंतिम संस्कार किया गया, उस जगह को ही गुरूद्धारा आनन्दपुर के नाम से जानते है। जहां धड़ को अग्नि दी गई वहां गुरूद्वारा रकबगंज स्थिति हेै।

इस तरह से गुरू तेगबहादुर ने धर्म की रक्षा के लिए हंसते-हसंते अपने प्राणों की बलिदान दे दिया। आज भी उन्हे ‘‘हिन्द की चॉदर’’ कहकर गर्व व सम्मान के साथ याद किया जाता है, तथा हमेशा किया जाता रहेगा। वह कहते थे- गुरू का सिख (शिष्य) न तो किसी से ड़रता है और न किसी को डराता है। वह आत्मा को अमर मानता है, और अपने नश्वर शरीर को धर्म के लिए बलिदान करने को सदैव तैयार रहता है।

वीरेन्द्र सिंह परिहार
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