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26 फरवरी पुण्यतिथि सादगी की प्रतिमूर्ति – डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद

भारत के प्रथम राष्ट्रपति पद के लिये तीन बार निर्वाचित हुये। स्वाधीनता आन्दोलन में उनकी उल्लेखनीय भूमिका के कारण वे महान देशभक्त व देश के तपस्वी सेवक के रूप में जाने गये। उनमें विनम्रता और विद्धता के साथ- साथ अपूर्व संगठन शक्ति एवं अद्वितीय राजनैतिक सूझबूझ थी। उनकी गणना देश के उच्चतम नेताओं में थी।

भारतमाता के इस महान पुत्र का जन्म 3 दिसम्बर सन् 1884 को बिहार राज्य के जीरादेई नामक ग्राम के एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में हुआ था। अनके पिता महादेव प्रसाद चिकित्सक थे। राजेन्द्र बाबू की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुयी।

डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद एक मौलवी सा. उर्दू और फारसी पढ़ाने के लिये आते थे। बाद में उनका नाम छपरा के एक स्कूल में लिखाया गया। उसी विद्यालय से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उच्च शिक्षा हेतु उन्हें कलकत्ता भेजा गया। प्रेसीडेंसी काॅलेज में उन्होंने एफ.ए. और पी.ए. की परीक्षायें सम्मानपूर्वक उत्तीर्ण की। कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में एम.ए. (अर्थशास्त्र) की डिग्री प्राप्त की। उनकी विलक्षण प्रतिभा से उस समय के प्रख्यात नेता, समाज सेवक गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार के ही विभूतिनारायण सिन्हा जैसे विद्वान आकर्षित हुये और राजेन्द्र बाबू को उनका सानिंध्य प्राप्त हुआ।

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डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद

राजेन्द्र बाबू ने कलकत्ता में ही रहकर वकालत की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। वकील बनने के बाद वे सर्वप्रथम मुजफ्फरपुर काॅलेज में अध्यापक नियुक्त किये गये। वे प्रखर वक्ता तो थे ही। उनकी प्रभावशाली तर्कशैली के कारण उनकी गणना शीघ्र ही प्रभावी वकीलों में होने लगी। कुछ ही दिनों में उनका यश चारों ओर फैल गया। बाद में उन्होंने वकालत छोड़ दी और असहयोग आन्दोलन से जुड़ गये।

उस समय भी उनके पास जमा पूंजी 15 रूपये की धनराशि थी। पटना से अहमदाबाद आना पड़ा तो उन्होंने अपना शाल बेचकर काम चलाया। बाद में तो उन्हें अपनी जमीन जायदाद और पत्नी के गहने भी बेचने पड़े। इस परिस्थिति में भी न आंदोलन से हटेे न परिस्थितियों के आगे झुके। उन्हें जज बनने का भी अवसर मिल जाता लेकिन सन् 1916 में किसानों के अधिकारों को लेकर सत्यागृह में शामिल होना जरूरी समझा। चम्पारण के बाद वे कांग्रेस के विभिन्न कार्यक्रमों में प्रमुख रूप से भाग लेने लगे थे। उनके कारण सत्याग्रह में लाखों स्त्री-पुरूष स्वाधीनता आन्दोलन से भी जुड़ते गये।

जब देश को आजादी मिली तब प्रथम राष्ट्रपति के रूप में विधिवत गठित निर्वाचन मंडल द्वारा निर्वाचित हुये। और राष्ट्रपति  पद पर आसीन हुये। राजनैतिक विशेषज्ञों को मानना था कि डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाने के पीछे एक ही लक्ष्य था कि वे संविधान के सही रक्षक सिद्ध होंगे। वे उस लक्ष्य पर सही सिद्ध हुये। वे संविधान सभा के अध्यक्ष भी थे। वे विधिवेत्ता और लोक तांत्रिक व्यक्ति थे। अपनी प्रतिभा और सादगी से डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद ने भारत को ही नहीं विश्व को आश्चर्य चकित कर दिया था। त्यागमय जीवन, कुशाग्र बुद्धि तथा निस्वार्थ देश भक्ति के कारण वे सर्वोच्च नेताओं की श्रेणी में गिने जाते थे।

डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद के व्यक्तित्व और कृतित्व की भारतीय इतिहास में गहरी छाप है। उनका नाम सदैव प्रेम एवं आदर के साथ लिया जाता रहेगा। उन्होंने 13 मई सन् 1962 को राष्ट्रपति पद से अवकाश ग्रहण कर शेष जीवन पटना के सदाकत आश्रम में ही व्यतीत किया। 26 फरवरी 1963 को उनका निधन हुआ।

राजनीति से अवकाश लेने के बाद उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘‘भारत रत्न’’ से सम्मानित किया गया।

लेखक:- डाॅ. किशन कछवाहा