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प्रकृति वन्दन: आदिकाल से वर्तमान तक…

प्रकृति वन्दन: आदिकाल से वर्तमान तक…

आज की आवश्यकता क्यों ?

भारतवर्ष सृष्टि के आदिकाल से है एवं भारतीय संस्कृति जिसे हिंदू संस्कृति -सनातन संस्कृति के नाम से विश्व में जाना जाता है यह अनादि -अनंत -अक्षुण्य है यह राष्ट्र व इसकी हिंदू संस्कृति देव निर्मित है । भारतवर्ष व् इसकी हिंदू संस्कृति दोनों आध्यात्मिक हैं।

सृष्टि का आदि ग्रंथ’ वेद ‘इसका प्रमाण है ।  इसी संदर्भ में अखिल विश्व गायत्री परिवार- प्रमुख ,मनीषि डॉ प्रणव पंड्या कहते हैं कि- *दुनिया में जब सब सोए हुए थे तब भी जगा था यह देश “। ‘प्रकृति-वंदन’ तो भारत का अनादिकाल से संस्कार रहा है।

भारतीय संस्कृति में प्रकृति (पृथ्वी )को’ मां ‘माना गया है । यानी की पृथ्वी माता है एवं हम सभी उसके पुत्र हैं । इसी तथ्य की पुष्टि में अथर्ववेद में एक वाक्य आता है- माताभूमि पुत्रोंश्ह्म  प्रथिव्या:।

भारतीय संस्कृति की यह मान्यता व विश्वास है कि संपूर्ण सृष्टि के कण-कण में ,संपूर्ण चराचर जगत में ,जीव -अजीव -सजीव सभी में, उसी एक तत्व ‘परमात्म-चेतना’ का वास है ।एक ही तत्व संपूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित कर रहा है, चला रहा है। यह सारा जगत उसी की अभिव्यक्ति है यानी “यत पिंडे -तत्त ब्रह्मांडे ” ।

हिंदू सब में उस चेतना का वास मानकर सभी को वंदन -पूजन करता है।तभी हिंदू सांप, चूहा, हाथी, नंदी, शेर ,मोर ,गाय वृक्षों  में पीपल,तुलसी, बरगद, आंवला, आम को आदिकाल से पूजता, संरक्षण करता चला आ रहा है। प्रकृति के प्रत्येक घटक का वंदन- संरक्षण’ सम्मान करना हिंदू की संस्कृति है।

  स्वामी विवेकानंद अपने हिंदू होने में गर्व की अनुभूति करते हुए कहते हैं कि  –

“Here am I,one of the least of the Hindu race ,yet proud of my race. Proud of my ancestors. I am proud to call myself a Hindu.I am proud that I’m one of your unworthy servants. I am proud that I’m a countryman of yours. you the descendants of the sages, you the descendants of the most glorious ancestors the world ever saw. “

-( Lectures from Colombo to Almora)

  ” यहां मैं हूँ ! हिंदू -जाति में से क्षुद्रतम घटक , फिर भी मुझे अपनी जाति पर गर्व है , अपने पूर्वजों पर गर्व है।  मुझे अपने -आपको ‘ हिंदू’ कहलाने में गर्व है , मुझे गर्व है कि मैं आपका तुक्ष्छ सेवक हूं । मुझे गर्व है कि मैं आप में से एक देशवासी हूं ; आप जो ऋषियों के वंशज हैं, विश्व के सर्वाधिक  गौरवसाली ऋषिओं के वंशज । “

 हिंदू संस्कृति का आधार ही – श्रद्धा व विश्वास है इसी सत्य की पुष्टि में यह वाक्य कहा गया है कि- ” भवानी शंकरौ वन्दौ-श्रद्धा विश्वास रूपिनौ “।

 अर्थात श्रद्धा ही भवानी व सीता है ।और विश्वास ही शंकर वराम है । इसी तथ्य व सत्य की अनुभूति का वर्णन करते हुए भारत के महान वैज्ञानिक प्रोफेसर जगदीश चंद्र बसु कहते हैं कि  -“वृक्ष व वनस्पतियों में भी संवेदना है ।उन्हें भी दु:ख व प्रसन्नता की अनुभूति होती है।

” भारतवर्ष में विविध रूपों में, विभिन्न परंपराओं,रीति-रिवाजों के माध्यम से ,प्रकृति- वंदन -पूजन ,अनादिकाल से होता आ रहा है। किंतु वर्तमान काल की परिस्थितियों में प्रकृति वंदन की आवश्यकता ,प्रासंगिकता अत्यधिक रूप से बढ़ जाती है।

वर्तमान  वैश्विक संकट के समाधान के स्वर- सूत्र ‘प्रकृति -वंदन ‘में दिखाई पड़ते हैं ।हमारे यहां जल (वरुण )देवता- नदियों की आराधना में निम्न मंत्र के माध्यम से की जाती है।

 गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ।

 नर्मदे सिंधु कावेरि जलेस्स्मिन सन्निधि कुरु ।।

 भारतवर्ष त्योहारों, उत्सवों की सांस्कृतिक परंपरा वाला मूर्तिपूजक ,प्रकृति -वंदन करने वाला देश है। यहां की संस्कृति वंदन की, अभिनंदन की ,उपासना -साधना -आराधना की संस्कृति है ।भारत में वर्षा ऋतु यानी चौमासा पूर्णत: व्रत- उपवास, त्योहारों ,प्रकृति वन्दन के विविध रूपों से भरा हुआ है।

जैसे हरियाली अमावस्या– नदी सरोवर में स्नान- दान, पूजन किया जाता है ।तो नागपंचमी पर नाग देवता का पूजन किया जाता है । पोला  (पोरा) पर बैलों की पूजन की जाती है। सोमवती अमावस्या -तुलसी ,पीपल की पूजन किया जाता है। बट सावित्री -इस व्रत में स्त्रियां बट (बरगद )वृक्ष की पूजन करते हुए, अपने पति के अखंड सौभाग्य वृद्धि हेतु ।शरदपूर्णिमा – चंद्रमा पूजन -आराधन किया जाता है।

शुक्ल चतुर्थी को  मिट्टी गणेश स्थापन दस दिन तक बुद्दि की कामना-आराधना की जाती है । तत्पश्चात पितृपक्ष-  पितरों -पूर्वजों को तर्पण नवदुर्गा(नवरात्रि) आती है इसमें मिट्टी की देवी जी की मूर्ति स्थापना करके नौ दिवस पूजन -आराधन- साधना नौ रूपों में की जाती है।

इसमें मां शैलपुत्री मां महागौरी के वाहन -नंदी, मां चंद्रघंटा -कूष्मांडा -स्कंदमाता -कात्यायनी -दुर्गा के वाहन -शेर व कालरात्रि के वाहन- गधा हैं ।इन सभी की पूजा- अर्चना की जाती है। दीपावली- गोवर्धन पूजन होता है। एवं दीपावली के दूसरे दिन अन्नकूट(परिवा) परिवा को गाय- बैल सजाए जाते हैं ।

छत्तीसगढ़ प्रांत में नवाखाईक्षेड़क्षेडा  के रूप में नई फसल (धान) आने पर उत्सव मनाया जाता है महालक्ष्मी पूजन म लक्ष्मी जी का पूजन करती हैं। पति के अखंड सौभाग्य हेतु आंवले की पूजन आंवला नवमी मे परिक्रमा करती हैं। कजलियां रक्षाबंधन के दूसरे दिन जवारे, गेहूं के छोटे पौधे आपस में बांट कर सामाजिक सौहार्द की वृद्धि की जाती है ।

छठ त्यौहार यह उत्सव दीपावली के पश्चात छठवें दिन ,किसी पवित्र नदी -जलाशय में जाकर, सविता सूर्य की उपासना, प्रकृत वन्दन का त्यौहार है ।जो प्रमुखता से उत्तर प्रदेश, बिहार ,झारखंड में मनाया जाता है। देवउठनी ग्यारस एकादशी का पूजन गन्ने का मंडप बनाकर देवताओं के जागने के उत्सव के रूप में मनाया जाता है ।

मकर संक्रांति उत्सव इस उत्सव में किसी पवित्र नदी जलाशय में जाकर स्नान -दान किया जाता है  व खिचड़ी का दान, भोजन किया जाता है। यह सामाजिक समरसता का प्रतीक पर्व है। वसंत पंचमी उत्सव प्रकृति में नूतन संचार होता है। प्रकृति पूजन व सरस्वती पूजन के रूप में मनाया जाता है।

शिवरात्रि उत्सव इसमें प्राकृतिक वस्तुओं -गेहूं की बाल ,बेलपत्र, गंगाजल ,आम्र मौर, धतूरा, अकुआ शिवजी को चढ़ाकर पूजन किया जाता है ।उनके  गणौ नंदी,मोर ,चूहा ,शेर का भी पूजन किया जाता है ।सभी एक दूसरे के विपरीत, प्रकृति, गुण वाले होते हुए भी शिव परिवार में अद्भुत समन्वय का प्रतीक हैं।

प्रत्येक पूजन में बंदनवार आम केले के पत्तों से बनाया जाता है यह शुभ माना जाता है यही तो प्रकृति वन्दन है। ऋषि पंचमी सप्तर्षियों की पूजन किया जाता है । हलषष्ठी- हरछठ 6 प्राकृतिक पौधे कांश, महुआ ,पलाश, बांस की टोकरी में छह प्रकार के अनाजों की लाई  रखकर  पूजन -वंदन किया जाता है। रंगपंचमी प्राकृतिक रंगों से होली मनाई जाती है।

दक्षिण भारत में पोंगल उत्सव मनाया जाता है। अक्षय तृतीया मिट्टी के मटके में जल भरकर गेहूं के दाने डालकर मटके का पूजन किया जाता है। सुर्य नमस्कार प्रातः जगत की आत्मा- पिता सूर्य भगवान को नमन- वन्दन करना। विवाह में मान्गर माटी पृथ्वी मा का पूजन करके स्त्रीया मिट्टी लाती हैं ।

रामायण में यह ‘माटी -वन्दन ‘का प्रसंग आता है ।जब श्रीराम वनवास को जाते हैं  एवं रास्ते में जब अयोध्या की सीमा समाप्त होती है तब वह अपने रथ से उतरकर अयोध्या की माटी को प्रणाम करते हैं एवं कुछ मिट्टी बांधकर अपने साथ 14 वर्ष वनवास काल में माटी का नित्य वंदन करते हैं ,पूजन करते हैं ।

हुतात्मा बंदा बैरागी ने भी प्रतिदिन माटी का वंदन किया करते थे। इसी से उन्हें शक्ति व प्रेरणा प्राप्त होती थी। भारत में माटी (मातृ -वन्दन) की परंपरा आदि काल से है और इसके लिए सर्वस्व निछावर करने की भावना भी विद्यमान है ।

भारत में नदी को मां से संबोधित किया जाता है जैसे नर्मदा मैया ,गंगा मैया, यमुना मैया। एवं इसकी परिक्रमा की जाती है जैसे ‘नर्मदा परिक्रमा ‘ यही तो प्रकृति वन्दन है । ‘गौ माता’ सर्वप्रथम है ।यह मात्र एक पशु नहीं है वरन हमारी माता है ।इस के कण ‘कण में दैवीय तत्व भरे पड़े हैं।

इसीलिए इसे भारतीय वांग्मय में

“गावो विश्वस्य मातर:”

“गोधनं राष्ट्र संवर्धनं “

“गौ सर्वदेव मयी”

अर्थात् – गाय के शरीर में सभी देवी शक्तियां सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं । हिंदू संस्कृति  के मन-वचन- कर्म में ,विचार ब क्रिया में’ ‘प्रकृति वन्दन’ का संस्कार समाया हुआ है। हमारे वनों में रहने वाले भोले -भाले वनवासी बंधु ‘टोटम’के नाम से प्रकृति वन्दन करते हैं।

वर्तमान में प्रकृति वंदन की आवश्यकता क्यों आन पड़ी?

 वर्तमान में विश्व मानवता भौतिकतावाद में फंसकर प्रकृति से दूर जा रही है। क्षणिकबाद के दुष्परिणाम आज विश्व के सामने विनाश के रूप में उपस्थित हैं । प्रकृति के अंधाधुंध दोहन- शोषण से वैश्विक असंतुलन उत्पन्न हो गया है ।

और भौतिकताबाद -क्षणिकबाद पर आधारित जीवन शैली के दुष्परिणाम के रूप में पर्यावरण प्रदूषण ,जल प्रदूषण ,ध्वनि प्रदूषण है ।परिणाम स्वरूप ओजोन परत में छिद्र, ग्लोबल वार्मिंग ,ग्लेशियर का पिघलना, इकोलॉजी सिस्टम में असंतुलन के रूप में आज वैश्विक समस्या बन चुका है। पश्चिमी सभ्यता के अन्धानुकरन के चलते विश्व में आज परमाणु हथियारों की प्रतिस्पर्धा इस स्तर तक पहुंच गई है कि संपूर्ण विश्व के विनाश का खतरा विश्व मानवता के सर पर मंडरा रहा है। प्लास्टिक कचरा,CFC ( सीएफसी कार्बन) आज वैश्विक समस्या बन गई है, इससे विज्ञान भी आज परास्त होता दिखाई दे रहा है ।

पश्चिमी दिनचर्या व रसायनों के साइड इफेक्ट के चलते -कैंसर ,टीवी, ब्रेन हेमरेज, हार्ट अटैक जैसी घातक बीमारियां उत्पन्न हुई एवं वैश्विक समस्या बनकर विकराल रूप धारण किए हुए हैं । अतः प्रकृति से दूर जाना भारतीय जीवन मूल्यों के विपरीत जीवन पद्धति अपनाने के दुष्परिणाम आज विश्व मानवता भुगत रही है ।

   समाधान के सूत्र -Back to  Vedas  “वेदों की ओर लौटो”

अर्थात आध्यात्मिक जीवन पद्धति हिंदू संस्कृति कि विश्व को सर्वोत्तम देन है। जिसे अपनाकर भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व सुख शांति का सर्वांग पूर्ण जीवन जी सकता है ।इसी पद्धति पर चलते हुए भारत प्राचीन काल में ‘विश्वगुरु’ -‘जगतगुरु’ ,’सोने की चिड़िया,’ परमवैभव ‘के अधिष्ठान से अलंकृत रहा था।

एवं इसी आध्यात्मिकता के चलते घांस-पूंस  की झोपड़ी में रहने वाले अपरिग्रहि, ऋषि-मुनियों के चरणों में दुनिया लोटपोट हुआ करती थी और उनके एक दर्शन को पाना अपने जीवन का सौभाग्य मानती थी ।

ऐसी तपोमयि,देबोपम ,त्यागमयी ,विस्वप्रेम की धारा, बहाने वाली यह हिंदू -संस्कृति है ।और इसके ध्येय  वाक्य  – ” कृण्वंतो विश्वमार्यम्” , “तेन त्याक्तें भुंजीथा ” वसुधैव कुटुंबकम “। यह अनादि( Beginningless )व अनंत (Endless) अर्थात सनातन (Immortal )विश्व की प्रथम संस्कृति है। इस  तथ्य व सत्य को आज दुनिया के विद्वान, इतिहासकार, वैज्ञानिक स्वीकारने लगे हैं ।

अतः संपूर्ण मानवता को विनाश के मार्ग से हटाकर सृजन – उज्जवल पथ पर ले जाने हेतु इसका अवगाहन , अनुसरण भारत ही नहीं ,संपूर्ण विश्व को करना होगा। इसलिए स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि  – “भारत ईश्वर की खोज में रत हो गया तो अमर हो जाएगा और यदि राजनीति के कीचड़ में लौटता रहा तो बिनाश अटल है।”

 अतः प्रकृति ‘पृथ्वी ‘को मां मानकर पुत्र आचरण करेंगे तो सभी पुत्रों का कल्याण ही कल्याण होगा।

  भारत ने अनादिकाल से समस्त संसार का मार्गदर्शन किया है। ज्ञान और विज्ञान की समस्त धाराओं का उदय ,अवतरण  सर्वप्रथम इसी धरती पर हुआ। पर यह यहीं तक सीमित नहीं रहा-यह सारे विश्व में फैल गया। निश्चित ही वर्तमान में भारतीय संस्कृति-विश्व संस्कृति बनने के पथ पर तीव्र गति से अग्रसर है ।

अत:प्रकृति वन्दन यही आज की राष्ट्रीय ब वैश्विक आवश्यकता एवं धर्म कर्तव्य भी है। इसी में विश्व मानवता की भलाई -उज्जवल भविष्य है। भारतवर्ष के ऋषि -मुनि वन्यक्षेत्र ,आरण्य में नदी -जलाशयों के किनारे -तटों पर अपने गुरुकुल बनाकर , प्रकृति के सानिध्य में  “जीवन साधना -उपासना “किया करते थे।

नित्य प्रकृति वन्दन ,सानिध्य में अध्ययन, ‘जीवन जीने की कला ‘ प्रशिक्षन इतना उत्कृष्ट हुआ करता था की विधार्थी प्रतिभावान ,कर्तव्यनिस्ठ ,धर्म निस्ठ , संशकारवान बनकर ,समाज में प्रकास फ़ैलाया करते थे ।विस्व वसुधा की सेवा-आराधना को अपना जीवनलक्ष्य मानकर जीवन जीते थे ।

यह सब ऋषिप्रणीत आरण्यक -गुरुकुल पद्दती, प्रकृती-वन्दन का ही परिणाम था कि भारत ‘प्रतिभाओं की खान’ था,’जगतगुरु – ‘विस्वगुरु’ था । आज पुन:उसी पुण्य परम्परा का अनुसरण-अवगाहन करने की आवस्यकता आन पड़ी है ।

डॉ. नितिन सहारिया
(लेखक सामाजिक चिंतक एवं विचारक)