बैगाचक क्षेत्र या बालाघाट, हम आज चारो ओर हरियाली और बड़ी मात्रा में वन्यजीवों को देख पा रहे है तो इसके पीछे हमारी सांस्कृतिक विरासत है। सदियों से जंगलों में रहने वाली जनजातियों की सोच और उनके आदर्श इतने उच्च है कि आज की प्रतिस्पर्धा और चकाचौंध में भी वे अधुनिकता से खुद को दूर रखकर अपने नैतिक मूल्यों को जीवित रखे हुए है। जैसे धरती माता को दुःख न पहुंचे इसलिए हल न चलाना, गायों को परिवार का सदस्य मानकर गाय के दूध उपयोग में नही लाना न ही गौमांस का भक्षण करना, खास अवसर पर ही स्नान करना उनके जल के प्रति प्रगाढ़ आस्था को भी दर्शाता है। सीमित शिकार, सीमित कृषि, पर्यावरण का सीमित दोहन, महिला प्रधानता, विधवा पुनर्विवाह और बेहद सादगी भरा जीवन।
बालाघाट के दूरस्थ अंचलों में (जहां वाहन का पहुंचना भी संभव नही है) मिलने वाले हिंदू देवी-देवताओं की अति दुर्लभ और विशालकाय मूर्तियों का अध्ययन ये भी बताता है की बैगा जनजाति को पुरोहितों के समकक्ष ही स्थान प्राप्त है वे धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन में जरूर पीछे रहे लेकिन उनके उच्च आदर्श एवं पर्यावरण के प्रति आस्था उन्हें हिन्दू समाज में विशेष स्थान देते है। गोंडवाना राजाओं के समय वनों में रहने वाली जनजातियों को मिलने वाला सम्मान इस बात की पुष्टि भी करता है। बार बार हुए आक्रमणों ने भी उन्हें संस्कारो से विचलित नही होने दिया।
लालबर्रा, सलेटेकरी, दमोह, लांजी, गढ़ी, भैसान घाट, अम्बा माई में मिलने वाली अति प्राचीन हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियां इसका साक्षात प्रमाण है।