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संघ के कार्यक्रमों में अतिथि के नाते समाज की प्रबुद्ध व कर्तृत्व संपन्न महिलाओं की उपस्थिति की परम्परा पुरानी है।

प. पू. सरसंघचालक डॉ. श्री मोहन जी भागवत का विजयादशमी उत्सव के अवसर पर दिए गए उद्बोधन के मुख्य बिंदु

मातृशक्ति की सर्वत्र सहभागिता 

भारतीय परम्परा में इसी (महिला एवं पुरुष) पूरकता की दृष्टि से विचार किया गया है। हमने इस दृष्टि को भुला दिया और मातृशक्ति को सीमित कर दिया। सतत आक्रमणों की परिस्थिति ने इस मिथ्याचार को तात्कालिक वैधता प्रदान की तथा उसको एक आदत के रूप में ढाल दिया। भारत के नवोत्थान के उष: काल की पहली आहट से हमारे सभी महापुरुषों ने इस रूढ़ि को त्यागकर; मातृशक्ति को एकदम देवता स्वरूप मानकर पूजाघर में बंद करना अथवा द्वितीय श्रेणी की मानकर रसोईघर में मर्यादित कर देना- इन दोनों अतियों से बचते हुए उनके प्रबोधन, सशक्तिकरण तथा समाज के सभी क्रियाकलापों में, निर्णय प्रक्रिया सहित सर्वत्र बराबरी की सहभागिता पर ही जोर दिया है।

2017 में विभिन्न संगठनों में काम करने वाली महिला कार्यकर्ताओं ने मिलकर भारत की महिलाओं का बहुत व्यापक व सर्वांगीण सर्वेक्षण किया। वह शासन को भी पहुंचाया गया। उस सर्वेक्षण के निष्कर्षों से भी मातृशक्ति के प्रबोधन, सशक्तिकरण तथा उनकी समान सहभागिता की आवश्यकता अधोरेखित होती है।

मातृभाषा में शिक्षा पर ध्यान देगा

मातृभाषा में शिक्षा को बढ़ावा देने वाली नीति बननी चाहिए यह अत्यंत उचित विचार है, और नयी शिक्षा नीति के तहत उस ओर शासन/प्रशासन पर्याप्त ध्यान भी दे रहा है।

मातृभाषा की प्रतिष्ठा की अपेक्षा शासन से करते समय हमें यह भी देखना होगा कि हम हमारे हस्ताक्षर मातृभाषा में करते हैं या नहीं? हमारे घर पर नामफलक मातृभाषा में लगा है कि नहीं? घर के कार्यप्रसंगों के निमंत्रण पत्र मातृभाषा में भेजे जाते हैं या नहीं?

नयी शिक्षा नीति के कारण छात्र एक अच्छा मनुष्य बने, उसमें देशभक्ति की भावना जगे, वह सुसंस्कृत नागरिक बने यह सभी चाहते हैं। परन्तु क्या सुशिक्षित, संपन्न व प्रबुद्ध अभिभावक भी शिक्षा के इस समग्र उद्देश्य को ध्यान में रख कर अपने पाल्यों को विद्यालय महाविद्यालयों में भेजते हैं?

समग्र एवं एकात्म विचार वाली जनसंख्या नीति की जरुरत

अपने देश की जनसंख्या विशाल है यह एक वास्तविकता है। जनसंख्या का विचार आजकल दोनों प्रकार से होता है – (I) इस जनसंख्या के लिए उतनी मात्रा में साधन आवश्यक होंगे, वह बढ़ती चली जाय तो भारी बोझ- कदाचित असह्य बोझ-बनेगी। इसलिए उसे नियंत्रित रखने का ही पहलू विचारणीय मानकर योजना बनाई जाती है। (II) विचार का दूसरा प्रकार भी सामने आता है, उस में जनसंख्या को एक निधि – Asset भी माना जाता है। उसके उचित प्रशिक्षण व अधिकतम उपयोग की बात सोची जाती है।

अपने देश का हित भी जनसंख्या के विचार को प्रभावित करता है। आज हम सबसे युवा देश हैं। आगे 50 वर्षों के पश्चात आज के तरुण प्रौढ़ बनेंगे तब उनकी सम्हाल के लिए कितने तरुण आवश्यक होंगे यह गणित हमें भी करना होगा।

संतान संख्या का विषय माताओं के स्वास्थ्य, आर्थिक क्षमता, शिक्षा, इच्छा से जुड़ा है। प्रत्येक परिवार की आवश्यकता से भी जुड़ा है। जनसंख्या पर्यावरण को भी प्रभावित करतीं हैं।

सारांश में जनसंख्या नीति ‌इतनी सारी बातों का समग्र व एकात्म विचार करके बने, सभी पर समान रूप से लागू हो, लोकप्रबोधन द्वारा इस के पूर्ण पालन की मानसिकता बनानी होगी। तभी जनसंख्या नियंत्रण के नियम परिणाम ला सकेंगे।

सन 2000 में भारत सरकार ने समग्रता से विचार कर एक जनसंख्या नीति का निर्धारण किया था। उसमें एक महत्वपूर्ण लक्ष्य 2.1 के प्रजनन दर (TFR) को प्राप्त करना था। अभी 2022 में हर पाँच वर्ष में प्रकाशित NFHS की रिपोर्ट आई है। जहाँ समाज की जागरूकता और सकारात्मक सहभागिता तथा केंद्र एवं राज्य सरकारों के सतत समन्वित प्रयासों के परिणामस्वरूप 2.1 से भी कम लगभग 2.0 के प्रजनन दर पर आ गई है।

जहाँ जनसंख्या नियंत्रण के प्रति जागरूकता और उस लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में हम निरंतर अग्रसर हैं, वहीं दो प्रश्न और भी विचार के लिए खड़े हो रहे हैं। समाज विज्ञानी और मनोवैज्ञानिकों के मत के अनुसार बहुत छोटे परिवारों के कारण बालक-बालिकाओं के स्वस्थ समग्र विकास, परिवारों में असुरक्षा का भाव, सामाजिक तनाव, एकाकी जीवन आदि अनेक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है और हमारे समाज की संपूर्ण व्यवस्था का केंद्र “परिवार व्यवस्था” पर भी एक प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है।

जनसांख्यिकी असंतुलन की अनदेखी नहीं की जा सकती

दूसरा महत्व का प्रश्न जनसांख्यिकी असंतुलन का भी है। 75 वर्ष पूर्व हमने अपने देश में इस का अनुभव किया ही है और इक्कीसवीं सदी में जिन तीन नये स्वतंत्र देशों का अस्तित्व विश्व में हुआ, ईस्ट तिमोर, दक्षिणी सुडान और कोसोवा, वे इंडोनेशिया, सुडान और सर्बिया के एक भूभाग में जनसंख्या का संतुलन बिगड़ने का ही परिणाम है।

जब किसी देश में जनसांख्यिकी असंतुलन होता है तब-तब उस देश की भौगोलिक सीमाओं में भी परिवर्तन आता है। जन्मदर में असमानता के साथ साथ लोभ, लालच, जबरदस्ती से चलने वाला मतांतरण व देश में हुई घुसपैठ भी बड़े कारण है। इन सबका विचार करना पडेगा।

जनसंख्या नियंत्रण के साथ साथ पांथिक आधार पर जनसंख्या संतुलन भी महत्व का विषय है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।

स्व की अवधारणा का जागरण

समाज में स्व का बोध व गौरव जगाए रखने की आवश्यकता होती है। यह स्व हम सबको जोड़ता है। क्योंकि वह हमारे प्राचीन पूर्वजों ने प्राप्त किये सत्य की प्रत्यक्षानुभूति का सीधा परिणाम है।

अपनी विशिष्टता पर श्रद्धापूर्वक दृढ़ रहते हुए सभी की विविधता, विशिष्टता का सम्मान व स्वीकार करना चाहिए, यह बात सबको सिखाने वाला केवल भारत है।

सब एक हैं इसलिए सबको मिलजुलकर चलना चाहिए, मान्यताओं की विविधता हमको अलग नहीं करती।

सत्य, करुणा, अंतर्बाह्य शुचिता, तथा तपस् का तत्वचतुष्टय सभी मान्यताओं को साथ चलाता है। सभी विविधताओं को सुरक्षित व विकासमान रखते हुए जोड़ता है। उसी को हमारे यहां धर्म कहा गया। इन्हीं चार तत्वों के आधार पर सम्पूर्ण विश्व के जीवन को समन्वय, संवाद, सौहार्द तथा शान्ति पूर्वक चला सकने‌ वाले संस्कार देने वाली संस्कृति हम सबको जोड़ती है, विश्व को कुटुम्ब के नाते जोड़ने की प्रेरणा देती है।

उदयपुर जैसी जघन्य घटना की पुनरावृत्ति न हो

अभी पिछले दिनों उदयपुर में एक अत्यंत ही जघन्य एवं दिल दहला देने वाली घटना घटी। सारा समाज स्तब्ध रह गया। अधिकांश समाज दु:खी एवं आक्रोशित था। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो यह सुनिश्चित करना होगा।

ऐसी घटनाओं के मूल में पूरा समाज नहीं होता। उदयपुर घटना के बाद मुस्लिम समाज में से भी कुछ प्रमुख व्यक्तियों ने अपना निषेध प्रगट किया। यह निषेध अपवाद बन कर ना रह जाए अपितु अधिकांश मुस्लिम समाज का यह स्वभाव बनना चाहिए।