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फगुआ का बीटिंग रिट्रीट है ‘रंगपंचमी’

इधर इंदौर के राजवाड़े में जैसे रंगपंचमी के दिन हुरियारों का धमाल रहता है वैसे ही उधर बनारस में ‘बुढ़वा मंगल’ की मस्ती। संकटमोचन बजरंगी मंदिर का प्रागंण हुरियाए भक्तों से भरा रहता है। बुढवा मंगल एक तरह से वसंत से आरंभ होने वाले होली के रंगोत्सव के समापन का ऐलान है। इसे आप फगुआ का बीटिंग रिट्रीट भी कह सकते हैं।

हमारे लोकजीवन में पर्व-उत्सव के समापन का भी एक पर्व हुआ करता है। पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजन के विसर्जन का दृष्य देखें तो रंगपंचमी फीकी लगने लगे। सुहागिनें सिंदूर उड़ती चलती हैं। दही, हल्दी और सिंदूर से फेटे रंग को एक दूसरे पर उड़ेलते हुए।

उत्तर भारत में शादीब्याह या किसी भी मांगलिक अनुष्ठान के समापन पर ‘चौथी’ छुड़ाने की परंपरा रही है। गांवों में अभी भी इसके अवशेष बचे हैं। घर और नात रिश्तेदारी के लोग..पूजन सामग्री का विसर्जन करने समीप के नदी या तालाब जाते..। रास्ते भर गीत, गाना और धमाल। इसे ‘दहिकंदो’ कहते हैं।

‘बुढ़वा मंगल’भी कुछ ऐसा ही है। होली प्रकृति के उल्लास का विलक्षण लोकपर्व है। वसंत से ही फगुनाहट महसूस होने लगती है। हमारे गाँव में वसंत पंचमी के दिन तालाब की मेड़ पर मेला भरता है। जब हम बच्चे थे तो हमें उस दिन बगीचे के आम की बौर, गेहूं, जौ की बाली और गन्ना ये सब ले जाकर शंकरजी को चढ़ाना होता था। लोकमान्यता थी कि ऐसी पूजा अर्चना करने से हमारा समाज धनधान्य से संपन्न होता था।

वसंत पंचमी की गोधूलि बेला में हम बच्चे आरंडी(रेंड़ी) के पेड़ का डाँड गाडते थे। यह डा़ड दरअसल होलिका के आह्वान का उपक्रम होता था।

डाँड का गाड़ा जाना एक तरह से होलिकोत्सव के शुरुआत का ऐलान होता था। यानी कि माघ में ही फागुन का रंग। बनारस के लोककवि चंद्रशेखर मिश्र जी की प्रसिद्ध कविता है…जिसमें प्रियतमा प्रण करती है कि यदि होली में हमारे ‘वो’ नहीं आए तो प्रकृति का ऋतु चक्र ही बदल कर रख दूँगी..।

होरी गई यदि कोरी हमारी,किसी को गुलाल उड़ाने न दूंगी।
कैद कराऊंगी मंजरि को,
ढप ढोल पै थाप लगाने न दूंगी।।
फूलने न दूंगी नहीं सरसो तुम्हें,
कोयल कूक लगाने न दूंगी।
बांध के रखूंगी माघ सिवान में,
गांव में फागुन आने न दूंगी ।।

वसंत से प्रकृति में मादकता छाने लगती है। होली तक चरमोत्कर्ष में पहुंच जाती है। दूसरे दिन घुरेड़ी में रंग अबीर के साथ गाया जाने वाला फाग प्रेम का प्रकटीकरण है।

वर्ष भर जो आकांक्षाएं दिल के किसी कोने में दबी सुरसुराती रहती हैं वो इस दिन किसी रस्सी बम सी फट पड़ती थीं। अब तो वाँट्सेप का जमाना है। सीधे दिल चिन्ह वाली बटन दबाया और सट् से पहुँचा। पहले साल भर इंतजार रहता था फगुआ का।

घुरेड़ी के बाद जोश ठंडा पड़ने लगता है। ग्यानचक्षु खुल जाते हैं। फागुन बुढाने लगता है। और होली के बाद जो मंगल पड़ता है वह बुढ़वा मंगल हो जाता है। लोकपर्व किसी वेद पुराण से अनुशासित नहीं होते उसकी संहिता समाज ही बनाता है और उसके मायने भी बताता है।

हमारे इलाके में लोकभाषा के यशस्वी कवि हैं अमोल बटरोही बुढ़वा मंगल के मायने बताते हैं। वे कहते हैं दरअसल रंग-फाग-मस्ती में युवाओं का कब्जा रहता है सो एक दिन हम बूढों की मस्ती के लिए भी। बुढवा मंगल इसीलिए।

वैसे यह दिन बजरंगबली को समर्पित होता है। बजरंगबली जाग्रत लोक देवता हैं। गरीब-गुरबों के भगवान। उत्तर भारत में इस दिन हनुमानजी के साथ रंग खेला जाता है। फाग भी भजन की तरह होती है। बजरंगबली की महिमा का वर्णन, खासतौर पर लंकाकांड से जुड़े ढेरों फाग हैं। एक फाग की कुछ पंक्तियां याद हैं कँह पाए महवीरा मुदरी कहँ पाए महबीरा लाल…, या अंगद अलबेला लंका लड़ैं अकेला।

फाग की ध्वनि विप्लवी होती है। नगड़िया की गड़गडाहट युद्ध के उद्घोष होता सा लगता है। बुढ़वा मंगल को हनुमानजी की बडवाग्नि के साथ भी जोड़ते हैं। लोकश्रुति है कि बजरंगबली ने इसी दिन अपनी पूछ में बडवाग्नि प्रज्वलित की थी उसी से लंकादहन किया। पहले इसे बड़वा मंगल कहते थे..जो बाद में बुढ़वा हो गया।

जैसे बजरंगबली के जन्मदिन कई हैं वैसे ही बुढवा मंगल भी कई। कुछ शास्त्री लोग भाद्रपद के अंतिम मंगल को भी बुढ़वा मंगल कहते हैं। गोरक्षपीठ गोरखपुर में मकर संक्रांति के बाद के मंगल को बुढवा मंगल कहते हैं।

हमारे लोकजीवन में स्वीकार्यता के लिए गजब की गुंजाइश है। जैसे दीपावली के बाद की दूज को भैय्या दूज मानते हैं वैसे ही होली की बाद के दूज को भी भैय्या दूज ही कहते हैं। इस दिन भाई-बहन एक दूसरे को गुलाल लगाते हैं और उम्र तथा रिश्ते के हिसाब से एक दूसरे का आशीर्वाद लेते हैं।

बुढ़वा मंगल के दिन भी बड़े बुजुर्गों के चरणोंमें गुलाल लगाकर वर्ष भर के लिए आशीष सहेजते हैं। तब हम बच्चे जाति-पाँति से ऊपर गांव के सभी बड़े बुजुर्गों के चरणों में अबीर लगाकर कहते थे..अइसन काका सब दिन मिलैं, अइसन बाबा सब दिन मिलैं..। वो आशीष देते कि अइसन नाती जुग-जुग जियै..। गांव के जिन बुजुर्गों के पाँव छूने के रिश्ते नहीं थे उन्हें भी अबीर भेंटकर रिश्तों की दुहाई के साथ मंगलकामना करते थे।

पंजाब में भी पाँव में अबीर लगाकर आशीर्वाद लेने की परंपरा है। सो बुढ़वा मंगल को इस दृष्टि से भी हम देखते हैं।

रंगपंचमी और बुढवा मंगल ऐसे ही हैं जैसे कि अनुष्ठान का समापन। इस नए जमाने में इसे फागुन के रंगपर्व का वैसे सी बीटिंग रिट्रीट कह सकते हैं जैसे कि राजपथ में गणतंत्र दिवस का होता है।

लेखक – जयराम शुक्ल