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अफगानिस्तान: मुस्लिमों का नरसंहार

अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हुये तालिबानी तीन सप्ताह से अधिक समय व्यतीत हो जाने के बाद भी अपनी सरकार गठित नहीं कर सके हैं।

अफगानि स्तान की सत्ता पर तालिबान की वापिसी को विश्व में अच्छे संकेतों के रूप में नहीं लिया जा रहा। कट्टरता के प्रसार के खतरे को कोई नजर अंदाज नहीं कर सकता। भले ही तालिबान द्वारा अपने रवैये के बदलाव का आश्वासन दे दिया जा चुका हो। तालिबान ने जिस तरह चीन को अपना मुख्य साझेदार बतलाया है, उससे शंकायें कम नहीं , बल्कि बढ़ेंगी ही। तालिबान दुनियाभर के देशों के साथ सम्बंध तो बनाना चाहता है, लेकिन उस पर भरोसा करेगा कौन?

सन् 1996 में मुल्ला उमर के नेतृत्व में सरकार का गठन किया था, तब भी पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को छोड़कर किसी देश ने उसे मान्यता नहीं दी थी। आतंक के बल पर सत्ता प्राप्त कर लेना एक बात है, विश्वास प्राप्त कर लेना दूसरी बात है।

India will increase pressure on Taliban over terrorism in Afghanistan -  India Hindi News - चुपचाप नहीं बैठा है भारत, तालिबान की हर फितरत से है  वाकिफ, अफगान संकट पर पर्दे के

तालिबान के सन् 2001 तक भारत के अफगानिस्तान से सम्बंध नहीं रहे। भारत का अनुभव भी अच्छा नहीं रहा। एक तो भारत के प्रति सद्भावना बनाये रखने के उत्सुक तत्कालीन राष्ट्रपति नजीबुल्ला को गोली मार कर मार डालने के उपरांत चैराहे पर लटका देने जैसा वीभत्स कृत्य  किया गया था, एक अन्य घटनाक्रम में 24 दिसम्बर 1999 को भारत के यात्री विमान को जिस तरह से अपहरण करके कंधार ले जाया गया था, वह भी सीधे -सीधे भारत को चुनौती देने वाला कृत्य था। इसके अलावा वर्तमान में भी तालिबान के एक बड़े नेता द्वारा कश्मीर मामले पर दखल न देने की बात कही थी, लेकिन बाद में उसके एक प्रवक्ता द्वारा घोषणा कर दी गयी कि उनका संगठन कश्मीर समेत विश्व भर के मुसलमानों के अधिकारों के प्रति अपनी आवाज उठाता रहेगा।

तालिबानियों का यह बदलता रूख भारत के लिये चिन्ता का विषय तो बना ही रहेगा क्योंकि इस तथ्य से दुनिया के देश अवगत हैं ही कि तालिबान को पाकिस्तान से प्रोत्साहन, समर्थन और संरक्षण लगातार मिलता रहा है और चीन का भी वह चहेता बना हुआ है।

इस प्रकार चीन- पाकिस्तान और तालिबान का गठजोड़ भारत की चिन्ता बढ़ा सकता है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। इसके अलावा यह तथ्य भी सर्व विदित है कि तालिबान के साथ कुख्यात आतंकी संगठन आई.एस. जैस-ए- मुहम्मद, लश्करे-तौयबा के साथ साँठ-गाँठ बनी हुयी है, जिनका मुख्य उद्देश्य ही भारत को क्षति पहुँचाना है। ऐसा सम्भव भी नहीं है कि तालिबानी सत्ता इन आतंकियों को संरक्षण न दें।

यद्यपि यह भी सच है कि विश्व में ऐसे अनेक मुस्लिम देश हैं, जिसमें तालिबानियों जैसी सोच की झलक नहीं मिलती। विश्व के लिये तालिबानी कद्दरता चिन्ता का विषय तो बनी ही रहना है। पूर्व के क्रिया कलापों को देखते हुये सहज ही विश्वास नहीं किया जा सकता। कट्टरता के रूख में तब्दीली आये बिना उस पर भरोसा करना खतरनाक साबित हो सकता है।

नयी सरकार को लेकर गठन की प्रक्रिया में तीन सप्ताहों से चल रही अहा-पोह की स्थिति अभी जस की तस बनी हुयी है। इस बारे में अभी तक कोई खुलासा नहीं हो सका है।

सरकार गठन के पहले वहाँ महिलाओं द्वारा किया जा रहा विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गया है। इन्हें तालिबानियों ने आंसू गैस के गोले छोड़कर तितर-बितर करने की कोशिश भी की। एक महिला पर बंदूक की बट से हमला भी किया गया। महिलाओं की माँग है कि सरकार में उनकी भागीदारी होनी चाहिये और अहं भूमिका मिलनी चाहिये।

अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे के पीछे भी पाकिस्तान का हाथ होने के आरोप तो प्रारम्भ से ही लगते चले आ रहे हैं। इसी बीच पाकिस्तान खुफिया एजेन्सी के चीफ लेफ्टीनेंट जनरल फैज हमीद ने काबिल पहुँच कर तालिबानी हुकूमत से संबंधितों से चर्चा की। सन् 2001 में अमरीकी गठबंधन ने जब तालिबान को खदेड़ा था, तब आई.एस.आई. ने पाकिस्तान में उसे शरण दी थी और हथियार भी उपलब्ध कराये थे।

अफगानिस्तान में एक और भयंकर आपदा की स्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिसकी तरफ लोगों का ध्यान अभी नहीं गया है। वह संकट है, अफगानिस्तान में अकाल जैसी स्थिति का उत्पन्न हो जाना। इससे पहले कोविड-19 के खतरे से वह पहले से ही जूझ रहा था।

अफगान पर तालिबानी कब्जे के बाद से अमरीका और अन्य देशों द्वारा दी जा रही सहायता पर भी रोक लगी है। इस तथ्य से बहुत कम लोग अवगत है कि चार करोड़ के आस-पास की आबादी वाला यह देश अत्यन्त गरीब देशों में से एक है। यहाँ पर तीन में से एक व्यक्ति भुखमरी का शिकार है, ऐसे लोगों की संख्या डेढ़ करोड़ के आसपास भी हो सकती है। बीस लाख बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, जिन्हें तत्काल चिकित्सा व्यवस्था की आवश्यकता है। विस्थापितों की संख्या भी चालीस लाख को पार कर चुकी होगी।

असल प्रश्न को कोई समझना नहीं चाहता। अफगानी क्यों भाग रहे हैं? क्या वे इस्लाम के मानने वाले नहीं हैं? तालिबानी विशुद्ध जिहादी हैं, वे अमेरिका से सहयोग करने वाले अफगान लोगों को इस्लाम विरोधी मानते हैं, इसलिये मार डालना चाहते हैं। तालिबान याने देववंद मदरसों से शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र- विद्यार्थी। इन्हें भी वही सीख दी जाती है, जिस पर दुनियाभर के इस्लामी शासक पिछले 14 सौ वर्षों से चल कर क्रूरतापूर्ण अत्याचार करते रहे हैं। तालिबानी हिंसक नागरिक फौज है, जिसने जबरन, ताकत के बलपर सत्ता हथियायी है। यह सत्ता परिवर्तन बंदूक की नोंक पर लाया गया है। इनके इस्लामिक अत्याचारों   से इस्लाम के मानने वाले ही प्रताड़ित हो रहे हैं।

मजेदार बात यह है कि विश्व की बड़ी शक्तियाँ अमेरिका रूस और चीन इन आतंकी ताकतों की मददगार रही हैं। ये शक्तियाँ विश्व मंच पर आतंकवाद का सफाया करने का संकल्प भी होती है।

तालिबान का लक्ष्य मजहबी शासन की स्थापना है। चीन की रणनीति कुछ अलग है। वह पाकिस्तान के माध्यम से अपने शिजियांग प्रान्त में उईगर मुसलमानों के कारण उत्पन्न खतरे को कम करना चाहता है। चीन में आन्दोलित उईगर मुसलमानों पर भारी अत्याचार हो रहा है, उस पर न पाकिस्तान, न ही अफगानिस्तान के, न भारत के मुसलमान अपनी जवान खोलते हैं। उस मामले में विश्व के मुस्लिम देश भी चुप्पी साधे हुये हैं। इतना ही नहीं वे उईगर मुसलमानों के पक्ष की बजाय चीन का ही समर्थन करते नजर आ रहा हैं। सऊदी अरब जैसे देश की चुप्पी भी समझ के बाहर है।

तालिबानी भी मुसलमान है, क्या वे अपनी चुप्पी तोड़ने का साहस दिखला सकते हैं? इसी प्रकार अफगान बच्चे हिन्दू कुश की तलहरी में बिखरे हुये कचड़े के ढेर में अपनी जिन्दगी तलाश रहे हैं।  इन तमाम दयनीय स्थितियों के बावजूद तालिबान द्वारा एक नयी पटकथा लिखना घोर आश्चर्य प्रकट करता है।

तालिबान की चाहत अफगान समस्या का समाधान तो है ही। अमेरिका ने उसे दोहा में अंतर्राष्ट्रीय मान्यता दे दी है। तालिबान को अफगानिस्तान में अलकायदा और इस्लामिक स्टेट के बिखरे आतंकी संगठनों का गठजोड़ बनाने का सुनहला अवसर भी हाथ लग गया है। ये तो विश्व शक्तियों को तय करना है कि आने वाले समय में संभावित आतंकी खतरों से उसे कैसे निपटना है? अफगानिस्तान का भविष्य आगे क्या होगा? यह चिन्तन का विषय बना रहेगा। यही कारण है कि प्रत्येक अफगान डरा हुआ है। चीन स्वयं  आशंका संग्रस्त है कि  यह अफगानि स्तान आतंकी ताकतों के हाथों चला गया, तो इस क्षेत्र में चीनी हित किस हद तक प्रभावित होंगे-कहना मुश्किल है। उसकी  महत्वाकाँक्षी योजना बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट में उसकी साँसें अटकी हुयी हैं।

आतंकवाद को खाद- पानी देने का काम तो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और रूस द्वारा ही किया गया। सन् 1980 के दशक में अमेरिका ने मुजाहिदों को अरबों डालर देकर ताकतवर बनाया और मुजाहिद आंतकवाद का दुष्प्रभाव भी झेला।

अब ऐसा ही कुछ तालिबान को मान्यता और मदद के बहाने होने जा रहा है। अब और कितना विध्वंश देखना है- यह तो समय ही बतलायेगा।

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फिलहाल अफगानिस्तान में सरकार नाम की कोई व्यवस्थात्मक सत्ता नही है। चैतरफा संकटों से घिरे अफगानियों की कोई आशा की किरण भी नजर नहीं आ रही। राजनीतिक परिणाम क्या होंगे, फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता।

सरकार में हिस्सेदारी को लेकर तालिबान के विभिन्न गुटों में संघर्ष छिड़ा हुआ है। सूत्रों के अुनसार गत शुक्रवार को तालिबान और हक्कानी नेटवर्क के बीच गोली तक चल गयी  जिसमें तालिबान के सरकार के मुखिया बताये जाने वाले मुल्ला अब्दुलगनी के घायन हो जाने की खबर है।

एक अन्य खबर के मुताबिक पंजशीर में कब्जे को लेकर चल रहे संघर्ष में 1000 तालिबानों को मार दिये जाने की खबर सूत्रों ने दी है। अमेरिकी जनरल मार्क ने एक खतरनाक टिप्पणी कर एक प्रकार से चैंका ही दिया है कि जो हालात निर्मित हुये हैं, गृह युद्ध जैसी सम्भावना को एकदम नकारा नहीं जा सकता।

 लेखक:- डाॅ. किशन कछवाहा