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पश्चिमी संस्कृति ने हमें क्या दिया ? हम क्या थे ? क्या से क्या हो गए/3

आज विज्ञान के नाम पे हमने एक ‘असुर’ को पाल लिया है। जो सुख कम व दुख अधिक देता है। एक फायदा दिखता है तो साथ में दूसरा साइड इफेक्ट भी मिलता है। गाड़ी/बाइक की सुविधा तो मिली किंतु परिश्रम हीनता से बीमारियों ने हमें घेर लिया।

आज भोजन पचाने के लिए चलना पड़ता है। 1960 के दशक में 80 फ़ीसदी लोग पैदल चलते थे किसी को कैंसर ,हार्टअटैक कभी नहीं होता था किंतु आज लगभग मात्र 10-12 फीसदी लोग ही पैदल चला करते हैं। हम मशीनों के पराधीन अर्थात गुलाम होते चले गए।

अब मोबाइल , कंप्यूटर का जमाना है किंतु हमने कभी ठीक से निष्पक्ष मूल्यांकन नहीं किया कि इसके फायदे कम व नुकसान अधिक है। व्यक्ति युवा निठल्ला सा बनता जा रहा है। 8 से 10 घंटे वह मोबाइल में बिता रहा, लगा रहता है। आंखें नष्ट होती जा रही हैं। चैन समाप्त है ,साइबर क्राइम बढ़ रहा है। बैलेंस व कवरेज ना होने पर टेंशन हो जाता है।

पहले बच्चों को खर्च करने एक ₹2 मिला करता था तो वह दुकान पर जाकर गोली बिस्कुट खा लिया करते थे किंतु आज जबरदस्ती घर से मां बाप से सौ ₹200 बैलेंस डलवाने हेतु लिए जाते हैं। काम क्या है बात करेंगे। बच्चों का खेल कूद , शारीरिक व्यायाम सब खत्म हो चला है। किसी काम के लिए माँ कहती हैं तो बच्चा झलला जाता है और बोलता है कि – “अभी मैं मोबाइल चला रहा हूं” मोबाइल से अपराधों में बेतहाशा वृद्धि हुई है।

घरों में लगने वाली AC ने हमारी जीवनी शक्ति को कमजोर किया है। शरीर की छमता, अनुकूलन की शक्ति घटती जा रही है। टीवी के गंदे चित्र, कामुक फिल्मो से परिवार बिगड़ रहे हैं। इसमें नकारात्मकता अधिक मात्रा में परोसी जा रही है। धर्मा-अधर्म का, नैतिकता, संस्कारों का कोई विचार ही नहीं है। सब व्यापार बनता चला जा रहा है।

पहले कपड़े महिलाएं पुरुष हाथ से धोया करते थे। थोड़ा परिश्रम हुआ करता था व शरीर स्वस्थ रहता था। आज वाशिंग मशीन ने वह सब चौपट कर दिया है। अब तो रोटी भी मशीन से बनने लगी हैं। फल, केले, आम, पपीते भी अप्राकृतिक ढंग से कार्रवाईड से पकाये जा रहे हैं। जिसमें वह तत्व भी नहीं बचा है। स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड रहा है । हर जगह कृतिमता सवार है।

बाजार में जो दूध पीने वाला बिकता है उसमें भी अधिकांश जगह मलाई नकली हुआ करती है। घी, खोवा, मसाले, तेल में सब मिलावट है। रिफाइंड आयल हार्ट अटैक की बड़ी वजह है। फास्ट फूड कैंसर का कारक है। एलोपैथी के बड़े साइड इफेक्ट्स हैं।

हमने आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा को तो छोड़ दिया है। यदि मनुष्य थोड़ा श्रम करें, भारतीय पद्धति से भोर में जग कर थोड़ा योग करें और पाँच बिष का त्याग कर दे- बाजारु नमक, शक्कर, मैदा, डालडा ,रिफाइंड तेल साथ में फ्रीज व ऐसी। बड़ी मात्रा में सुखी हो सकता है।

डॉक्टरों को दिया जाने वाला लाखों रुपया व अमूल्य शरीर बच सकता है। हंसता-खिलता 100 वर्ष का जीवन जिया जा सकता है। किंतु इसके लिए विधेआत्मक चिंतन व व्यवहार परम आवश्यक है।
पहले हम खटिया, तखत व निवार के बुने हुए पलंग/पलका पर सोया करते थे। आज इनका स्थान बेड ,पलंग डनलप के गद्देदार वैभवशाली पलंगों ने ले लिया है । खटिया व तखत पर सोने से मसाज, एक्यूप्रेशर मुफ्त में हुआ करता था किंतु आज बेड पर सो कर सब बैड हो गया है। बीमारियां बढ़ रही हैं।

पहले हम गांव में मिट्टी के बने मकानों में रहते थे। जो खपरैल वाले होते थे। लकड़ी की पटोहा (लेयर हिट रोधक) पर होती थी। बरसात में मिटटी की भीनी-भीनी खुशबू आती थी जो स्वास्थ्यवर्धक होती थी। ठंडी व गर्मी का अनुभव ही नहीं होता था। मानव मानो वातानुकूलित हो किंतु आज तो बंगलो, अपार्टमेंट, फ्लैट का जमाना है। फ्लैट में आकर सब कुछ फ्लट हो गया है। अपार्टमेंट में ऊपर व नीचे कौन रहता है। किसी को कोई मतलब नहीं बस एकाकी, स्वार्थी जीवन हो गया है। ‘वसुदेव कुटुंबकम’ सब किताबी बातें लगती हैं। बाजार अब माल हो गए हैं। जिनमें लखपति करोड़पति ही जाया करते हैं और फैशन के नाम पर लुट कर आते हैं।

आज पत्नी Wife और पति Husband बन गया है। मामा-मामी ,चाचा-चाची, अंकल व अंटी बन गए हैं। नारी Lady हो गई है। संशकृती culture कहाने लगी है। धर्म अब Religion हो गया है। बच्चे अब मां बाप से हेलो ! हाय! डैड, हाय मॉम !! मम्मी कहने लगे हैं।

राम राम व सीता राम, नमस्कार अब यत्र-तत्र, यदा-कदा ही सुनाई देता है। बच्चों में संस्कारों के नाम पर वेस्टर्न कल्चर का “हैप्पी बर्थडे टू यू” व “हैप्पी न्यू ईयर” मात्र दिखाई देता है। सिर पर चोटी ,कंधे पर जनेऊ और माथे पर टीका बहुत कम दिखाई देता है। फैशन के नाम पर अजीबोगरीब पद्धति से कटे हुये बाल (केस) देखे जा सकते हैं। बच्चों को सिर पर चोटी रखने में अब शर्म आती है। कहा भी गया है “ठाड़े मूते-आड़े खाए ” की फैशन/परंपरा से चल पड़ी है।

बच्चे अब चरण स्पर्श कम ही करते हैं और करते भी हैं तो वह स्पर्श घुटने को करते हैं। जूते पहनकर रसोई घर में घुसने, जुते पहनकर खड़े -खड़े खाना अब आम बात है। बेशर्मी की पराकाष्ठा है। शादी-विवाह Marriage बन गई है। जो कभी भारतीय संस्कृति में सात जन्मों का दो आत्माओं का बंधन हुआ करता था। वह अब कोर्ट में कागज पर हस्ताक्षर करके होने लगे हैं। हमने गंदगी की, मच्छर पैदा किए। हमने बेतहाशा पैसा कमाया बाद में डॉक्टर के यहां गवाया। ऐसा लगता है कि हमने कुछ अधिक ही प्रगति कर ली है ।

अंतत: यही कहा जा सकता है कि हम पश्चिमी संस्कृति के मकड़जाल में फंसकर अंधी दौड़ में दौड़ते रहे। कभी अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया, बस अंधानुकरण करते रहे और दुर्गति, विनाश, अशांति, दुख, असंतोष, तनाव (stress) को प्राप्त हो गए। अब कोई चारा/विकल्प बचा नहीं है तो कराह रहे हैं, कोस रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, बचाओ !! बचाओ !! हमारा नैतिक, वौधिक, आध्यात्मिक पतन हो गया है। जमीन पैर के नीचे से खिसक गई है। भूडोल होने लगा है।

हमने अनैतिक, अप्राकृतिक आचरण करके वनों की अंधाधुंध कटाई करके, प्रकृति का दोहन करके, ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक तापमान) में वृद्धि की, ओजोन परत में छेद करके वैश्विक संकट खड़ा कर दिया। आज दुनिया में हथियारों की होड़ लगी हुई है। दुनिया को तीन बार पूर्णरूप से नष्ट किया जा सकता है इतने अणु-परमाणु बम, मिसाइल, युद्ध अस्त्र-शास्त्र बनाकर रखे हुए हैं।

हमने प्रगति तो की किंतु सृजन के लिए नहीं ध्वंस के लिए की। विकास की दिशा नकारात्मक रही, चिंतन विश्वकल्याण ‘वसुदेव कुटुंबकम’ ना होकर स्वार्थ-संकीर्णता, एकांकी ,प्रभाव जमाने का ,बास बनने का, सबसे श्रेष्ठ दिखने का, वर्चस्व कायम करने का रहा। उसका परिणाम सामूहिक विनाश के रूप में हम सभी के सामने है। हम संतुलित विकास नहीं कर पाए।

भारतीय संस्कृति -देव संस्कृति जो नर को नारायण बनाने वाली है, को छोड़कर हम पश्चिमी- पशु संस्कृति के जाल में फंस गए। अब मिमिया रहे हैं ,दम घुट रहा है, रो रहे हैं, दुर्गति करा ली हमने, अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली, अभी भी वापस लौट आएं तो फिर वही कहावत चरितार्थ हो सकती है कि- “सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते” अरे भाई जब जागे तभी सवेरा।

युगऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने कहा भी है कि – “मनुष्य अपने भाग्य व दुर्भाग्य का निर्माता स्वयं ही है, जो कुछ भी अच्छा या बुरा है वह हमारे पिछले कर्मों का ही परिणाम है। अतः मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं उनका निर्माता व नियंत्रण करता स्वयं ही है।”

मनुष्य बिगड़ गया, दुर्बुद्धि का शिकार हो गया और उसने परमात्मा के इस विस्व उद्यान को नष्ट- भ्रष्ट, चौपट कर दिया क्योंकि अंतः करण मे जैसे भाव संस्कार होते हैं वैसा मस्तिष्क में चिंतन पैदा होता है और जैसा चिंतन वैसे कर्म (क्रिया) होते हैं । अर्थात ‘जैसी दृष्टि-वैसी सृष्टि’ व ‘जैसी मति-वैसी गति ‘।

विधेआत्मक चिंतन, आध्यात्मिक चिंतन,’तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ ‘आत्मवत सर्व भूतेषू’ ‘वसुधैव कुटुंबकम’ भारतीय संस्कृति के आदर्शों पर चलकर ही वर्तमान संकट से निजात पाई जा सकती है, समाधान मिल सकता है। दूसरा कोई उपाय/विकल्प नहीं है। हम वेदों की ओर, ज्ञान की ओर लौटें, Back to vedas भारतीय संस्कृति की ओर लौटें ऋषियों के बताए हुए मार्ग पर चलें, स्वदेशी अपनाएं ‘स्व’ पर गर्व करें, पर अनुकरण कतई ना करें फिर आप स्वयं अनुभूति करेंगे कि अपना भारतवर्ष द्रुतगति से विश्वगुरु-जगतगुरु, विश्व का मार्गदर्शक बन्ने कि राह पर बढ़ता चला जाएगा और अब यही भारत की नियति भी है अतः अपना धर्म (कर्तव्य) पहचाने और उसका पालन करें।

लेखक:- डॉ. नितिन सहारिया