Trending Now

पश्चिमी संस्कृति ने हमें क्या दिया ? हम क्या थे ? क्या से क्या हो गए/2

आज से लगभग चार दशक पहले प्लास्टिक आया। हम बेतहाशा उपयोग करते चले गए। बिना परिणाम की चिंता किए बगैर। आज वह  भविष्य के लिए सिर दर्द बना हुआ है।

पॉलिथीन को जलाओ तो पर्यावरण नष्ट होता, बहाओ तो नदी नष्ट , मिट्टी खेत में गाड़ा तो उर्वरता नष्ट। प्लास्टिक बॉटल , डिब्बे में गर्म पदार्थ रखने से कैंसर का खतरा बढ़ता है। हमने बिना विचार किए पश्चिम की नकल की। परिणाम विनाश के रूप में सामने है।

हमने जल को प्रदूषित किया, वायु को प्रदूषित किया, अन्न को प्रदूषित किया, मिट्टी को प्रदूषित किया। हमने जल-थल, अनाज, वृक्ष- वनस्पति, नदी -पहाड़ कुछ भी तो नहीं छोड़ा। सब कुछ प्रदूषित कर डाला।

Exclusion of farm tractors from category of 'non-transport vehicles' will hit farmers: Swaraj India - The Hindu BusinessLineजब किसान हल से खेत जोतता था और उसका स्थान ट्रैक्टर ने ले लिया, ट्रैक्टर से खेत जोतने पर मिट्टी दबती है। केचूए इत्यादि जीव जो मिट्टी को पोला/भुरभुरी बनाते थे वह मरते हैं। मिट्टी की गुणवत्ता खत्म होती जा रही है। किसान हल चलाने से पसीने से तरबतर हो जाता था, शरीर स्वस्थ रहता था।

उत्पादन की गुणवत्ता घटी व पैदावार बढ़ी। थ्रेसर, हार्वेस्टर, कल्टीवेटर के आ जाने से, मजदूरों को काम मिलना बंद हो गया परिणाम स्वरूप वह दर-बदर देश के अन्य प्रदेशों में मजदूरी के लिए भटकने लगे। जरा ठीक से विचार करें पश्चिम ने हमें क्या दिया?

पहले हम ब्रह्म मुहूर्त में 4 या 5 बजे जागते थे। प्रार्थना, पृथ्वी माता को प्रणाम, बड़े-बूढ़ों को प्रणाम किया करते थे, प्रभु स्मरण करके अपने काम पर, अल्पाहार करके निकल जाया करते थे। हिंदू आज पश्चिमी चका-चौन्ध, दिनचर्या में पड़कर, देर रात तक टीवी देखते हुए सोते हैं परिणाम स्वरूप सुबह देर से 9-10 बजे तक जगते हैं, उठ कर बैड टी चाय-कॉफी पीते हैं, अखबार पढ़ कर शौच जाते हैं।

करीब 10-11 बजे ब्रेकफास्ट/अल्पाहार करते हैं फिर 12:00 बजे नहा कर अन्य कार्य करते हैं। भोजन 12-2 बजे तक करते हैं। तब भारतीय दिनचर्या के शेष कार्य छूट जाते हैं। ब्रह्म मुहूर्त निकल जाता है, उठ नहीं पाते, प्राणायाम-योग कर नहीं पाते। तब स्वास्थ्य खराब होना स्वाभाविक ही है।

सुबह प्राण वायू ग्रहण करने के समय हम सोते रहते हैं व स्वास्थ्य खोते रहते हैं। परिणाम स्वरूप अपच, कब्ज, अनिद्रा, मोटापा ब्लड प्रेशर, हार्ट अटैक इत्यादि बीमारियां शरीर में घर कर जाती हैं। असंतुलित, अनियमित, आभारतीय दिनचर्या इसके लिए जिम्मेदार है। जरा विचार करें यह मानव शरीर परमात्मा का अनुपम दिव्य उपहार है, इसे हम यू कोयले की तरह ना जलाएं, व्यर्थ ना गवाएं अन्यथा बाद में पछताना पड़ेगा।

इसलिए तुलसीदास महाराज ने कहा भी है की-

मानुष जन्म अमोल है, मिले न दूजी बार।
पक्का फल जो गिर गया, लगे न दूजी बार।।

 अरे बंधुओं !! यह मानव तन सुर-दुर्लभ है। इसे व्यर्थ न गवाओ, यह साधनों का धाम है ,मोक्ष का द्वार/अवसर है। इसको पहचानो,,, सदुपयोग करो। समय निकला जा रहा है। “साधन धाम मोक्ष का द्वारा”

पहले हम बचपन में बबूल, नीम की दातुन किया करते थे। दांत मजबूत होते थे 80-100 वर्ष तक मजबूत रहते थे। अब उसका स्थान प्लास्टिक ब्रश व कोलगेट/ पेस्ट ने ले लिया परिणाम स्वरूप जबड़ा -द्तोरी 40- 45 की उम्र आते-आते निपट जाती है, कमजोर हो जाती है, जड़ निकल आती है। दांत दर्द, दातों का टूटना, आज आम बात हो गई है। पैसा भी गया ,स्वास्थ्य भी गया, चेहरे की सुंदरता की गई। एक परिवार का कोलगेट का 50 से 80 वर्ष का औसत बजट 1 लाख 20,000 तक रहता है।

पहले हम साबुन की जगह मुल्तानी मिट्टी, बेसन, दही, चंदन का उपतन लगाकर स्नान किया करते थे। अब शैंपू, साबुन-सोडा की मार में त्वचा खुश्क, सूखी, बेजान हो चली है। बाल जल्दी झड़ने लगे हैं, केमिकल, साबुन व शैंपू में प्रयोग से। आई लाइनर, लिपस्टिक इत्यादि के प्रयोग के परिणाम हानिकारक साबित हो रहे हैं। स्प्रे-सेंट का प्रयोग मस्तिष्क, त्वचा व जेब के लिए हानिकारक है।

लुभावने विज्ञापन दिखाकर युवाओं को आकर्षित किया जाता है बड़े विभत्स तरीके से जीव हत्या करके यह स्प्रे की खुशबू बनाई जाती है। दक्षिण अफ्रीका में खरगोश को एक सप्ताह है भूखा रखकर, पिजड़े में रखकर तड़पा-तड़पा कर चिमटे से मारा जाता है। तब एक पदार्थ निकलता है चीरा लगाने से उस पदार्थ से चैनल तीन नाम की खुशबू बनती है। जो लगभग सभी स्प्रे व र्सेंट में मिलाई जाती है। मानव इतना निर्दयी पहले कभी नहीं  हुआ। अरे भाई प्रयोग ही करना है तो प्राकृतिक चंदन, केवड़ा, गुलाब, मोगरा का इत्र का प्रयोग करें ना। डूओड़रेंट त्वचा के लिए हानिकारक है। पाउडर भी प्राकृतिक चंदन ,गुलाब की खुशबू वाला ही प्रयोग करें।

वर्तमान में भारतीय समाज की वेशभूषा पर गौर करें तो पता चलता है कि हम काले अंग्रेज यानी अधकचरा हो गए हैं। धोती कुर्ता, साड़ी, पोलका/ब्लाउज, कंधे पर गमछा/दुपट्टा, साल, सिर पर पगड़ी/टोपी हमारी पुरातन वेशभूषा हुआ करती थी। किन्तु आज बच्चे जींस, टीशर्ट, शर्ट, शर्ट चिपके हुए, तंग कपड़े पहनते हैं। बच्चियां भी जींस, शर्ट टी शर्ट, तंग कपड़े या यन्हा-वन्हा कट लगे हुए पहनती हैं और अब तो फटी हुई जींस लड़के-लड़कियों के लिए फैशन के नाम पर आम बात हो गई है। ऐसा लगता है जैसे –

भारत को अमेरिका बनाने की प्रतिस्पर्धा चल रही है। किंतु कभी है ये भी विचार नहीं किया कि – अमेरिका में क्या है? अमेरिका पश्चिम जगत में आधुनिक विज्ञान Material science की चकाचौंध के अलावा अशांति, दुख, तनाव, अनिद्रा, कैंसर, टीवी, हार्टअटैक असामयिक मृत्यु, नाना प्रकार के कष्टों से भरा जीवन है। क्योंकि वहां संस्कार, धर्म, “जीवन जीने की कला”,आश्रम, वर्ण, यज्ञ, पुरुषार्थ, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग व ‘आत्मा के पुनर्जन्म’ की अवधारणा ही नहीं है। वहां समाज अज्ञान अंधकार के गहरे कूप में डूबा हुआ है। वे अपने आप को बंदर की औलाद जो मानते हैं। वहां तो अपने को शरीर मानने की अवधारणा है। पशु सभ्यता जो है -” ईट ड्रिंक  एंड वी मैरी “।

खाओ पियो- ऐश करो और मर जाओ। जीवन के बाद कुछ भी नहीं, ऐसा उनका मानना है । भारत में तो जीवन के पूर्व व बाद में भी बहुत कुछ है। भारतीय दर्शन में तो आत्मा नित्य, सनातन है ।

लेखक:- डॉ. नितिन सहारिया