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पाश्चात्य और भारतीय दर्शन का मौलिक भेद -डाॅ. किशन कछवाहा

स्वामी रामतीर्थ भारत के आध्यात्मिक क्षितिज में चमकते सितारे की तरह एक अद्भुत एवं दार्शनिक संत के रूप में विख्यात हुये। वे स्वामी विवेकानन्द से भी बहुत प्रभावित थे। वे आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद के प्रबल समर्थक माने जाते रहे हैं। उनकी दृष्टि में सारा संसार केवल एक आत्मा का ही खेल है।

जिस शक्ति को प्राप्त कर हम अपनी वाणी के माध्यम से बोलते हैं, उसी शक्ति से हमारा उदर खाये हुये अन्न का पाचन करता है। जो शक्ति एक शरीर में व्याप्त है, वही सब शरीरों में विद्यमान है। उनका मानना था कि सारा जीवन हम जिस आनन्द की खोज में भटकते रहते हैं, उस आनन्द का स्त्रोत तो हमारी आत्मा ही है, जो इसी शरीर में रहती है। इसे अंतरात्मा भी कहा जाता है। यही अंतरात्मा परमात्मा का अंश है।

भारतीय दर्शन एवं पश्चिमी दर्शन में एक मौलिक भेद स्पष्ट नजर आता है। पश्चिमी दर्शन इहलोक की सत्ता पर ही विश्वास रखता है, जबकि भारतीय दर्शन परलोक में भी अपनी आस्था रखता है, जहाँ व्यक्ति मृत्यु के उपरान्त भी आत्मा के अस्तित्व को मानता है। एक तथ्य और है,

भारतीय दर्शन - विकिपीडिया

जो भारतीय दर्शन को अन्यों से अलग प्रतीत होता है, वह है उसका व्यावहारिक स्वरूप, जिसके माध्यम से जीवन में महसूस होने वाली समस्याओं का समाधान खोजने में मदद मिलती है।
प्रत्येक व्यक्ति सुख की चाह तो रखता है, लेकिन उसे प्राप्त करने के लिये कोई प्रयास नहीं करना चाहता। आनन्द तो उसके पास ही है।

ईश्वर सत्, चित्, आनन्द स्वरूप है, उसे प्राप्त करके ही हम सुखी रह सकते हैं। हम ईश्वर को इन अपने चक्षुओं से देखना चाहते हैं। उसे तो ईश्वर द्वारा दी गयी विशेष आँख से ही देखा जा सकता है।

श्रीमद्भगवदगीता में कुरूक्षेत्र के युद्ध में अपना विराट स्वरूप देखने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विशेष दृष्टि प्रदान की थी। क्या कोई व्यक्ति आत्मा को शरीर से निकलते हुये देख पाया है? जब हम अपनी आत्मा को ही नहीं देख पाते तो ईश्वर को कैसे देख पायेंगे? जब जीवात्मा शुद्ध होकर परमात्म विषय पर चिन्तन करने लग जाता है, तब उसी समय दोनों के दिव्य दर्शन सम्भव हो जाते हैं।

इस पृथ्वी पर भारत ही एक मात्र ऐसा देश है, जहाँ पर क्षमा, धैर्य, दया, शुद्धता आदि सद्गुण न केवल व्यक्ति को सद्गति एवं शक्ति प्रदन करते हैं वरन् आध्यात्मिक दृष्टि देते हैं। इसीलिये इस पावन भूमि को। ‘‘स्वर्णादपि गरीयसी’’ तक कहा गया है। कर्मयोग की अत्यंत सुन्दर व्याख्या करने वाला ग्रंथ श्रीमद्भगवत्गीता है। उसमें उपदेश स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निःसृत अमृतवाणी से युक्त हैं, मानो हमारे मार्गदर्शन और कल्याण हेतु ही उन्हें, रचा गया प्रतीत होता है। कर्म होगा तो पाप भी होगा, पुण्य भी होगा।

जन्म और मृत्यु एक तार से गुंथे हुये हैं, जन्म मिला है, तो कर्म तो होंगे ही, कुछ कर्म बांधेंगे भी, उनके परिणाम सुख; दुःख के रूप में भोगना भी पडेंगे, यह श्रृंखला अनवरत चलती रहती है, फिर तलाश होती है, मुक्ति की। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी अपने यशस्वी, लोकप्रिय ग्रंथ

‘‘श्रीरामचरित मानस में बड़ी अमूल्य बात कही है,-‘मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला, तिन्ह ते पुनि उपजाहि बहु शूला।’’

श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के चालीसवें श्लोक में एक सरल एवं व्यावहारिक सूत्र भी दे दिया है, ‘‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायतोे महतो मयात्।’’ इस सांसारिक जीवन में राग और द्वेष होना ही विशेषता है। इसी से जन्म -मरण का बंधन होना बतलाया गया है। कर्म में आसक्ति का त्याग हो; इस सम्बंध में स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने एक बड़ा रोचक और अत्यन्त सरल शब्दों में अत्यन्त प्रभावी उदाहरण देकर जीवन को ही सरल बनाया दिया है। वे कहते हैं कि ‘‘कटहल को काटना है, तो सरसों का तेेल हाथों में लगाकर काटोगे तो, चिपकेगा नहीं।’’

श्रीमद्भगवद्गीता - विकिपीडिया

जो व्यक्ति इस वास्तविक तथ्य को समझ लेता है, वह नाशवान् वस्तुओं के प्रति अपने अनुचित मोह का परित्याग कर आत्मिक पवित्रता के लिये प्रयासरत हो जाता है। उसकी रूचि ईष्र्या, द्वेष, क्रोध आदि पतन की ओर ले जाने वाले तत्वों से दूर होने लगती है। फिर उसे सच्चा सुख और शान्ति देने वाले तत्व आकर्षक महसूस होने लगते हैं।

उसका साधना रथ ऊबड़- खाबड़ मार्ग से हटकर सरल-सीधे मार्ग पर चल पड़ता है। उसे वह सहानुभूति होने लगती है, जिसे उसने अपना चरम लक्ष्य बना रखा था। उसकी दृष्टि और सोच बदलने लगती है। वह जान लेता है-‘सब जग ईश्वर रूप है, भलो बुरो नहि कोय। जैसी जाकी भावना, तैसों ही फल होय।

लेखक:- डॉ. किशन कछवाहा