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मानवता का ठौर भारत ही है…..

नेहरू और जिन्ना से पहले यह देश कैसा था और भारत का विचार कैसा था, उस पर लम्बें आख्यान हो सकते हैं, किन्तु इसकी पुष्टि झलक स्वामी विवेकानन्द द्वारा अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद के सामने दिए भाषण में दिखती है।

स्वामी विवेकानन्द ने वहां कहा, ‘‘हम केवल वैश्विक सहिष्णुता में विश्वास रखते हैं, बल्कि सभी मत-पंथों को सच्चा मानते हैं। मुझे गर्व है कि मैं उस राष्ट्र का हिस्सा हूँ जिसने दुनियाभर के उत्पीड़ियों और शरणार्थियों को अपने यहां शरण दी है।’’

यदि नेहरूवादी इतिहास कारों के अनुसार भारत 1947 में बना तो 1893 में विवेकानन्द किस राष्ट्र की बात कर रहे हैं? जाहिर है, भारत कोई ऐसी चीज नहीं, जो 1947 में 15 अगस्त को ईस्ट इंडिया फैक्ट्री से बाहर आया। यह राष्ट्र तत्कालीन राजनेताओं, ब्रिटिश शासन या मुस्लिम आक्रांताओं से भी पहले दुनिया में अपनी छाप, पहचान रखता था।

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कथित बौद्धिक यदि भारत के इस अस्तित्व को समझ लें तो भारत की संकल्पना जैसी कोई पहेली ही नही बचेगी। कुछ लोगों को लगता है कि पहेली और बौद्धिकता का छद्म बचा रहेगा तो उस राजनीति की गुंजाइश बची रहेगी, जो अंग्रेज छोड़कर गए थे। यह बची-खुची चीज और कुछ नहीं अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो की राजनीति’ है।

भारत अब अंग्रेजों की राजनीति छोड़ रहा है। अपनी जड़ों की ओर लौट रहा है। कोई तुष्टीकरण नहीं! सबका साथ, सबका विकास! मूलमंत्र यही है। भाजपा की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की साझा शक्ति से नागरिकता संशोधन लोकसभा में जिस तरह इसके पक्ष में भारी मत पड़े, उससे पूरी दुनिया के सामने यह साफ हो गया है कि भारत को सबसे मुखर-अनूठा लोकतंत्र क्यों कहाजाता है और जनादेश की शक्ति की प्रबलता क्या-कैसी होती है।

संसद के दोनों सदनों में विधेयक पर चली चर्चा के दौरान एक समय यह बात भी उठी कि यह विधेयक ‘भारत की संकल्पना’ या ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के खांचे में बैठता है या नहीं। यह विषय दिलचस्प है! दरअसल,स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही ‘आडडिया ऑफ इंडिया’ को बौद्धिक दिखने की चाह पाले राजनेताओं ने ऐसी रूमानी काल्पनिक पहेली की तरह छाती से लगा रखा है जिसका जवाब उनके मुताबिक सिर्फ उन्हीं को पता है। वैसे, क्या है भारत का विचार?

किसी चीज को दुरूस्त करने, समय के अनुरूप ढ़ालने और न्यायपूण ढंग से चीजों को समायोजन करने की गुंजाइम  इस विचार में कितनी है? यदि नेहरूवादी राजनेताओं से पूछेंगे तो आपको कोई ऐसा जवाब मिल सकता है जो ऊपरी तौर पर गम्भीर किन्तु वास्तव में निरर्थक हो। हो सकता है इसमें सारी बात नेहरू जी की महानता पर आकर टिक जाए। किन्तु इतने से बात नहीं बनती।

अपनी खूबियों-कमजोरियों के साथ किसी राजनेता का राष्ट्र का पर्याय हो पाना असम्भव है। जो ऐसी परिभाषाएं गढ़ने की कोशिश करते हैं, वे किसी दिवंगत विभूति को बौना बनाने के साथ ही अपनी समझ की क्षुद्र सीमाएं भी बताते हैं तथा परिहास के पात्र बनते हैं।

प्रख्यात इतिहास लेखक पैट्रिक फ्रेंच की नजर में नेहरू जी द्वारा लिखी ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में इतिहास जैसा कुछ नहीं, बल्कि इतिहास की रूमानी कल्पनाएं ज्यादा हैं। फिर ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ की सीढ़ी से ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ तक कैसे पहुंचेंगे? नेहरू जी से आगे बढ़िए.. भारतीय राजनीति के एक अन्य विराट पुरूष, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पंक्तियां हैं. जग के ठुकराए लोगों को, लो मेरे घर का द्वार खुला अपना सब कुछ मैं लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनागार। हिन्दू तन मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय।। यही तो है भारत की संकल्पना, ‘आइडिया ऑफ इंडिया’।

आक्रांताओं की लूट-चोट के बाद भी अटल-अक्षय भारत। जग की ठुकराई मानवता का ठौर भारत! कुछ को संतुष्ट करने की बजाय सबको पुष्ट करने का मंत्र देता भारत। तथ्यतः इतिहास यह है कि एक सांस्कृतिक राष्ट्र को, राजनैतिक दृष्टि से अंग्रेजों और पाकिस्तान के नफे के हिसाब से बांटने, नागरिको को उनकी जड़ों से काटने पर सहमत होने और इस काम के पूराहो जाने के बाद ही नेहरू और जिन्ना ने दोनों देशों की कमान सम्भाली।

वास्तव में भारत का विचार इसकी वह सांस्कृतिक शक्ति है, जो विभाजक रेखाओं को मिटाती है, समय पर उपजने वाली बुराइयों को दूर करने के लिए सुधारों को धार और स्वीकार्यता देती है। किसी अब्राहमिक सिमेटिक या ‘वाद’ में जो निष्ठुर कठोरता हो सकती है, उसे उलट भारत का विचार सही के स्वीकार और गलत के परिष्कार का विवेक रखता है।

भारत के इस वैचारिक अधिष्ठान से हटते ही पाकिस्तान ने सबसे पहले अपनी ‘हिन्दू’ विरासत पर चाकू चलाया। भारत में अल्पसंख्यक फले-फूले किन्तु पाकिस्तान में घटते-खपते गए। इंसान को मुसलमान और काफिर के खांचे में देखने के चलते पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के लिए त्रास का पर्याय बन गया।

पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान में हिन्दू कटेंगे, घटेंगे तो धर्म के नाम पर प्रताड़ित ये मनुष्य कहां जाएंगे? नया नागरिक कानून भारत की उसी अवधारणा को मजबूत करने वाला है जो इस भूमि का शाश्वत विचार है। यह ठीक वैसा काम है जिसका जिक्र स्वामी विवेकानन्द ने अपने भाषण में किया, अटल जी ने अपनी कविताओं में किया।

इस बात को भी समझा जाना चाहिऐ कि शरणार्थी और घुसपैठिये में बुनियादी अंतर होता है। हर घुसपैठिया, चाहे वह रोहिंग्या हो या बांग्लादेशी, मजहबी उद्देश्य लेकर आया हुआ है। इनसे देश की सुरक्षा को खतरा है। नागरिकता संशोधन कानून देश की एकता और अखण्डता को अक्षुण्य बनाये रखने की दिशा में अनिवार्य कदम है। इस कानून के बन जाने से भारत परायों सा जीवन जीते आ रहे इस्लामी देशों से सताये लाखों हिन्दू परिवारों को आशाओं का सम्बल मिला है।

73 वर्ष पहले उनके साथ एक आकस्मिक अन्याय हुआ था, जब लाखों-करोड़ों लोगों को उनकी अपनी ही धरती में पराया बना दिया गया था, जो सैंकड़ों पीढ़ियों से भारत में रहते आ रहे थे। उन्हें बताया गया कि अब वे पाकिस्तान में हैं। भारत में पंथ के आधार पर कभी भी भेदभाव नहीं किया गया। यहाँ का संविधान पंथ निरपेक्षता का ढिढौरा तो पीटता है लेकिन सत्यता यह है कि यहाँ का बहुसंख्यक समान अधिकार की माँग करता है। ऐसा भारत इकलौता देश है।

नागरिकता कानून का विरोध करने वाले विपक्षी दलों को क्या इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि मुस्लिम देशों गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों (हिन्दुओं) के साथ क्या और कैसा व्यवहार हो रहा है? उन्हें हिन्दू अल्पसंख्यकों से इतनी नफरत क्यों है? पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में मजहबी उन्मादियों द्वारा वहाँ बसे हुये गैर-मुस्लिमों को, जब-जब प्रताड़ित किया गया, तब वे लाख बाधाओं की परवाह किये बिना भारत ही आते हैं। ‘‘क्योंकि वे इस भारत को अपना मानते हैं।’’ उक्त देशों में षड़यंत्र के आधार पर उत्पीड़न किया जाता है, वे मुस्लिम बहुसंख्याक देश है।

साभार महाकौशल संदेश