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यूक्रेन संकट विस्तारवाद के नये दौर की शुरुवात : अगला कदम चीन उठाएगा -रवीन्द्र वाजपेयी

यूक्रेन विवाद शीतयुद्ध को पीछे छोड़कर अब युद्ध में तब्दील हो चुका है | रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन की हठधर्मिता से पूरी दुनिया विनाश की आशंका से ग्रसित है | द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका भोग चुका यूक्रेन एक बार फिर अपने दुर्भाग्य को ढोने बाध्य है | जो लोग ये सोचते हैं कि ये संकट अचानक उत्पन्न हुआ वे इतिहास से अनभिज्ञ हैं | दरअसल यूक्रेन ने रूस के वर्चस्व को कभी मन से स्वीकार नहीं किया |

1917 की बोल्शेविक क्रांति के बाद रूस में जारशाही तो समाप्त हो गई किन्तु साम्यवादी साम्राज्य का नया दौर शुरू हुआ | जिसके अंतर्गत उसने अपनी सीमाओं को विस्तार देते हुए मध्य एशिया सहित निकटवर्ती तमाम छोटे-छोटे देशों को सैन्यबल से कब्जे में ले लिया | लेकिन उस समय भी यूक्रेन ने अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखा जो साम्यवादी क्रांति का नेतृत्व करने वाले लेनिन को नागवार गुजरा और 1920 में रूस की सेनाओं ने इस देश पर बलात कब्जा कर उसे सोवियत संघ का हिस्सा बना लिया, जिसे उपनिवेश कहना गलत न होगा | इस बारे में एक बात ध्यान रखने योग्य है कि सोवियत संघ कभी एक संगठित देश की पहिचान न पा सका और उसमें शामिल देशों ने अपनी सांस्कृतिक और क्षेत्रीय छवि बनाये रखी | लेकिन मास्को में बैठी साम्यवादी पार्टी की सर्वोच्च सत्ता में रूसी वर्चस्व सदैव कायम रहा | भले ही यूक्रेन में जन्मे निकिता क्रुश्चेव जैसे कुछ नेता अन्य देशों से रहे हों परन्तु कुल मिलाकर केन्द्रीय सत्ता रूस के हाथ ही रही | ऐसा नहीं है कि उसका विरोध न होता हो लेकिन इतिहास साक्षी है कि विरोध की हर आवाज को हमेशा के लिए बंद कर दिया गया |

जोसेफ़ स्टालिन: इंक़लाबी राजनीति से 'क्रूर तानाशाह' बनने का सफ़र | THE GYAN  GANGA
जोसेफ स्टालिन

जोसेफ स्टालिन द्वितीय युद्ध के समय सोवियत संघ के शासक थे | उस दौर में अनगिनत ऐसे लोगों को सायबेरिया के यातना शिविरों में भेज दिया गया जिन पर साम्यवादी तानाशाही का विरोध करने का शक था | सही कहें तो स्टालिन ने जितना अत्याचार किया वह हिटलर की तुलना में कम न था |

केजीबी नामक गुप्तचर एजेंसी आतंक और निरंकुशता का पर्याय बन गई थी | हालाँकि स्टालिन के बाद अनेक उदारवादी माने जाने वाले चेहरे भी सत्ता में आये लेकिन साम्यवाद में विरोध को सहन न करने की जो जन्मजात मानसिकता है वह बदस्तूर कायम रही | सबसे बड़ी बात ये रही कि दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ जैसे नारे के जरिये बहुराष्ट्रवाद की प्रवर्तक सोवियत सरकार रूस का वर्चस्व बनाये रखने की प्रवृत्ति को त्याग न सकी |

योजनाबद्ध तरीके से संघ में शामिल बाकी देशों के आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अपने हितों के लिए किये जाने के साथ ही रूसी भाषा बोलने वालों को योजनाबद्ध तरीके से उन देशों में बसाकर अपनी जड़ें मजबूत करने की दूरगामी कार्ययोजना अमल में लाई गई | हालाँकि इसके चलते अंतर्विरोध भी पनपते रहे, जिनका विस्फ़ोट 1991 में सामने आया | परिणामस्वरूप सोवियत संघ नामक कृत्रिम संरचना ध्वस्त होकर अनेक नए देश उभरकर आ गये | हालाँकि इसके पीछे अमेरिका का हाथ माना गया किन्तु मिखाइल गोर्वाचोव नामक जिस नेता ने सोवियत संघ के विघटन का रास्ता प्रशस्त किया वह साम्यवादी घुटन से निकलना चाहता था वरना उस व्यवस्था में परिंदा भी पर नहीं मार सकता वाली बात पूरी तरह से लागू होती थी | सही बात ये है कि पूंजीवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध खड़ा हुआ साम्यवाद जिस तरह निरंकुशता का प्रतीक बनता गया उसकी वजह से सोवियत संघ से जुड़े अनेक देश अलग होने आतुर हो उठे थे |

पूर्वी यूरोप के चेकोस्लोवाकिया नामक देश ने भी जब सत्तर के दशक में उसके प्रभाव से आजाद होने का साहस किया तो सोवियत फौजों ने वही किया जो आज यूक्रेन में देखने मिल रहा है | दरअसल पुतिन राष्ट्रपति बनने के पहले उसी कुख्यात केजीबी के मुखिया रहे जो विरोधियों के दमन में नृशंसता से परहेज नहीं करती थी | इसीलिए उन्होंने सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचते ही अपने विरोधियों को ठिकाने लगाकर जीवनपर्यंत शासन करते रहने की व्यवस्था लागू कर दी | लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा यहाँ जाकर भी थमी नहीं | जबसे वे क्रेमलिन में जमे तभी से रूसी प्रभुत्व की पुनर्स्थापना में जुटे हैं और यूक्रेन की आजादी उनके आँखों में खटकती रही | पुतिन चाहते हैं कि सोवियत संघ से अलग हुए देश अभी भी रूस की सर्वोच्चता को स्वीकार करते रहें | इसी सोच के अंतर्गत उन्होंने अनेक देशों में रूस समर्थक शासक बिठा रखे हैं |

यूक्रेन में भी काफी समय तक ऐसा रहा लेकिन ज्योंही उसने मास्को के इशारों की अनदेखी करते हुए अमेरिकी प्रभाव में जाने का इरादा जताया त्योंही रूस की त्यौरियां चढ़ गईं जिसका अंतिम परिणाम दुनिया देख रही है | इस कदम के जरिये पुतिन ने ये दिखाने की कोशिश की है कि दुनिया का एकमात्र शक्ति केंद्र वाशिंगटन को मान लेना गलत होगा | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि भले ही साम्यवाद रूस में न लौटे और सोवियत संघ जैसी व्यवस्था का पुनर्जन्म भी न हो किन्तु पुतिन के मन में समाई केजीबी प्रमुख की मानसिकता के कारण विस्तारवाद और निरंकुशता की साम्यवादी नीतियां नए रंग रूप में सामने आ रही हैं | चूंकि चीन भी अब आर्थिक उपनिवेशवाद रूपी हथियार का उपयोग करने पर आमादा है इसलिए उसने बिना देर लगाये पुतिन का समर्थन कर दिया | वैसे भी दोनों का वैचारिक और व्यवहारिक शत्रु समान ही है |

यूक्रेन संकट की परिणिति रूस समर्थक कठपुतली सरकार की स्थापना ही है | लेकिन बात यहीं तक रुकने वाली नहीं है | यदि विश्व जनमत इसी तरह असहाय रहकर मूकदर्शक बना रहा तो पुतिन अपनी मुहिम जारी रखेंगे क्योंकि आज जो देश अमेरिका के दबाव में रूस के विरुद्ध खड़े नजर आ रहे हैं वे ज्यादा दिनों तक अपने आर्थिक हितों को नजरंदाज करने की स्थिति में नहीं है | उससे भी बड़ा खतरा ये है कि पुतिन के इस कदम ने चीनी तानाशाह शी जिनपिंग का रास्ता भी साफ़ कर दिया है जो न सिर्फ ताईवान और जापान के कुछ द्वीपों को हड़पना चाह रहे हैं अपितु भूटान , नेपाल और मंगोलिया के कुछ इलाकों पर भी उनकी बुरी नजर बनी हुई है |

दक्षिण चीन के समुद्री क्षेत्र पर बलात कब्जे के साथ ही वियतनाम, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया भी उनके निशाने पर है | श्रीलंका के अर्थतंत्र को भी चीन ने तोड़कर रख दिया है | जिस तरह दूसरे महायुद्ध के बाद दुनिया में नई आर्थिक, भौगोलिक तथा कूटनीतिक संरचना देखने मिली , वैसा ही कुछ-कुछ कोरोना काल के बाद होता लग रहा है |

लेखक:- रवीन्द्र वाजपेयी