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कंजई ने बनाई नई पहचान : सीमा पर बसे गांव की सेवा के चर्चे यूपी-बिहार तक, बालाघाट की बार्डर का यह गांव बना अन्नपूर्णा बस्ती

कोरोना काल में सेवा की एक से एक मिसाल देखने को मिली। किसी ने मास्क बाटे तो कोई प्रवासी श्रमिकों के पैरो के लिये चप्पले बांटता देखा गया। कुछ जगह समाजसेवी संस्थाएं भी इस काम में आगे आयी, लेकिन जब कोई पूरा इलाका ही लोगों की सेवा में जुट जाये और उन से प्रेरणा लेकर आस-पास के 60 गांव भी प्रवासी श्रमिकों की भूख मिटाने में जुट जाये, और वह भी लगतार दो महिने तक तो फिर उस इलाके को नई पहचान मिलना लाजम़ी है।

हम बात कर रहे है कंजई बस्ती की जिसे अब प्रवासी मजदूर अन्नपूर्णा बस्ती भी कहते हैं, क्योकि इस बस्ती के सेवा कार्यो की चर्चा अब सिर्फ जिले या प्रदेश में ही नही बल्कि इस बार्डर से होकर गये यूपी, बिहार के प्रवासी श्रमिको तक में है।

बालाघाट से जबलपुर जाने वाले मार्ग पर जिले की सीमा इस ही गांव पर जाकर समाप्त होती हैं, जहां लॉकडाउन की शुरूआत के पहले ही हफ्ते में गांव के कुछ युवा और आरएसएस. से जुड़े संगठनो से जुड़े कुछ लोगो ने मिल कर प्रवासी श्रमिको को खाना देने का काम शुरू किया था।

लेकिन उनकी इस मुहिम ने देखते ही देखते बड़ा रूप ले लिया और इससे आस-पास के 60 गांवो की महिलाएं भी जुड़ गयी, जो कि आने वाले हर श्रमिको के लिये अपने घरो से रोटी बनाकर बार्डर के इस गांव भेजती थी जिससे इस मार्ग से गुजरने वाले हर एक प्रवासी की भूख मिट सके। विदित हो कि कंजई बार्डर पर 25 मार्च से लेकर 25 मई के बीच 80 हजार से अधिक प्रवासी श्रमिको को मुफ्त भोजन कराया गया।

हर श्रमिको को गर्म खाना और नाश्ता कराते थे युवा

22 मार्च को जनता कफ्र्यू, 24 मार्च से टोटल लॉक डाउन और फिर उसके बाद लगभग 2 महिने तक लॉकडाउन के दौरान बालाघाट जिले की कंजई एक ऐसी बार्डर थी जहां से पैदल या किसी भी साधन से गुजरने वाले हर एक प्रवासी की भूख मिटाने के लिये यहां की युवाओं की टोली तत्पर थी। आने वाले हर श्रमिक को यहां मेहमान मानकर खाना खिलाया जाता था। वह भी गर्मागर्म चाहे फिर श्रमिक के गुजरने का वक्त सुबह 5 बजे का हो या रात के दो बजे का। इसके लिये गांव के विभिन्न युवाओ ने टीम बनाकर बकायदा अपनी ड्युटी भी बांध रखी थी। इस टीम से जुड़े कंजई के युवा संजय अग्रवाल, हरिशंकर बनवारी, श्याम अवधिया, प्रकाश राहंगडाले, रोहित मरठे, पंकज बिसेन, जीत चौधरी, राजेश बेलवंशी के साथ साथ लालबर्रा के युवा भी कैलाश अग्रवाल,विनित संचेती, डां अरूण लान्गे,शैलेश आसवले, अमित तिवारी, डां. शिव गौतम, सहित 25 से अधिक युवा इस काम में जुटे रहे। बिना किसी सरकारी मदद या बैनर के इस टीम से जुड़े युवा लगतार दो महिने तक सुबह ठीक वैसे ही बार्डर पर बने एक बंद पड़े होटल में जहां यह रसोई पूरी तरह निशुल्क चलती थी, पहुंचते थे जैसे यह उनकी ड्युटी का समय है और फिर दिन भर गुजरने वाले हजारों श्रमिको की भुख मिटाने का काम शुरू हो जाता था।

60 गांवो में घर-घर तैयार हुई रोटी

इस काम में गांव के युवाओ के साथ आस-पास के 60 से अधिक गांवो की किसान परिवारों से जुड़ी महिलाओ ने भी अपना योगदान दिया। इस काम की शुरूआत सबसे पहले रामजी टोल, टेमनी, नगपूरा, घोटी, पनबिहरी, मानपूर, जबलटोला, भांडा मूर्री, कंजई, पाथरशाही, जाम, सेलवा, खैरगांव से हुई हुई। जहां की महिलाओं ने युवाओं के साथ मिल कर इस मार्ग से प्रतिदिन गुजरने वाले हजार से अधिक श्रमिकों के लिये अपने घरो में रोटियां बनाई और सेवा के इस काम में भागीदार बनी। देखते ही देखते सेवा के इस उपक्रम में क्षेत्र के 60 से अधिक गांव के किसान परिवार जुड गये। जिन्होने इस मार्ग से गुजरने वाले हर एक प्रवासी श्रमिक को निशुल्क भोजन कराया।

इनपुट:भाषा