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हिन्दी का शब्द सम्पदा

हिन्दी के स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर के पठन-पाठन में 18 बोलियों की चर्चा प्रमुखता से होती है। कई सर्वेक्षणों के अनुसार बोलियों की संख्या 48 है। इन बोलियों की समृद्ध शब्दावली  है, जो हिन्दी की है। हिंदी में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज तथा अर्ध तत्सम शब्दावली का प्रयोग होता है। हिंदी की प्रवृत्ति तद्भव की है। संस्कृत से अपभ्रंश हुई या विकसित शब्दावली हिंदी भाषा की मूल शब्दावली है। स्वाभाविक रूप से संस्कृत से पालि, प्राकृत, अपभ्रंश होती हुई हिंदी विकसित हुई है।

आज कोई एक अरब आबादी द्वारा हिंदी बोली और समझी जाती है तो इसके मूल में शब्द ग्रहण की इसकी उदार प्रवृत्ति है। तमाम विदेशी और प्रायः सभी भारतीय भाषाओं तथा अनेक जनजातीय भाषाओं से शब्द ग्रहण कर हिंदी ने स्वयं को समृद्ध और मजबूत बनाया है। फारसी की शब्दावली का एक बड़ा हिस्सा संस्कृत से विकसित हुआ है। इसके कारण उसका मूल तथा अपभ्रंश रूप हिंदी में आसानी से स्वीकृत हो गया।

हिंदी में तथा भारतीय भाषाओं में संस्कृत से आए हुए शब्दों का प्रयोग इस तरह से होता है कि यह समझना कठिन है कि पड़ोसी प्रांत की किस भाषा से शब्द किस भाषा में गए। मुखसुख या स्थानीय कारणों से रूप में जो परिवर्तन हुए हैं वे भी अंतर को बताते हैं। संस्कृत से आए हुए शब्द अधिकांश भारतीय भाषाओं में एक ही जैसे हैं, जैसे-तोड़ना के हिंदी में भंग, बंगला में ‘भांगा’ है। ‘ताकना’ हिंदी में प्रयुक्त होता है, ‘ताकानो’ बंगला में। आर्द्रता के लिए हिंदी में ‘तरावट’ शब्द है, बंगला में ‘शीतलता’ भी प्रयुक्त होता है। ‘तरी’ शब्द हिंदी और बंगला दोनों भाषाओं में  आर्द्रता और ‘नौका’ दोनों के लिए प्रयुक्त होता है। ‘तरीका’ शब्द के लिए बंगला में ‘प्रनाली’ शब्द है। हिंदी की बोली भोजपुरी में ‘प्रनाली’ ही उच्चारण किया जाता है। ‘युवा’ के लिए भोजपुरी और बंगला दोनों में तरूण शब्द है। वृक्ष के लिए ‘गाछ’ शब्द का प्रयोग भोजपुरी और बंगला में होता है। खड़ी बोली हिंदी में गाछ-वृक्ष सहचर की तरह प्रयुक्त होता है। ऐसी स्थिति में कई बार देशज शब्द भी पड़ोसी भाषाओं में एक जैसे प्रयोग में आते हैं। अरबी-फारसी की परिवर्तित शब्दावली भारतीय भाषाओं में है। संस्कृत के अपभ्रंश रूप फारसी में बहुतायत से हैं। इनके परिवर्तित रूप उर्दू में प्राप्त होते हैं। इसे उर्दू  के कोषकार फारसी से आया हुआ मानते हैं। संस्कृत के विद्वान संस्कृत-फारसी से होते हुए उर्दू और हिंदी में आना स्वीकार करते हैं। बंगला और हिंदी के शब्दों के लेखन और उच्चारण में अधिकांश जगहों पर केवल ‘व’ और ‘ब’ के कारण अंतर है। जैस- द्रष्टव्य-द्रष्टब्य; धु्रवतारा-ध्रुबतारा; व्यवसाय-ब्यवसाय; कर्तव्य- कर्तब्य आदि। हिंदी की इन ध्वनियों का उच्चारण कई बोलियों में ‘ज’ की तरह होता है। यह प्रवृत्ति कई भाषाओं में भी है। जैसे- हिंदी का ‘सूये’ बंगला में ‘सूर्ज’ है।

तेलुगू के कई शब्द प्रकारांतर से हिंदी में प्रयुक्त होते हैं। संस्कृत की इतनी बहुलता तेलुगू में है कि उनके अपभ्रंशों का या मूलरूप की कुछ परिवर्तित प्रयोग हिंदी और तेलुगू दोनों भाषाओं में होता है। जैसे- तेलुगू भाषा में प्रयुक्त शब्द हिंदी में प्रायः एक ही तरह के हैं। कूली (कुली), कुस्ती (कुश्ती), गोवु (गऊ), कलशमु (गगरी), गणमु (गण), चपाती (चपाती), दासि (चेरी), कपटमु (ढोंग), दीपपु (ढिबरी), दंडोरा (ढिंढोरा), नाविक दलमु (नौसेना), नेपथ्यमु (नेपथ्य), नाटकमु (नौटंकी), रक्षण (बचाव), मुखरमु (मुखर), मुष्टि युद्धमु (मुक्केबाजी) आदि। कोष्ठक में दिए गए शब्द हिंदी के हैं।

तमिल भाषा में प्रयुक्त शब्दावली में भी संस्कृत की शब्दावली है। उसके तमाम परिवर्तित रूप हिंदी में स्वीकृत हैं। जैसे-किन्नरन् (किन्नर), कीलम (चिटखनी), कीत्र्तनम (कीर्तन), गीतम् (गीत) गुहन् (गुहा, केवट), कुशल (कुशल), कुंजरम् (हाथी), कुंजरि (हाथी), कुडम् (घड़ा, कूंड़ा), कुरोदम् (क्रोध), कुरोदि (क्रोधी), कुलगुरू (कुलगुरू), कुलम् (परिवार, जाति, समूह) कुलिशम् (वज्र), गुलाल (गुलाल), कुलाचाम् (कुल-प्रथा), गान्दारम् (गांधार देश), कापि (संगीत का काफी राम), काण्डम् (ग्रन्थ का बड़ा भाग), इतिहासम् (इतिहास), इत्तनै (इतना),आसनम् (आसन), अनलम् (आग), अनादि (आग), अनादि (अनादि)। ऐसी एक बहुत बड़ी संख्या है जो तमिल और हिंदी में समान रूप से प्रयुक्त होती है। ‘कूंड़ा’ बड़े घड़े के अर्थ में हिंदी की बोलियों में प्रयोग में आता है। इस शब्द की यात्रा दक्षिण से उत्तर की ओर हुई या उत्तर से दक्षिण की ओर, विचारणीय है।

मलयालम भाषा की शब्दावली प्रायः संस्कृत की है। दोनों भाषाओं में एक जैसे प्रयोग खूब मिलते हैं। मलयालम और हिंदी की समान शब्दावली का कुछ उदाहरण हम देख सकते हैं। कोष्ठक में दिए शब्द हिंदी के हैं-मद्यचषकं (चषक), प्रहरं (चांटा), चप्पात्ति (चपाती), घरद्वार (घरवार), गद्र्दभ (गधा), खद्दर (खादी), मक्ष्यपदार्थ (खाद्य), रेखाचित्रमं (खाका), कफ़ (खखार), किरूकिरा (किरकिराना), किन्नरि (किनारी) आदि।

इसी प्रकार कन्नड़ भाषा की बहुत से शब्दावली समान रूप से हिंदी में प्रयुक्त होती है। समान रूप से प्रयोग में आने के कारण भारतीय भाषाओं को थोड़े से श्रम से समझना आसान हो जाता है। कन्नड़ की कुछ शब्दवली दृटव्य है- काग (काक), कलाविद (कलाकार), मणिबंध (कलाई), उपभोक्त (उपभोक्ता), उपमा (उपमा), विरोध (विरोध), कोप (क्रोध), प्राण (जान) आदि।

हिंदी ने जैसे अन्य भाषाओं को समृद्ध किया है उसी प्रकार हिंदी की कई भाषाओं की शब्दावली प्रयोग और प्रयोक्ताओं के कारण मजबूत और प्रभावी हुई है। भारतीय भाषाओं की शब्दावली संस्कृत से विकसित हुई है। आज सहज और सरल प्रयोग की चर्चा जोरों पर है। प्रशासनिक और अकादमिक विषयों की शब्दावली पारिभाषिक होती है। इस प्रकार की शब्दावली के लिए सरल के नाम पर जनता द्वारा प्रयोग किए जाने वाले चलताऊ शब्दों को नहीं रखा जा सकता है। संविधान निर्माताओं ने शब्दावली के संदर्भ में हिंदी को राजभाषा का दर्जा देते समय ये स्पष्ट निर्देश भी दिया कि मूलतः संस्कृत से और गौणतः भारतीय भाषाओं से शब्दों को ग्रहण किया जाएगा। ऐसा किया ही जाना चाहिए। इससे सभी भाषाओं के शब्दों का एक-दूसरी भाषाओं में आदान- प्रदान बढ़ेगा और भारतीय भाषाएं समृद्ध होंगी। पठन-पाठन से लेकर अध्यापन तक अब अंग्रेजी शब्दों की आवश्यकता नहीं रह गई है।

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा लगभग 9,00,000 शब्दों के अलग-अलग कोश प्रकाशित होने के पश्चात् आवश्यकतानुसार प्रत्येक विषय तथा भाषा की शब्द संपदा चाहे वह प्रशासनिक हो या अकादमिक हमारे पास उपलब्ध है। हम इनसे परिचित ही होना नहीं चाहते तथा भारतीय भाषाओंकी दरिद्रता की चर्चा करते हुए बहुत ही आसानी से अंग्रेजी की तरफ प्रवृत्त हो जाते हैं। भारतीय भाषाओं की विशालता, गहनता, सूक्ष्मता, उत्पादकता, तादात्मयता, सहजता, संप्रेषणीयता तथा बोध की आत्मीयता की समझ के साथ ही उन्हें ग्रहण करने की तत्परता के हमारे भाषायी संस्कार जब प्रखर और प्रबल होंगे तो निश्चित ही हिंदी उस स्थान को ग्रहण करेगी, जिसकी कामना कभी पं. मदनमोहन मालवीय, राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन और महात्मा गाँधी ने की थी।