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अंग्रेजों ने नष्ट की भारत की उन्नत चिकित्सा व्यवस्था/१

विनाशपर्व

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है. विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय, तक्षशिला, भारत में था. ईसा के लगभग एक हजार वर्ष पहले यह प्रारंभ हुआ और ईसा के बाद, पांचवी शताब्दी में हुणों के आक्रमण के कारण बंद हुआ.

इस विश्वविद्यालय में ‘चिकित्सा विज्ञान’ का व्यवस्थित पाठ्यक्रम था. आज से, लगभग २७०० वर्ष पहले, दुनिया को शरीर शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र और औषधी विज्ञान के बारे में हम सुव्यवस्थित ज्ञान दे रहे थे. अर्थात भारत में स्वास्थ्य सेवाएँ मजबूत थी और नीचे तक पहुंची थी, इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं.

तक्षशिला विश्वविद्यालय किसने बनवाया था और ये कैसे खत्म हो गया? history of takshshila university amid controversy over pakistani diplomate statement

कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ इस ग्रंथ मे, पालतू पशु और उनकी देख रेख के संदर्भ में जानकारी दी गई हैं. सम्राट अशोक के कार्यकाल में, अर्थात ईसा से २७३ वर्ष पहले, विशाल फैले हुए भारत वर्ष में अस्पतालों का जाल था. जी हां ! अस्पताल थे और मनुष्यों के साथ जानवरों के थे,

इसके प्रमाण मिले हैं. वर्तमान में भारतीय पशु चिकित्सा परिषद (Veterinary Council of India) का जो लोगो या बैज (सम्मानचिन्ह) हैं, उस में सम्राट अशोक के काल के बैल और पत्थर के शिलालेख को अपनाया हैं.

संयोग ये था, कि जब तक्षशिला विश्वविद्यालय बंद हुआ, उसी के आस-पास विश्वप्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय प्रारंभ हुआ. इसमें भी ‘चिकित्सा विज्ञान’ का पाठ्यक्रम था, और अनेक विद्यार्थी इस पाठ्यक्रम को पढकर, पारंगत होकर अपने अपने गांव जाकर चिकित्सा करते थे.

किंतू इसके अलावा, पूरे भारतवर्ष में गुरुकुल व्यवस्था थी, जिसके अंतर्गत भी चिकित्सा विज्ञान अर्थात आयुर्वेद पढाया जाता था. चरक संहिता यह चिकित्सा शास्त्र पर आधारभूत समझा जाने वाला प्राचीन ग्रंथ है. इसके रचना की निश्चित तिथी की जानकारी नहीं है.

पर यह साधारण ईसा से पहले सौ वर्ष और ईसा के बाद दो सौ वर्ष के कालखंड में लिखा गया होगा, ऐसा अनुमान है. अर्थात मोटे तौर पर दो हजार वर्ष पुराना ग्रंथ है. देश के कोने-कोने में चिकित्सा करने वाले वैद्यों के लिये यह ग्रंथ, बाकी अन्य ग्रंथों के साथ प्रमाण ग्रंथ था.

यह ग्रंथ, ‘विद्यार्थी कैसा हो, चिकित्सा विज्ञान का उद्देश्य क्या है, कौन से ग्रंथों का ‘संदर्भ ग्रंथ’ के नाते उपयोग करना चाहिये. ऐसी अनेक बातें बताता है. आज के चिकित्सा शास्त्र के लगभग सारे विषय इस ग्रंथ में सम्मिलित हैं. आज का चिकित्सा शास्त्र जिन विधाओं की बात करता है,

उसमें से अधिकतम विधाओं की विस्तृत जानकारी इस पुस्तक में है. जैसे – Pathology, Pharmaceutical, Toxicology, Anatomy आदि. इस्लामी आक्रांता आने तक तो देश में चिकित्सा व्यवस्था अच्छी थी. औषधी शास्त्र में भी नये नये प्रयोग होते थे. आयुर्वेद के पुराने ग्रंथों पर भाष्य लिखे जाते थे और नये सुधारों को उनमें जोडा जाता था.

किंतू इस्लामी आक्रांताओं ने इस व्यवस्था को ही छिन्न भिन्न किया. नालंदा के साथ सभी विश्वविद्यालय और बडी बडी पाठशालाएँ नष्ट कर दी गईं. उसमें उपलब्ध सारा ग्रंथसंग्रह जला दिया गया. किंतू फिर भी अपने यहां जो वाचिक परंपरा है,

उसके माध्यम से चिकित्सा विज्ञान का यह ज्ञान पिढी दर पिढी चलता रहा. इन आक्रांताओं के पास कोई वैकल्पिक चिकित्सा व्यवस्था नहीं थी. इसलिये उन्होंने भी इस क्षेत्र में कुछ नया थोंपने का प्रयास नहीं किया. किंतू अंग्रेजों के साथ ऐसा नहीं था.

सत्रहवीं शताब्दी से उन्होंने अपनी एक चिकित्सा व्यवस्था निर्माण करने का प्रयास किया था, जिसे एलोपॅथी कहा जाता था. इस एलोपॅथी के अलावा अन्य सभी चिकित्सा प्रणालियाँ दकियानूसी हैं ऐसा अंग्रेजों का दृढ विश्वास था. इसलिये उन्होंने भारत में, हजारों वर्ष पुराने आयुर्वेद को ‘अनपढ और गंवारों की चिकित्सा पद्धती’, बोलकर भारतीय समाज पर एलोपॅथी थोपी.

भारत में पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान पर आधारित पहला अस्पताल पोर्तुगीज लोगों ने बनाया, अंग्रेजों ने नही. सन् १५१२ में गोवा में, एशिया का एलॉपॅथी पर आधारित पहला अस्पताल प्रारंभ हुआ. इसका नाम था, ‘Hospital Real do Spiricto Santo’

१७५७ की प्लासी की लडाई जीतने के बाद, एक बडे भूभाग पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया. अपने प्रशासन के प्रारंभ से ही उन्होंने चिकित्सा विज्ञान की भारतीय पद्धती को हटा कर पाश्चात्य एलॉपेथी प्रारंभ की. प्रारंभ में भारतीय नागरिकों ने इस पाश्चात्य व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया.

किंतु १८१८ में मराठों को परास्त कर, देश का प्रशासन संभालते समय और बाद में १८५७ के स्वातंत्र्य युद्ध की समाप्ती के बाद, पाश्चात्य चिकित्सा व्यवस्था को जबरदस्ती लागू किया गया. अंग्रेजों का पहला जहाज भारत के सूरत शहर में पहुंचा २४ अगस्त १६०८ को. इसी जहाज से पहले ब्रिटिश डॉक्टर ने भारत की धरती पर पांव रखा.

यह डॉक्टर, जहाज के डॉक्टर के रूप में अधिकारिक रूप से भारत की धरती पर आया था. अगले देढ सौ वर्षों तक जहां जहां अंग्रेजों की बसाहट थी, वहां वहां, अर्थात सूरत, बाँबे (मुंबई), मद्रास, कलकत्ता आदि स्थानों पर अंग्रेजी डॉक्टर्स/नर्स और छोटे मोटे अस्पतालों की रचना होती रही.

यह चित्र बदला सन् १७५७ में प्लासी के युद्ध के बाद, जब बंगाल के एक बहुत बडे प्रदेश की सत्ता अंग्रेजों के पास आई. अब उन्हें मात्र अंग्रेज लोगों की ही चिंता नहीं करनी थी, वरन् उनकी भाषा में ‘नेटिव्ह’ लोग भी उसमें शामिल थे. संक्षेप में संपूर्ण ‘प्रजा’ की, नागरिकों के स्वास्थ्य की उन्हें चिंता करनी थी.

बंगाल में पहले चिकित्सा विभाग का गठन हुआ सन् १७६४ में. इसमें प्रारंभ से ४ प्रमुख शल्य चिकित्सक (सर्जन), ८ सहायक शल्य चिकित्सक और २८ सहायक थे. किन्तु दुर्भाग्य से, बंगाल में १७६९ से १७७१ के बीच जो भयानक सूखा पड़ा, उस समय अंग्रेजों की कोई चिकित्सा व्यवस्था मैदान में नहीं दिखी.

इस अकाल में एक करोड़ से ज्यादा लोग भूख से और अपर्याप्त चिकित्सा की वजह से मारे गए. १७७५ में बंगाल के लिये हॉस्पिटल बोर्ड का गठन हुआ, जो नये अस्पतालों की मान्यता देखता था. अगले १० वर्षों में अर्थात १७८५ तक अंग्रेजों की यह स्वास्थ्य सेवाएँ बंगाल के साथ मुंबई और मद्रास में भी प्रारंभ हो गई.

इस समय तक कुल २३४ सर्जन्स अंग्रेजों के इलाकों में काम कर रहे थे. १७९६ में, हॉस्पिटल बोर्ड का नाम बदलकर ‘मेडिकल बोर्ड’ किया गया. सन् १८१८ में मराठों को निर्णायक रूप से परास्त कर अंग्रेजों ने सही अर्थों में भारत में अपनी सत्ता कायम की.

अब पूरे भारत में उनको अपनी चिकित्सा व्यवस्था फैलानी थी. उतने कुशल डॉक्टर्स और नर्सेस उनके पास नहीं थे. दूसरा भी एक भाग था. भारतीय जनमानस, अंग्रेजी डॉक्टर्स पर भरोसा करने तैयार नहीं था. उसे सदियों से चलती आ रही, सहज, सरल और सुलभ वैद्यकीय चिकित्सा प्रणाली पर ज्यादा विश्वास था.

इसलिये अंग्रेजों ने पहला लक्ष्य रखा, भारतीय चिकित्सा पद्धती को ध्वस्त करना. इसकी वैधता के बारे में अनेकों प्रश्न खडे करना और इस पूरी व्यवस्था को दकियानूसी करार देना. सन् १८५७ तक इतने बडे भारत पर ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ यह निजी कंपनी ही राज कर रही थी.

१८५७ की, भारतीय सैनिकों की सशस्त्र क्रांती के बाद, सन् १८५८ से भारत के प्रशासन की बागडोर सीधे ब्रिटन की रानी के हाथ में आ गई. अब भारत पर ब्रिटन के हाउस ऑफ कॉमन्स और हाउस ऑफ लॉर्ड्स के नियम चलने लगे.

भारतीय चिकित्सा प्रणाली, एक अत्यंत विकसित पद्धती थी. इन पश्चिम के डॉक्टर्स को जिसका अंदाज भी नहीं था, ऐसी ‘प्लास्टिक सर्जरी’ जैसी कठिन समझी जाने वाली शल्यक्रिया, भारतीय सैकडों वर्षों से करते आ रहे थे. अंग्रेजों ने भारत में यह चिकित्सा देखी, तो उसे वे इंग्लैंड ले गए.

वहां से यह चिकित्सा पद्धती सारे यूरोप में और बाद में अमेरिका में भी फैली. अंग्रेजों को इस प्लास्टिक सर्जरी की जानकारी मिलने का किस्सा बडा मजेदार हैं. सन १७५७ में अंग्रेजों ने प्लासी की लड़ाई जीत कर, बंगाल और ओरिसा के बड़े भूभाग पर सत्ता कायम की थी.

किन्तु, भारत जैसे विशाल देश में यह बहुत छोटा सा हिस्सा था. १८१८ में अंग्रेजों का कब्जा लगभग पूरे देश पर हो गया. इन बीच के ६१ वर्ष यह अंग्रेजों की कुटिल राजनीति के और उन्होने लड़े हुए युद्धों के हैं.

इन दिनों अंग्रेज़ दक्षिण में हैदर, टीपू सुल्तान से, मराठों से और उत्तर में मराठों के सरदार शिंदे और होलकर से लड़ रहे थे. भारत में हैदर, टीपू के साथ हुई लडाईयों में अंग्रेजों को दो नए आविष्कारों की जानकारी हुई. (अंग्रेजों ने ही यह लिख रखा हैं)

1. युध्द में उपयोग किया हुआ रॉकेट और
2. प्लास्टिक सर्जरी

अंग्रेजों को प्लास्टिक सर्जरी की जानकारी मिलने का इतिहास बड़ा रोचक हैं. सन १७६९ से १७९९ तक, तीस वर्षों में, हैदर अली – टीपू सुलतान इन बाप-बेटे और अंग्रेजों में ४ बड़े युध्द हुए. इन मे से एक युध्द में अंग्रेजों की ओर से लड़ने वाला ‘कावसजी’ नाम का मराठा सैनिक और ४ तेलगु भाषी लोगों को टीपू सुलतान की फ़ौज ने पकड़ लिया.

बाद में इन पाचों लोगों की नाक काटकर टीपू के सैनिकों ने, उनको अंग्रेजों के पास भेज दिया. इस घटना के कुछ दिनों के बाद एक अंग्रेज कमांडर को एक भारतीय व्यापारी के नाक पर कुछ निशान दिखे. कमांडर ने उनको पूछा तो पता चला की उस व्यापारी ने कुछ ‘चरित्र के मामले में गलती’ की थी,

इसलिए उसको नाक काटने की सजा मिली थी. लेकिन नाक कटने के बाद, उस व्यापारी ने एक वैद्य जी के पास जाकर अपना नाक पहले जैसा करवा लिया था. अंग्रेज कमांडर को यह सुनकर आश्चर्य लगा. कमांडर ने उस कुम्हार जाती के वैद्य को बुलाया और कावसजी और उसके साथ के चार लोगोंका नाक पहले जैसा करने के लिए कहा.

कमांडर की आज्ञा से, पुणे के पास के एक गांव में यह ऑपरेशन हुआ. इस ऑपरेशन के समय दो अंग्रेज डॉक्टर्स भी उपस्थित थे. उनके नाम थे- थॉमस क्रूसो और जेम्स फिंडले. इन दोनों डॉक्टरों ने, उस अज्ञात मराठी वैद्य ने किए हुए इस ऑपरेशन का विस्तृत समाचार ‘मद्रास गजेट’ में प्रकाशन के लिए भेजा.

वह छपकर भी आया. विषय की नवीनता एवं रोचकता देखते हुए, यह समाचार इंग्लैंड पहुचा. लन्दन से प्रकाशित होने वाले जेंटलमैन नामक पत्रिका ने इस समाचार को अगस्त, १७९४ के अंक में पुनः प्रकाशित किया. इस समाचार के साथ, ऑपरेशन के कुछ छायाचित्र भी दिए गए थे.

जेंटलमैन में प्रकाशित ‘स्टोरी’ से प्रेरणा लेकर इंग्लैंड के जे. सी. कॉर्प नाम के सर्जन ने इसी पध्दति से दो ऑपरेशन किये. दोनों सफल रहे. और फिर अंग्रेजों को और पश्चिम की ‘विकसित’ संस्कृति को प्लास्टिक सर्जरी की जानकारी मिली. पहले विश्व युध्द में इसी पध्दति से ऐसे ऑपरेशन्स बड़े पैमाने पर हुए और वह सफल भी रहे.

Excerpt | The Sceptical Patriot

असल में प्लास्टिक सर्जरी से पश्चिमी जगत का परिचय इससे भी पुराना हैं. वह भी भारत की प्रेरणा से. ‘एडविन स्मिथ पापिरस’ ने पश्चिमी लोगों के बीच प्लास्टिक सर्जरी के बारे में सबसे पहले लिखा ऐसा माना जाता हैं. लेकिन रोमन ग्रंथों में इस प्रकार के ऑपरेशन का जिक्र एक हजार वर्ष पूर्व से मिलता हैं.

अर्थात भारत में यह ऑपरेशन्स इससे बहुत पहले हुए थे. आज से पौने तीन हजार वर्ष पहले, ‘सुश्रुत’ नाम के शस्त्र-वैद्य (आयुर्वेदिक सर्जन) ने इसकी पूरी जानकारी दी हैं. नाक के इस ऑपरेशन की पूरी विधि सुश्रुत के ग्रंथ में मिलती हैं.

किसी विशिष्ठ वृक्ष का एक पत्ता लेकर उसे मरीज के नाक पर रखा जाता हैं. उस पत्ते को नाक के आकार का काटा जाता हैं. उसी नाप से गाल, माथा या फिर हाथ/पैर, जहां से भी सहजता से मिले, वहां से चमड़ी निकाली जाती हैं. उस चमड़ी पर विशेष प्रकार की दवाइयों का लेपन किया जाता हैं.

फिर उस चमड़ी को जहां लगाना हैं, वहां बांधा जाता हैं. जहां से निकाली हुई हैं, वहां की चमड़ी और जहां लगाना हैं, वहां पर विशिष्ठ दवाइयों का लेपन किया जाता हैं. साधारणतः तीन हफ्ते बाद दोनों जगहों पर नई चमड़ी आती हैं, और इस प्रकार से चमड़ी का प्रत्यारोपण सफल हो जाता हैं.

इसी प्रकार से उस अज्ञात वैद्य ने कावसजी पर नाक के प्रत्यारोपण का सफल ऑपरेशन किया था. नाक, कान और होंठों को व्यवस्थित करने का तंत्र भारत में बहुत पहले से चलता आ रहा हैं. बीसवी शताब्दी के मध्य तक छेदे हुए कान में भारी गहने पहने के रीती थी.

उसके वजन के कारण छेदी हुई जगह फटती थी. उसको ठीक करने के लिए गाल की चमड़ी निकाल कर वहां लगाई जाती थी. उन्नीसवी शताब्दी के अंत तक इस प्रकार के ऑपरेशन्स भारत में होते थे. हिमाचल प्रदेश का ‘कांगड़ा’ जिला तो इस प्रकार के ऑपरेशन्स के लिए मशहूर था. कांगड़ा यह शब्द ही ‘कान + गढ़ा’ ऐसे उच्चारण से तैयार हुआ हैं.

डॉ. एस. सी. अलमस्त ने इस ‘कांगड़ा मॉडल’ पर बहुत कुछ लिखा हैं. वे कांगड़ा के ‘दीनानाथ कानगढ़िया’ नाम के नाक, कान के ऑपरेशन्स करने वाले वैद्य से स्वयं जाकर मिले. इन वैद्य के अनुभव डॉ. अलमस्त जी ने लिख कर रखे हैं. सन १४०४ तक की पीढ़ी की जानकारी रखने वाले ये ‘कान-गढ़िया’, नाक और कान की प्लास्टिक सर्जरी करने वाले कुशल वैद्य माने जाते हैं.

ब्रिटिश शोधकर्ता सर अलेक्झांडर कनिंघम (१८१४-१८९३) ने कांगड़ा के इस प्लास्टिक सर्जरी को बड़े विस्तार से लिखा हैं. अकबर के कार्यकाल में ‘बिधा’ नाम का वैद्य कांगड़ा में इस प्रकार के ऑपरेशन्स करता था, ऐसा फारसी इतिहासकारों ने लिख रखा हैं.

‘सुश्रुत’ की मृत्यु के लगभग ग्यारह सौ (११००) वर्षों के बाद ‘सुश्रुत संहिता’ और ‘चरक संहिता’ का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ. यह कालखंड आठवी शताब्दी का हैं. ‘किताब-ई-सुसरुद’ इस नाम से सुश्रुत संहिता मध्यपूर्व में पढ़ी जाती थी.

आगे जाकर, जिस प्रकार से भारत की गणित और खगोलशास्त्र जैसी विज्ञान की अन्य शाखाएं, अरबी (फारसी) के माध्यम से यूरोप पहुंची, उसी प्रकार ‘किताब-ई-सुसरुद’ के माध्यम से सुश्रुत संहिता यूरोप पहुच गई. चौदहवे-पंद्रहवे शताब्दी में इस ऑपरेशन की जानकारी अरब-पर्शिया (ईरान) – इजिप्त होते हुए इटली पहुची.

इसी जानकारी के आधार पर इटली के सिसिली आयलैंड के ‘ब्रांका परिवार’ और ‘गास्परे टाग्लीया-कोसी’ ने कर्णबंध और नाक के ऑपरेशन्स करना प्रारंभ किया. किन्तु चर्च के भारी विरोध के कारण उन्हें ऑपरेशन्स बंद करना पड़े. और इसी कारण उन्नीसवी शताब्दी तक यूरोपियन्स को प्लास्टिक सर्जरी की जानकारी नहीं थी

ऋग्वेद का ‘आत्रेय (ऐतरेय) उपनिषद’ अति प्राचीन उपनिषदों में से एक हैं. इस उपनिषद में (१-१-४) ‘मां के उदर में बच्चा कैसे तैयार होता हैं’, इसका विवरण हैं. इस में कहां गया हैं की गर्भावस्था में सर्वप्रथम बच्चे के मुंह का कुछ भाग तैयार होता हैं.

फिर नाक, आँख, कान, ह्रदय (दिल) आदि अंग विकसित होते हैं. आज के आधुनिक विज्ञान का सहारा लेकर, सोनोग्राफी के माध्यम से अगर हम देखते हैं, तो इसी क्रम से, इसी अवस्था से बच्चा विकसित होता हैं.

भागवत में लिखा हैं (२-१०२२ और ३-२६-५५) की मनुष्य में दिशा पहचानने की क्षमता कान के कारण होती हैं. सन १९३५ में डॉक्टर रोंस और टेट ने एक प्रयोग किया. इस प्रयोग से यह साबित हुआ की मनुष्य के कान में जो वेस्टीब्यूलर (vestibular apparatus) होता हैं, उसी से मनुष्य को दिशा पहचानना संभव होता हैं.

अब यह ज्ञान हजारों वर्ष पहले हमारे पुरखों को कहां से मिला होगा..?

संक्षेप में, प्लास्टिक सर्जरी का भारत में ढाई से तीन हजार वर्ष पूर्व से अस्तित्व था. इसके पक्के सबूत भी मिले हैं. शरीर विज्ञान का ज्ञान और शरीर के उपचार यह हमारे भारत की सदियों से विशेषतः रही हैं. लेकिन ‘पश्चिम के देशों में जो खोज हुई हैं,

वही आधुनिकता हैं और हमारा पुरातन ज्ञान याने दकियानूसी हैं’, ऐसी गलत धारणाओं के कारण हम हमारे समृध्द विरासत को नकारते रहे. इसी का फायदा अंग्रेजों ने उठाया और उन्होने समृध्द ऐसी भारतीय चिकित्सा पध्दति को बदनाम और नष्ट करने के भरपूर प्रयास किए.

इनके लेखक हैं – श्री प्रशांत पोळ जी