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अच्छे पर्यावरण के लिये वृक्षारोपण ही समाधान – डाॅ. किशन कछवाहा

जब प्रदूषण का हर स्तर पर विस्तार हो रहा हो, तब उस पर नियंत्रण पा लेने के लिये मानव हित में वृक्षारोपण ही एक मात्र प्रमुख उपाय सामने आता है इस तर्क से सामान्य लेकर विशेषज्ञ भी सहमत हैं। बदलते मौसम की गति को देखते हुये पूरे साल सतर्क रहने और उस पर नियंत्रण पा लेने के अन्य उपायों के बारे में भी चिन्तन करते रहने की आवश्यकता है। पहले ऐसी भयावह स्थितियाँ सामने आयी हों यह सम्भव है, पर जितना गहराई में जाकर उस पर नियंत्रण पाने के लिये अध्ययन, शोध, चिन्तन-मनन किया जाना चाहिये था, वह संभवत नहीं हो सका है।
महाकवि कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ जैसे ख्याति लब्ध ग्रंथ के मंगलाचरण में ही ‘प्रत्याक्षामिः प्रपन्नस्तनुभिरूपतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः।’ श्लोक लिखकर इस बात को रेखांकित किया है कि सदियों से जीवन और पर्यावरण की परस्पर निर्भरता भारतीय चिन्तन में रही है।
महाकवि कालिदास ने जल, वायु, अग्नि आदि पर्यावरण के महत्वपूर्ण तत्वों को ईश्वर का प्रत्यक्ष रूप बताने का संकेत भी दिया है तथा अभिनंदित भी किया है। अथर्व वेद में ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं’ कहकर गुणगान किया गया है। आज यह प्रश्न हमारे सबके समक्ष उपस्थित है कि क्या हम अपनी माता भूमि के प्रति अपने कर्तव्यों का नीतिपूर्वक निर्वहन कर रहे हैं?

श्री भागवतपुराण में ‘‘पश्यैतान महाभागान, पदार्थ कार्य जीवितान बात वर्षा तपहिभान महन्तो वारयन्ति न।’’ वृक्षों के महत्व को उद्घोषित करते हुये कहा गया है कि इन परोपकारी वृक्षों की महिमा को जानें, जो हमें धूप, वायु और वर्षा से बचाते हैं। वृक्षों में देवताओं का निवास होता है- यह कोरी कल्पना मात्र नहीं है।
महाभारत में भी उल्लेख मिलता है कि ‘‘एको वृक्षो हि यो ग्राम भवेत पर्ण फलान्वितः। चैत्यो भवति निज्र्ञातिरचनीयः सुपूजितः। (आ. 151/337)।’’ पर्ण और फलों से समन्वित कोई भी सुन्दर वृक्ष पूजनीय हो जाता है। भारतीय संस्कृति को वृक्षों की संस्कृति कह देना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं है। इसका प्रमाण यह है कि स्वयं चक्रधारी विष्णु अवतार भगवान श्री कृष्ण ने श्रीगीता में उद्घोष किया है कि ‘अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वथा हमौषधम’ (9/16)। अश्वस्थः सर्व वृक्षाणां (10-26)।
आज सबसे बड़ी चिन्ता है पृथ्वी के संरक्षण की तथा उस पर निर्भर रहने वाले मानव-जीवन को बचाये रखने की। इतनी ही चिन्ता विनाश कारी रासायनिक हथियारों की बढ़ती संख्या से भी है, जिसके दुरूपयोग होने की आशंका जब तब बनी ही रहती है। इसी प्रकार की एक और समस्या घेरे हुये है, वह है, निरन्तर बढ़ते प्रदूषण से उत्पन्न दुष्परिणामों की। यह भयानक रूप ग्रहण करती जा रही समस्या मानव के विकसित हुये लोभी मस्तिष्क के कारण उपजी है, जिसने समस्त संवेदनाओं को झकझोर कर रख दिया है, जिसका सर्व स्वीकृत और सहज उपाय के रूप में है- वृक्षारोपण।
इस तर्क को तो स्वीकार किया जा सकता है कि वर्तमान युग में विकास की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता लेकिन इतनी सावधानी तो रखी ही जा सकती है कि पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुँचे। गत वर्षों में अंधाधुुंध तरीके से जंगलों को क्षति पहुँचायी गयी है, उसके परिणाम आज हमारे सामने हैं।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार बतलाया गया है कि पूरे विश्व में प्रत्येक वर्ष 50 लाख हेक्टेयर वनक्षेत्र काटे जा रहे हैं। इस मात्र कारण से पृथ्वी पर तीस प्रतिशत से भी कम वनक्षेत्र बचे रह सके हैं। इससे पर्यावरणीय असन्तुलन जैसी अनेक समस्यायें तो पैदा हुयीं, वहीं, वन्य जीवों का भी सफाया होता जा रहा है। ये वन्य जीव अनेकानेक अर्थों में मानव जीवन के लिये अत्यंत हितैषी भी होते हैं।
मध्यप्रदेश सरकार ने गत वर्षों पावन नर्मदा तटों पर साढ़े छः करोड़ पौधे लगाकर विश्व रिकार्ड कायम किया है। इस प्रशंसनीय कदम से अन्य प्रदेशों को भी प्रेरणा मिल रही है। यह ऐसा अभियान है, जिसे निरन्तर चलाये जाने की आवश्यकता है।
डायनासौर कैसे लुप्त हो गये?
जर्मनी के पोट्सडेम इंस्टीट्यूट फार क्लाईमेट चेंज इम्पेकट रिसर्च (पी.आई. के.) द्वारा किये गये एक शोध के माध्यम से पता चलता है कि लाखों वर्ष पूर्व एक छुद ग्रह पृथ्वी से आ टकराया था और उसके परिणाम स्वरूप आसमान से सल्फ्यूरिक एसिड की छोटी-छोटी बूँदों के कारण बादल छा गये। कई वर्षों तक अंधेरा छाया रहा है और ठंडक बनी रही। डायनासोर उस भयानक स्थिति में लुप्त हो गये।
वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि वहाँ जलवायु सुधरने में तीस साल लग गये।
गरीबी का दर्दनाक दंश
प्रायः आज भी सरकारी सुविधाओं के मुहैया कराये जाने के बावजूद प्रायः गरीबों के घरों में लकड़ी, कंडा, एवं अन्य ठोर्स इंधन से खाना पकाया जाता है। इसके कारण उत्पन्न धुँआ भी प्रदूषण फैलाता है। महिलाओं को हानिकारक भी सिद्ध होता है। ऐसे परिवारों और महिलाओं की संख्या बहुत अधिक है। लगभग 15 करोड़ के आसपास यह ऐसे परिवारों की संख्या है जो प्रतिदिन कई किलोमीटर पैदल चलकर लकड़ियाँ और गोबर के कंडे बीनकर लाती हैं। इनके घरेलू चूल्हों से उठने वाले धुयें के कारण बीमारी से घिरी रहती हैं।
एक अनुमान के अनुसार देश में पाँच से नौ लाख लोगों की मौत का कारण इस ठोस ईंधन से उत्पन्न धुँआ ही होता है। केलीफोर्निया यूनिवर्सिटी में ग्लोबल एनवायरमेंट हेल्थ के प्रख्यात प्रो. किर्क स्मिथ के अनुसार जब महिलायें चूल्हे में लकड़ी आदि जलाकर खाना बनाती हैं, तो एक घंटे के भीतर 400 सिगरेट जलाने के बराबर धुँआ हो जाता है। वे भारत में महिलाओं और बच्चियों के लिये इसे बड़ा खतरा बताते हैं। उनमें सेकेन्ड हेंड स्मोक, इलेक्ट्राॅनिक कचरा और साफ सफाई का भी अभाव है।
डब्लू.एच.ओ. की रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के लिये घर और बाहर मौजूद वायु प्रदूषण सबसे खतरनाक होता है। इसमें सेकेन्ड हेन्ड स्मोक याने अप्रत्यक्ष धूम्रपान जिसमें परिवार के किसी सदस्य द्वारा किया जाने वाला धूम्रपान, बाजार, सड़कों या सार्वजनिक स्थलों पर किया जाने वाला बेरोकटोक धूम्रपान भी शामिल है। कोयला, उपलों (कंडों) से उत्पन्न होने वाला धुँआ भी नुकसान दायक सिद्ध होता है तथा बच्चों में निमोनिया जैसे रोगों की शंका बढ़ जाती है। साथ ही श्वास संबंधी रोग जैसे अस्थमा आदि के बढ़ने की स्थिति बन सकती है।
इलेक्ट्रिकल व इलेक्ट्राॅनिक कचरा भी प्रदूषण की एक बड़ी वजह बना हुआ है। पुराने अनुपयोगी हो गये मोबाईल्स फोन आदि जिनका ठीक से विनष्टीकरण नहीं किया जा सका है, उनकी विषाक्तता से बच्चों के फेफड़ों को नुकसान, उनकी एकाग्रता में कमी, कमजोर, याददास्त और केन्सर जैसी बीमारियों के घेर लेने की संभावना बढ़ जाती है। एक अनुमान के अनुसार यदि ई-कचरा
इसी तरह बढ़ता रहा तो आगामी सन् 2022 तक 6.98 करोड़ टन अर्थात् 21 वीं सदी तक बहुत अधिक बढ़ जाने की आशंका बढ़ गयी है।
साफ-सफाई का अभाव
विश्व भर में आज भी ऐसे ग्रामीण इलाके विद्यमान हैं, जहाँ साफ-शुद्ध पेय जल का अभाव बना हुआ है। उसके साथ ही बहुत से लोग झुग्गी- झोपड़ियों में अपना जीवन जीने मजबूर हैं। इन्हीं हालातों में महिलायें, विशेषकर गर्भिणी महिलायें भी रहेगी ही, जहाँ जच्चा-बच्चा ऐसे वातावरण से प्रभावित हुये बिना कैसे रह सकते हैं? गरीबी के चलते ऐसे स्लम एरिया कुपोषण के शिकार बहुतायत से मिल जाते हैं, जिनकी संख्या 45 फीसदी के आसपास बतलायी जाती है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि प्रदूषित वातावरण बच्चों के लिये अत्यंत घातक सिद्ध होता है, क्यांेकि उनके अंग उस दौरान पूर्ण रूप से विकसित नहीं, हो पाते। उनका इम्यून सिस्टम भी मजबूत नहीं हो पाता। वे गंदे पानी और दूषित वायु की वजह से अनेकानेक रोगों की चपेट में आसानी से आ जाते हैं।

लेखक:- डाॅ. किशन कछवाहा

संपर्क सूत्र:- 9424744170