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अजान: हठधर्मिता, जिद क्यों

हिन्दुओं के दुःखों और उन पर हुये अत्याचारों को अक्सर नजरअन्दाज किया जाता रहा है। पिछले एक हजार सालों में हिन्दुओं के ऊपर बेहिसाब हमले हुये व नृशंसतम तरीकों से अत्याचार किये गये। आज तो भारत आजाद मुल्क है, जहां हिन्दू बहुसंख्यक हैं, फिर भी उनके दुःखों पर बात करने से संकोच किया जाता है। इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिये कि हिन्दू भले ही भारत में बहुसंख्यक हो, लेकिन विश्व की दृष्टि से तुलनात्मक आंकड़े यही बताते हैं कि वे अल्पसंख्यक है।

विश्व भर में नेपाल ही एक मात्र देश है, जहां हिन्दुओं की संख्या अधिक है। पिछले तीन चार दशक में भारत के अनेक प्रान्तों कश्मीर सहित केरल, तामिलनाडु, असम, प. बंगाल आदि में हिन्दुओं पर अत्याचार हुये और पूर्व सरकारें कुछ ठोस कार्यवाही करने में असफल रहीं।

पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दुओं पर आये दिन अत्याचार होते रहते हैं। सरकार द्वारा कुछ न कर पाने के कारण हिन्दुओं के इस विश्वास पर गहरा आघात पहुंचा है, उनका विश्वास डिगा है कि ‘‘भारत उनका और उनके पूर्वजों का घर है।’’ कतिपय राजनीतिक दल और मीडिया का एक वर्ग हिन्दुओं पर हुये अत्याचारों पर परदा डालने की कोशिशों में ही लगा रहा है लगा रहता है।

भारत के भीतर भी कतिपय प्रान्त ऐसे हें, जहां अब हिन्दू अल्पसंख्यक वर्ग में आते जा रहे हैं। ‘‘द कश्मीर फाइल्स’’ फिल्म ने कश्मीरी पंडितों के साथ हुये क्रूरतम अत्याचारों का चिट्ठा खोलकर रख दिया है। कश्मीर तो पूरा का पूरा मुस्लिम बहुत ही है।

असम जैसे राज्यों में मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ रही है। राजस्थान के जैसलमेर जिले से लगी भारतीय सीमा पर बिना अनुमति बड़ी संख्या में मजारें खड़ी कर दी गयीं हैं। मुस्लिम बहुत इलाकों से हिन्दुओं को भयाक्रान्त कर गाँव के गाँव खाली कराये जा रहे हैं। केरल जिसे भारतीय संस्कृति के संरक्षक आदि शंकराचार्य की जन्मभूमि कहा जाता है, इन दिनों हिंसा व रक्तपात की घटनाओं के कारण विशेष चर्चा का विषय बना हुआ है।

सन् 1990 के दशक में कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों का बलात् कराये गये पलायन के दौरान कैसी मजबूरी झेली गयी थी-उन दृश्यों को फिल्म देखकर रूह कांप उठती है। इन अत्याचारों पर कोई आवाज उठाने वाला नहीं था, क्योंकि मुसलमानों के वोट कीमती समझे जाते थे। साथ में आतंकी हमले और बम धमाके होते रहते थे। आज यह सब वहां नहीं होता क्योंकि केन्द्र में जो सरकार है, उसने ध्यान दिया है।

हैरत और आश्चर्य का विषय तो यह है कि हिन्दुओं के साथ इतना अत्याचार होता रहा और हमारे तथा कथित संकुलर नेता चुप्पी साधे रहे। तुष्टीकरण का खेल चलता रहा-क्या इसका भी ध्यान रखा जाना जरूरी नही है कि सन् 1947 में हमने विभाजन का दंश झेला है। पाकिस्तान में बंग्लादेश में अल्पसंख्यकों का क्या हाल है, वह भी देखा समझा जा रहा है। अफगानिस्तान के अंजाम भी देखे जा चुके हैं।

यह अत्यन्त आवश्यक है कि सरकारें समय पर होने वाले मजहबी उपद्रवों के समय सख्त से सख्त कार्यवाही करें, अन्यथा सरकार का मतलब क्या है?

सरकार का अर्थ है कि वह सज्जनों में, सिविल सोसाईटी में साहस का संचार करे, दुर्जनों में भय का विस्तार करे। शेष लोगों के लिये शांति और सुरक्षा की गारंटी सरकार और प्रशासन के पास नहीं होगी तो किसके पास होगी। यदि सरकार शांति की गारंटी नहीं देती तो बार-बार उत्पात और हमलों से नुकसान सहता समाज आक्रोशित हो सकता है और कानून हाथ में लेने की बात भी सोच सकता है कम से कम अब भारत में ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिए।

मस्जिदों में अजान के लिये लाऊडस्पीकर के प्रयोग पर देश भर में विरोध हो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय से लेकर कई राज्यों के उच्च न्यायालयों ने इस पर रोक भी लगायी है, लेकिन मुस्लिम समाज इसे नहीं मानता। क्या ऐसा करना उचित है? क्या यह लोकतांत्रिक व्यवस्था और सभ्य समाज के लिये कतई उचित है? पंथ निरपेक्षता की आड़ लेकर ऐसी जिद की जा रही है। ऐसा करना अन्य दूसरे मतावलम्बियों को नजर अंदाज करना या ललकारने जैसा कृत्य है।

लाऊडस्पीकर पर अजान क्यों? इसका विरोध पहली बार नहीं हो रहा। देश के अनेक हिस्सों में समय≤ पर आवाजें उठती रहीं हैं। इस बार मनसे के प्रमुख नेता राजठाकरे जैसे अनेक लोगों ने यह मुद्दा उठाया है कि यदि मस्जिदों के लाऊडस्पीकरों पर रोक नहीं लगी तो इससे भी तेज आवाज में ‘‘हनुमान चालीसा’’ पाठ किया जायेगा। उन्होंने यह भी कहा कि यह मुद्दा सामाजिक है, मजहबी नहीं।

मुम्बई के तीन सौ से अधिक वकीलों ने शहर की मस्जिदों में बिना अनुमति लाऊडस्पीकर से हो रही ध्वनि प्रदूषण पर रोक लगाने की माँग की है।

ब्रिटेन, जर्मनी, नीदरलैण्ड, स्विटजरलैण्ड, आस्ट्रिया, फ्रांस, नार्वे, बेल्जियम, फ्रांस और नाईजीरिया में ध्वनि सीमा तय है। दुबई, तुर्की और मोरक्को में अजान के लिये लाऊडस्पीकर का प्रयोग नहीं होता। इजरायल में भी इस पर पाबंदी है।

सर्वोच्च न्यायालय ने भी ध्वनि प्रदूषण को लेकर मानक तय कर रखे हैं, तब उनका पालन क्यों नहीं किया जाता? मस्जिदों में लाऊडस्पीकर पर अजान के शोर से मरीजों, बच्चों, बुजुर्गों और विद्यार्थियों को परेशानी होती है, इस कारण लाखों लोग परेशान हैं।

दुनिया के लोग हठधर्मिता, उन्माद और कट्टरता को स्वाकार नहीं करते। भारत में दो तरह की राजनीति है-एक, एक पक्षीय हिंसा को बढ़ावा देना-राजस्थान का उदाहरण प्रत्यक्ष है। करौली में नवसंवत्सर जूलूस पर हमले किये गये। हिंसक घटनाओं के बावजूद वहां की कांग्रेस सरकार में पीड़ितों के साथ न तो न्याय किया न ही किसी प्रकार की राहत दी। उल्टे एक अलग ही प्रकार का दुर्भाग्यपूर्ण रवैया अपनाया। महावीर जयंती पर भी लोगों को घरों पर धार्मिक ध्वज नहीं लगाने के आदेश जारी किये गये। शोभा यात्राओं पर पाबंदी लगा दी गयी।

दिल्ली की आप पार्टी की सरकार ने विरोधी रवेया अख्यितयार किया जिससे तुष्टीकरण हठधर्मिता और उन्माद को बढ़ावा मिला। इन उदाहरणों से अलग एक अच्छा काम भी चल रहा है सार्वजनिक सम्पत्ति का नुकसान पहुचाने वालों के साथ सख्ती बरती जा रही है, दंगाईयों के घरों पर बुलडोजर चल रहे हैं। दंगाईयों के कुकृत्यों से पीड़ित लोग अस्पतालोें में हैं, उनके घर नष्ट हो गये हैं।
लाऊडस्पीकर विवाद की जड़ कांग्रेस की वोट-बैंक की राजनीति का हिस्सा है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बोम्मई ने कहा कि केवल अजान ही नहीं सभी तरह से लाऊडस्पीकर कर प्रतिबंध लगाया जायेगा।

कश्मीर की समस्या कभी भी राजनीतिक नहीं थी। वह हमेशा से ‘मजहबी’ थी और ‘मजहबी’ है। जिस ‘बुतशिकन’ वाली मानसिकता ने भव्य मंदिरों को खंडहरों में तब्दील किया, उसी मानसिकता ने ‘कश्मीरी पंडितों’ पर जुल्म किये, अत्याचार किये, उन्हें बेघर किया। कभी किसी अंसारी, खान, सय्यद इत्यादि कश्मीर से क्यों नहीं भागे या भगाये गये? धर्म देखकर लोगों को भगाया गया। जो भारत पर आक्रमण करने वालों को अपना पूर्वज बताये उनका सख्त लब्जों में विरोध क्यों नहीं किया जाना चाहिये? ऐसा सोचकर आतंकवाद का विरोध भी किया गया होता-तो आज यह नौबत न आती।

मीडिया के एक वर्ग की भूमिका-
रामनवमीं पर देशभर में एक दर्जन से अधिक स्थानों पर हमले हुये। हिन्दू त्यौहारों और धार्मिक स्वतंत्रता के प्रति असहिष्णुता की आलोचना करने के स्थान पर भारतीय मीडिया के एक वर्ग ने हमलावरों का ही पक्ष लिया। जिन हिन्दू पीड़ितों ने हिंसा में अपने मकान, दुकान गंवाये उनकी व्यथा तो नहीं दिखायी गयी बल्कि दंगाईयों के मकानों पर बुलडोजर क्यों चला? यह प्रश्न उठाया गया। प्रशासन की कार्यवाही को प्रभावित करने फेक न्यूज भी छपवायी गयी। यू.पी. के हाथरस से दंगे भड़काने के आरोपी को मीडिया का एक वर्ग पत्रकार बताता है। उच्च न्यायालय में सिद्ध हुआ कि वह पत्रकार नहीं पी.एफ.आई. का कार्यकर्ता है। एक कट्टरपंथी दंगे भड़काने के आरोपी को पत्रकार सिद्ध करने के पीछे मंशा क्या थी? मीडिया की सहानुभूति, वह भी दंगाईयों के साथ? दूसरी तरफ झारखंड के देवघर में त्रिकूट पर्वत पर रोपवे घटना जिसमें लगभग 50 लोग कई घंटों फंसे रहे। पश्चिम बंगाल तृणमूल कार्यकर्ताओं के बेटे द्वारा एक अल्पसंख्यक लड़की के साथ हुये बलात्कार-हत्या के समाचार को दबा दिया गया या नाम मात्र को छाया।

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला-
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये एक निर्णय के अनुसार आवासीय क्षेत्रों में ध्वनि की सीमा 55 डेसीबल और रात में 45 डेसीबल होनी चाहिए। इसी तरह औद्योगिक क्षेत्रों में दिन में 75 डेसीबल व रात में 70 डेसीबल तथा व्यावसायिक इलाकों में दिन में 65 और रात्रि में 55 डेसीबल स्तर तक ध्वनि की अनुमति है।

महाराष्ट्र में लाऊडस्पीकर को लेकर उठा अजान का मामला अब कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार सहित देश के कई राज्यों तक पहुंच चुका है।

लेखक:- डॉ. किशन कछवाहा
सम्पर्क सुत्र:- 9424744170