Trending Now

अध्यात्म और राष्ट्र संत समर्थ गुरु रामदास….

महाराष्ट्र भूमि संत-महात्माओं की खदान है। ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, नामदेव, संत जनाबाई, मुक्ताबाई, सोपानदेव आदि का जन्म स्थान एवं कर्म स्थान महाराष्ट्र ही था। इन संतों ने भक्ति मार्ग द्वारा समाज में जन जागृति की। इसी श्रेणी के एक संत रामदास स्वामी भी थे।

इसी श्रेणी के एक संत रामदास स्वामी भी थे। जटाएँ, भालप्रदेश पर चन्दन का टीका, कंधेपर भिक्षा के लिए झोली तथा एक हाथ में जपमाला व कमण्डल और दूसरे हाथ में योगदण्ड (कुबड़ी) लिए व पैरों में लकड़ी की पादुकाएँ धारण किये भक्ति, ज्ञान व वैराग्य से ओत-प्रोत व्यक्तित्व के स्वामी समर्थ रामदास भारत के ऐसे सन्त हैं,

आध्यात्मिक सत्पुरुष गुरु समर्थ रामदास - Pravakta.Com | प्रवक्‍ता.कॉम

जिनकी महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण दक्षिण भारत में प्रत्यक्ष हनुमान जी के अवतार के रूप में पूजा की जाती है। समर्थगुरु श्री रामदास स्वामी का जन्म औरंगाबाद जिले के जाम्ब नामक स्थान पर चैत्र शुक्ल नवमी अर्थात रामनवमी को विक्रम सम्वत् 1665 तदनुसार शालिवाहन शके 1530 (1608 ई0) को दोपहर में जमदग्नी गोत्र के देशस्थ ऋग्वेदी ब्राह्मण परिवार में हुआ था ।

समर्थ रामदास का मूल नाम नारायण सूर्य (सूर्या) जीपंत कुलकर्णी (ठोसर) था। बाल्यकाल में उन्हें नारायण कहकर पुकारा जाता था । श्री राम के जन्म दिन श्रीरामनवमी के दिन इनका जन्म होने के कारण इनका नाम रामदास रखा गया।एक अन्य कथा के अनुसार, बचपन में ही उन्हें साक्षात प्रभु श्रीराम के दर्शन हुए थे।

इसलिए वे अपने आपको रामदास कहलाते थे। समर्थ रामदास के पिता का नाम सूर्य जी पन्त तथा उनकी माता का नाम राणुबाई था। सूर्या जी पन्त सूर्यदेव के उपासक थे और प्रतिदिन ‘आदित्यह्रदय’ स्तोत्र का पाठ करते थे। वे गाँव के पटवारी थे लेकिन उनका अधिकांश समय सूर्योपासना में ही व्यतीत होता था।

माता राणुबाई संत एकनाथ जी के परिवार की दूर की रिश्तेदार थी। वे भी सूर्य नारायण की उपासिका थीं। सूर्यदेव की कृपा से सूर्याजी पन्त को दो पुत्र गंगाधर स्वामी और नारायण (समर्थ रामदास) प्राप्त हुए। समर्थ रामदास के बड़े भाई का नाम गंगाधर को सब ‘श्रेष्ठ’ कहते थे।

वे आध्यात्मिक सत्पुरुष थे। उन्होंने सुगमोपाय नामक ग्रन्थ की रचना की है। मामा भानजी गोसावी प्रसिद्ध कीर्तनकार थे। बहुत समय से भारतीय जनता धर्म के मूल स्वरूप को भूल कर उसे सामान्य जीवन से कोई भिन्न बात मानने लग गई थी । जिससे लोग पूजा पाठ, जप तप करते हुए भी सामाजिक और राष्ट्रीय व्यवहार में विपरीत आचरण करने लग गए थे ।

उदाहरण के लिए जिन लोगों ने अपने स्वार्थ के कारण विदेशी आक्रांता को बुलाकर और उनके साथ षड्यंत्र रच कर देश को पराधीन कराया, जनता पर क्रूर अत्याचार करे, संपत्ति को लूट कर अपने अधीन कर लिया। उन्हें किसी ने अधार्मिक नहीं कहा ।

कारण यह कि इन समाज विरोधी कार्यों को करते हुए भी पूजा पाठ तीर्थ यात्रा दान दक्षिणा आदि का जिनको लोग धर्म कृत्य के नाम से पुकारते थे पालन करते थे । धार्मिक भावना की इस त्रुटि को समर्थ गुरु रामदास ने अनुभव किया और प्रवचन तथा वाणियों में समाज को यहसंदेश दिया कि केवल धर्म और अध्यात्म की चर्चा करने का कोई महत्व नहीं।

केवल चर्चा से कोई बात धर्म नहीं हो जाती, इसलिए उन्होंने जनता में धर्म के जिन सिद्धांतों का प्रचार किया तथा तदनुसार आचरण और लोक व्यवहार करने पर भी जोर दिया। उनके समय में विधर्मियों की प्रधानता के कारण हिंदू धर्म एक संकटकाल से गुजर रहा था । विदेशी ताकतों की राजनीतिक तथा सामाजिक भारतीय समाज में पैठ हो रही थी

और उसमें दूषित सिद्धांतों और क्रियाओं का समावेश हो रहा था। सामान्य भारतीय सनातनी हिंदू पहले से ही बहुदेववादी थे। वह राम, कृष्ण, दुर्गा, शिव ,गणेश ,सूर्य आदि के साथ और भी स्थानीय देवों की पूजा करते थे। अब मुगलों के संपर्क में आकर वह उनके फकीर और ओलियाओं को भी चमत्कारी मानकर पूजने लगे ।

ऐसे लोग मुसलमानों के ताजियों को भी एक प्रकार से मूर्ति समझकर उनकी मानता कर लेते थे और उस अवसर पर बाटें जाने वाले मलीदा को प्रसाद समझकर खा लेते थे । मान्ता पूरी होने पर ताजिए के नीचे से अपने छोटे बच्चों को निकालते थे । इस प्रकार हिंदुओं की श्रद्धा अपने धर्म पर से शिथिल होती जाती थी और समाज में तरह-तरह की दूषित प्रथाओं का भी प्रवेश होता जाता था।

इतना ही नहीं अनेक हिंदू पंडित और ब्राह्मण मुसलमानों के प्रभाव अथवा व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से मुसलमानों की कितनी बातों का समर्थन भी करने लगे थे। दक्षिण में दो ब्राह्मण किसी मुसलमान शासक के बरगलाने पर वैदिक कर्मकांड करने वालों पर आक्षेप करने लगे। उन्होंने कहा मुसलमान पशु वध करते हैं

इसके लिए यदि वे दोषी हैं तो ब्राह्मण भी यज्ञ में पशु हिंसा करते हैं वे दोषी क्यों नहीं ? यही पंडितों ने प्राचीन शास्त्रों और स्मृतियों में ऐसे श्लोक बनाकर सम्मिलित कर दिए जिनसे हिंदू धर्म की हीनता प्रकट होती थी और वह निर्बल बनता जा रहा था समर्थ गुरु रामदास ने हिंदू धर्म की इस विकृति को देखा तो इससे उनके हृदय को चोट लगी ।

वह आसपास के लोगों के ऐसे कार्यों और बातों को देखकर बाल्यावस्था से ही हानिकारक धार्मिक रूढ़ियों के संशोधन और सशक्त विचारधारा के प्रचार की कल्पना किया करते थे। उनके अनुयायियों का कहना है कि बहुत छोटी अवस्था में ही उन्होंने कितने ही हनुमान जी के मंदिर में बैठकर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जप किया था,

और उनकी निष्ठा से प्रसन्न होकर हनुमान जी ने प्रकट होकर मंत्र उपदेश देकर कहा- सारी पृथ्वी में यमन छाए हुए हैं अनीति का राज है दुष्ट लोग अधिकार सत्ता से मतवाले होकर साधु जनों को सता रहे हैं इसलिए तुम वैराग्य वृत्ति से कृष्णा नदी के तट पर उपासना करके ज्ञान प्राप्त करो और लोकोउद्घार में संलग्न हो जाओ ।

उसी समय से समर्थ गुरु ने अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य धर्म का संशोधन और उसकी रक्षा करना ही बना लिया। विवाह से विरक्ति और गृह योग एक तरफ बालक रामदास के हृदय में स्वधर्म और स्वजाति का यह अंकुर उत्पन्न हो रहा था और दूसरी तरफ उनकी माता रानू बाई उनके विवाह का विचार कर रही थी

उस समय मुसलमानों के अत्याचारों से बचने के लिए बाल विवाह की रीति विशेष रूप से प्रचलित हो गई थी । मुसलमानों की वक्र दृष्टि कुमारी कन्याओं पर रहने के कारण सामान्य श्रेणी के व्यक्ति विवाह विधि छोटी आयु में ही संपन्न कर देते थे । रामदास विवाह की चर्चा चलने पर नाराज होते और विरक्ति का भाव प्रकट करते।

एक बार इस संबंध में ज्यादा कहने सुनने पर वह जंगल में भाग गए उनके बड़े भाई गंगाधर उन्हें समझा-बुझाकर घर वापस लाएं। माता को कहां संतोष होता था वे जब कभी अवसर पाती तो उन्हें विवाह के लिए ही समझ आती रहती। एक बार आग्रह करते उन्होंने रामदास से विवाह के लिए हां करवा लिया। माता ने एक ब्राह्मण कन्या से उनका विवाह पक्का कर दिया ।

नियत तिथि पर घरवाले बारात के साथ कन्या के घर पहुंचे और भंवरों के समय अंतरपट पकड़ने के पश्चात ब्राह्मणों ने एक साथ सावधान शब्द का उच्चारण किया तो रामदास के मन में विचार आया कि यह लोग इतने जोर से सावधान क्यों कह रहे हैं, ? इसका क्या आशय है कि अब मैं एक ऐसे बंधन में पास पड़ने जा रहा हूं

जिससे आजन्म छुटकारा नहीं मिलेगा । ऐसा विचार आने से उनकी मनोवृत्ति एकदम बदल गई और विवाह मंडप से उठकर बड़े जोर से बाहर की तरफ भागे कुछ लोग उनको पकड़ने के लिए दौड़े पर उस हनुमान भक्त को कौन पा सकता था।

माता दुखी होने लगी तो बड़े भाई ने समझाया रामदास जहां रहेगा आनंद से ही रहेगा तो उसकी ज्यादा चिंता ना किया करो । उसने धर्म साधन का दृढ़ निश्चय कर लिया है इसलिए विवाह के लिए उसके पीछे पड़ना ठीक ना होगा ।

स्वामी रामदास जयंती : 12 साल की उम्र में घर त्यागकर बने थे संत, हनुमान अवतार के रूप में होती है पूजा | 12 years old Swami Ramdas left home and became Saint

समर्थ रामदास और उनकी साधना-विवाह मंडप से भागने के बाद रामदास ने जीवन साधना में लग जाना आवश्यक समझा और वे अपने गांव से कई 100 मील की यात्रा करके कर के प्रसिद्ध तीर्थ पंचवटी नाशिक पहुंच गए यहां गोदावरी के तट पर भगवान राम का प्रसिद्ध तीर्थ है

वहां पर भी टाकली नामक स्थान पर रहकर जब तक और भजन करने लगे प्रातः काल से दोपहर तक गोदावरी के जल में खड़े होकर जब करते रहते थे दोपहर के बाद दीक्षा लेकर भोजन करते तथा भजन और जब में लग जाते इस प्रकार 12 वर्ष तक तपस्या करके उन्होंने अनंत क्वेश्चन कर डालें इस तपस्या का फल उन्हें आत्मिक शक्ति के रूप में मिला ।

12 वर्ष तक टाकली में तपस्या करके समर्थ गुरु रामदास ने शरीर और मन पर पूरा नियंत्रण प्राप्त कर लिया तब वे लोक कल्याण अथवा धर्म स्थापना के लिए स्वदेश की स्थिति का निरीक्षण करने बाहर निकले। प्राचीन समय में जब संसार के कोई भी आधुनिक तकनीक उपलब्ध नहीं थी,

तब वह जनता का नेतृत्व करने वाले संतो महापुरुषों को समस्त देश में घूमकर समाज और धर्म की अवस्था का निरीक्षण करना अनिवार्य होता था इसके लिए उन्हें लंबी और कठिन मार्गों पर पैदल चलना जैसा भोजन जब मिले उसी पर संतोष करना दो-चार दिन ना मिले तब भी व्याकुल ना हो ना सर्दी गर्मी आंधी तूफान सब प्रकार की प्राकृतिक कठोरताओं को शरीर पर सहन करना

विभिन्न प्रांतों के निवासियों से व्यवहार करना मिलजुल कर काम निकालना आधी तरह की कठिनाइयां सहन करनी पड़ती थी इस तरह देश की सच्ची स्थिति का परिचय हो जाता था चाहे देश की राजनीति आर्थिक सामाजिक सभी समस्याओं का ज्ञान हो जाता था समर्थ गुरु रामदास इस तथ्य को अच्छी तरह से समझते थे

उन्होंने इस प्रकार ब्राह्मण का निश्चय किया और निर्वाह के लिए भिक्षावृत्ति को अपनाया दीक्षा के महत्व को बतलाते हुए उन्होंने एक बार कहा था कि भिक्षा निर्भय स्थिति है दीक्षा से महानता प्रकट होती है और ईश्वर की प्राप्ति होती है इतना ही नहीं उसे स्वतंत्रता भी मिल जाती है यदि स्वदेश दिशा का ज्ञान प्राप्त करना हो तो भिक्षावृत्ति से बढ़कर नहीं है।

ग्राम हो, चाहे नगर घर-घर छान डालना चाहिए। छोटे-बड़े सब प्रकार के लोगों की परीक्षा कर डालनी चाहिए । ऐसा करने से लोगों के सुख और दुख मालूम पड़ जाते हैं। उनके ज्ञान का लाभ भी अपने को मिलता है । उनका यह भी कहना था कि भिक्षा के लिए एक मुट्ठी अन्न और लेकर बाकी का लौटा देना चाहिए अर्थात दान रूपी थाती का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।

उसमें से अपने लिए कम से कम लेकर अपना जीवन समाज सेवा के लिए अर्पण कर देना चाहिए ना की भिक्षा को मुफ्त का माल समझकर पेट भरने का साधन बना लेना चाहिए। यह महा निंदनीय कर और हरामखोरी ही है।

प्रथम कर्तव्य राष्ट्र और समाज की रक्षा-समर्थ गुरु रामदास जी का जीवन उद्देश्य विदेशी आक्रमणकारियों और विधर्मी के दमन तथा अत्याचारों से जर्जर हिंदू जाति में फिर से नवजीवन का संचार करना था । उस समय लगभग पांच छह सौ वर्षों की पराधीनता के कारण हिंदू जनता का आत्मविश्वास बहुत कुछ नष्ट हो गया था

और वे पारस्परिक फूट तथा संगठन के अभाव से अपने को मुसलमानों से हीन अनुभव करने लगे थे।  हिंदुओं में अप्रत्यक्ष रूप से मुसलमानों की संस्कृति सभ्यता और बहुत से रीति रिवाजों का प्रवेश हो जाता था और इससे हिंदू धर्म में तरह-तरह की विकृतियां पैदा होने लग गई थी।

उन्होंने 12 वर्ष तक देश में भ्रमण किया और प्रत्येक वर्ग तथा स्तर के व्यक्ति की परिस्थिति को जान लिया था। जब ब्राह्मण समाप्त करके वे अपने आश्रम में स्थिर होकर बैठते तो हिंदू जाति के पुनरुद्धार की समस्या पर गंभीरता पूर्वक विचार करने लग जाते हैं अंत में भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचते कि हिंदुओं में जो आत्म हिंसा और संगठन का दोष उत्पन्न हो गया है

उसे सबसे पहले हटाने का प्रयास करना चाहिए इसके लिए सबसे पहले संगठन की आवश्यकता थी इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने साधु कार्यकर्ताओं और मंदिर मठों की स्थापना का कार्य किया वह भ्रमण काल में जहां भी जाते वहां वे मठों की स्थापना कर देते।इस कारण से कुछ वर्षों में संगठन केंद्रों का जाल स्विच गया पर वह यह भी समझते थे कि-

सामान्य जनता के ग्रंथों के जागृत और कर्तव्यनिष्ठ बनें बिना इस कार्य में दृढ़ता और स्थायित्व नहीं आ सकता इसलिए उन्होंने अपने उपदेशों में ग्राहकों को हमेशा संबोधित करते हुए यही कहा कि अनेक वर्णों और आश्रमों का मूल गृहस्थाश्रम ही है जिसमें तीनों लोगों के प्राणियों को विश्राम मिलता है

File:Samarth ramdas swami & kalyan swami.jpg - Wikimedia Commons

देव ऋषि मुनि योगी तापस वीतराग पित्र अतिथि अभ्यागत क्षति ग्रस्त आश्रम से ही उत्पन्न होते हैं यदि यह लोग अपना आश्रम छोड़कर निकल जाते हैं तो फिर भी यह आश्रित के रूप में ग्रस्त के घरों में ही घूमा करते हैं इसलिए वह आश्रम ही आश्रम से बढ़कर है लेकिन इस आश्रम में रहकर अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए वह आत्मिक उन्नति आवश्यक समझते थे। जानते थे कि-

राष्ट्र को शत शत शत और चूर्ण बनाना है तो धर्म के साथ लोगों को राजनीति की भी आवश्यकता है भारतीय शासक शक्तिशाली सब तरह से रण कुशल होने पर भी विदेशियों की कूटनीति और छल बल के कारण हार गए मुसलमान आक्रमणकारियों ने सर्वप्रथम भारतीय नर्सों में फोटो उत्पन्न करके उनके भीतर अपने विधियों को गुस्सा कर अपने देश में कदम जमाया था

भारतवासी सचेत रहते और इनके फैलाए हुए जाल को समझ जाते तो आज भारत की दुर्दशा नहीं होती मुसलमान शासक हमारे यहां राज नहीं कर सकते थे इसीलिए उन्होंने अपने अनुयायियों को धर्म के साथ राजनीति का भी उपदेश दिया। सामाजिक कर्तव्य का पालन करना भी समाज के रहने वाले व्यक्तियों को करना चाहिए

ऐसा समर्थ गुरु रामदास जी का मानना था। जिससे अपनी उन्नति और भलाई के साथ समाज का भी हित होता है । जो व्यक्ति केवल अपने हित का ध्यान रखते हैं और लाभ के लिए दूसरों का अहित करने में संकोच नहीं करते उनको समाज का शत्रु ही समझना चाहिए । इसलिए समर्थ गुरु के उपदेशों का सार यही है स्वयं जियो और दूसरों को जीने दो।

उन्होंने अनेक अन्य संतों के समान यह नहीं कहा कि स्वयं कष्ट सहन और सब तरह के त्याग करते हुए दूसरे लोगों को ही सुख पहुंचाओ । इस तरह के उपदेश सुनने में भले ही बड़ा, ऊंचा और आदर्श जान पड़े, पर वह साधारण गृहस्थों के लिए उपयोगी नहीं हो सकता । वे कहते थे पहले स्वयं आवश्यकतानुसार भोजन कर लेना और तब बचा हुआ अन्न बांटना चाहिए ।

इस प्रकार मनुष्य को पहले स्वयं ज्ञान से तृप्त होना चाहिए तब वह ज्ञान दूसरों को देना चाहिए ।जो तैरना जानता है उसे दूसरों को डूबने न देना चाहिए । पहले स्वयं उत्तम गुण गृहण करना चाहिए और तब वे गुण दूसरे लोगों को सिखलाने चाहिए ।

भारतीय समाज की दुर्बलता का एक मुख्य कारण यहां का बहू देव वाद सिद्धांत बिरहा यदि प्राचीन मनीषियों ने एको हम बहु श्याम इसका समाधान कर दिया, पर सर्वसाधारण इस तत्व को समझने में असमर्थ रहे परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज विविध संप्रदायों में और उसमें विभिन्नता और निर्मलता आ गई है जिसके कारण भारतीय राष्ट्र की शक्ति क्षीण हुई है,

श्री समर्थ ने अपना इस तथ्य को समझा और राष्ट्र संगठन में बाधा स्वरूप माना यद्यपि उन्होंने प्रधान रूप में राम उपासना का प्रचार किया और हनुमान जी की प्रतिमा के सैकड़ों छोटे बड़े मंदिर स्थापित पर उन्होंने- यह भी कह दिया कि वह राम परमात्मा के रूप में एक है और हम देश काल के प्रभाव से जिन अनेक देवी देवताओं की पूजा उपासना करते हैं,

वह सब उसी आत्म तत्व के रूपांतर है इस बात को उन्होंने दासबोध विविध देवता अध्याय में बड़े अच्छे और मनोरंजक ढंग से प्रकट किया है। दासबोध वास्तव में समय अनुकूल शिक्षाओं का भंडागार है। वह राष्ट्र के एक सच्चे संगठन करते थे  इसलिए धर्म चर्चा पूजा उपासना आदि के माध्यम से उन्होंने लोगों की अंधविश्वास की भावनाओं को दूर करके कर्तव्य परायण बनने की शिक्षा भी है। 

धर्म की शक्ति संसार में सबसे अधिक प्रबल है हमारे शास्त्रों में तो स्पष्ट कहा गया है जो धर्म की रक्षा करता है उसकी रक्षा धर्म अवश्य करेगा। श्री समर्थ दासबोध में कहते हैं कि- साधु का मूल लक्षण यह है कि सदा अपने वास्तविक स्वरूप को समझता रहे संसार में रहते हुए भी उस में लिप्त ना हो वह जब अपने स्वरूप को समझ लेता है।

Pin on Great Indian Saints

तो उसे संसार की चिंता जरा भी नहीं होती। श्री समर्थ एकमात्र ऐसे धर्म नेता थे जिन्होंने धार्मिक प्रचार से खुले तौर पर राष्ट्रीय संगठन को सुंदर बनाने का काम लिया और उसके द्वारा मुगल बादशाह हद जैसी विशाल सकता पर करारा प्रहार करके उसे जर्जर बना दिया।

उन्होंने भारतीय समाज को चैतन्य होकर अपना न्याय अनुकूल अधिकार प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार से प्रेरित किया वह निरंतर जप तप करते रहते थे पर वह केवल धर्म शास्त्रों का प्रवचन करने वाले नहीं थे वे जनता के सच्चे शिक्षक थे और अध्यात्म तथा व्यवहार का समन्वय करके ऐसा मार्गदर्शन करते थे

जिससे सांसारिक बाधाओं का निराकरण होकर लौकिक और पारलौकिक दृष्टि से मानव जीवन सफल हो सके उन्होंने अपने कार्य पद्धति से महाराष्ट्र में ऐसी जागृति उत्पन्न कर दी कि वह विदेशी शासन का सर्वथा अंत हो गया और आगे चलकर समाज और देश पर उसका बहुत प्रभाव पड़ा।

             सुषमा यदुवंशी
(लेखिका शिक्षविद एवम् समाजसेविका है)