स्वतंत्र भारत के एक ऐसे मनीषी जिन्होंने अपनी वैचारिक तपस्या से प्राप्त, शब्द ज्ञान के वरदान को, भारतीय संस्कृति को, अभिसिंचित करने के लिए, कलम के माध्यम से वितरित कर दिया।
नरेंद्र कोहली ने जब दीक्षा-अभ्युदय का लेखन किया तब संपूर्ण समाज स्वतंत्रता के लिए सामर्थ्य एकत्रित करने एकजुट हो रहा था और स्वतंत्रता के पश्चात भी भारत के वैचारिक समाज में मूक समर्पण था।
समाज की वैचारिक चेतना शुन्य हो गयी थी । जन मानस ने अपने गौरवपूर्ण इतिहास और आलेखों को विस्मृत कर दिया था। वह स्वयं यह नहीं समझ पा रहा था कि उसका इस राष्ट्र के लिए ध्येय क्या है? उचित अनुचित के स्थान पर अंधानुकरण का दौर था।
भारतीय अध्यात्म चिंतन मौन था। क्यों? क्योंकि स्वार्थ में लिप्त स्व स्तुति पाने वालों के प्रति समर्पित जनमानस तक, चिंतकों की वाणी नहीं पहुँच रही थी। राष्ट्र, सीमाओं पर कठिन संघर्ष कर रहा था और क्षेत्रफल संकुचित हो रहा था। समाज “स्व” के मिथ्या बोध में लिप्त अपनी अनमोल धरोहरों को समेटने में असमर्थ था ।
ऐसे समय में नरेंद्र कोहली जी के वैचारिक सूर्य का “अभ्युदय” हुआ और उन्होंने दिशाहीन समाज को स्व- चिंतन में जोड़ने के लिए महाकाव्य को महालेखों में परिवर्तित कर, पथच्युत हुए जनमानस को राष्ट्रपुरुष भगवान श्री राम के जीवन चरित्र से जोड़ दिया । उन्होंने “दीक्षा”उपन्यास की रचना करके वैचारिक क्रांति का श्रीगणेश किया ।
राष्ट्र पुरुष श्रीराम जिनका जीवन चरित्र शक्तियों और सामर्थ्य में सप्तसागर जितना अगम-अथाह है, किंतु समाज को संघर्षों का पाठ पढ़ाने के लिए मानवीय अवतार के रूप में समय और मर्यादाओं में सिमटा हुआ भी।
नरेंद्र कोहली जी के उपन्यास अभ्युदय के प्रथम खंड में दीक्षा में राजर्षि विश्वामित्र जो स्वयं राजपुरुष थे और हजारों हजारों वर्षों की घोर तपस्या से प्राप्त दिव्य शास्त्रों के लिए राम जैसे साधक का शोध कर रहे थे। विश्वामित्र जिनमें राजा त्रिशंकु के लिए स्वर्ग निर्माण करने का अद्म साहस था, सामर्थ था।
आज अपने वनवासी जीवन में लोक कल्याण के लिए किए जा रहे सात्विक कर्मों में ताड़का के आतंक से तस्त्र थे। दानवों के उत्पात से उनका आश्रम क्षत- विक्षिप्त हो गया था। राजर्षि विश्वामित्र आपने आश्रम के पुर्ननिर्माण के लिए, दानवी शक्तिओं के दमन के लिए,
आश्रम वासियों के आत्म बल को सुदृढ़ करने के लिए राजा दशरथ की नगरी अयोध्या पहुँचते हैं ।दीक्षा में नरेन्द्र कोहिली जी ने विश्वामित्र और दशरथ जी के मध्य बहुत ममस्पर्शी संवाद से वस्तु स्थिति का वर्णन किया है। कोहिली जी ने समाज के कल्याण के लिए विश्वामित्र के दो पहलुओं को एक साथ स्थापित किया
एक ओर दिव्य शस्त्रों की शक्तियों सम्पन्न राजर्षि का असीम सामर्थ तो दूसरी ओर राजा दशरथ से सहायता के लिए उनका विनम्र आग्रह का भाव। यहाँ लेखक ने समाज के राजनीतिज्ञों और सामर्थ्यवानों को संदेश दिया कि राष्ट्र के कुशल संचालन के लिए शक्तिशाली होने के साथ-साथ विनम्र भी होना चाहिए।
लेखक नरेन्द्र कोहली जी की वैचारिक गंभीरता “दीक्षा” नामक इस उपन्यास में स्पष्ट परिलक्षित होती है जिसमें राजा दशरथ-रघुकुल शिरोमणि, भागीरथ के वंशज, युद्ध जिनका क्षत्रिय धर्म था, स्वयं जिन्होंने अपनी तरुण अवस्था में इंद्रादि देवताओं के साथ मिलकर दानवों से घोर युद्ध किया
वह आज अपने जेष्ठ कुमार राम को ताड़का के वध हेतु विश्वामित्र के साथ भेजने लिए भयभीत हो रहे थे। राक्षस स्वयं जिनकी अयोध्या नगरी के निकट आने का साहस नहीं करते, जो राम स्वयं संपूर्ण जीव जगत के एकमात्र आधार है उनकी सुकुमार देह को राक्षसों से युद्ध करने के उद्देश्य से वन में भेजने के लिए अयोध्यापति आशंकित है ।
दशरथ राजा आज अपने राम के जीवन को संकट से सुरक्षित रखने विश्वमित्र से हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे है। दीक्षा उपन्यास यहाँ स्पष्ट करता है कि, विश्वामित्र सदैव से हठयोगी रहे उन्हें राजा की चतुरंगणी सेना के स्थान पर मात्र राम ही चाहिए थे। महाराज दशरथ लोक कल्याण के वचन से आबद्ध अंततः नियति के अनुसार राम को विश्वामित्र जी के साथ वन जाने की स्वीकृति जिस मनोदशा के साथ देते हैं वह बहुत ही मार्मिक है।
नरेंद्र कोहली जी दीक्षा में भारतीय दर्शन का सुंदर प्रस्तुतीकरण करते हैं। राजर्षी जिन्होंने अपने तपोबल से दिव्य शस्त्रों को धारण किया उनके आश्रम में नक्षत्र, पुनर्वसु जैसे कई उत्कृष्ट शिष्य थे, जो मंत्र और शस्त्र शक्ति के ज्ञाता थे। इन सभी के होते हुए राम की आवश्यकता क्यों?
जब राम ने विश्वमित्र जी से इस प्रश्न का उत्तर देने का आग्रह किया तब विश्वामित्र ने बहुत ही सुंदर ढंग से उनके प्रश्नों का समाधान किया। एक ओर राजर्षि विश्वामित्र का चिंतन है तो दूसरी ओर इन सिद्धियों को कार्य रूप में परिणित करने के लिए राम का सामर्थ्य। चिंतन में कर्म का सामर्थ्य होगा तो मानसिक चेतना उद्वेलित होगी परिणाम विनाश की ओर जा सकते हैं,
अतः दोनों को पृथक रखकर ही कल्याण का सृजन किया जा सकता है। इतने पवित्र, समृद्ध शस्त्रों के संधान के लिए राम जैसे मर्यादित व्यक्तित्व की आवश्यकता है। इन संवादों से स्पष्ट होता है , कि ज्ञान का प्रवाह और प्रयोग के लिए पात्र और कुपात्र को ध्यान में रखना अनिवार्य है।
यदि कुपात्र को ज्ञान रूपी शस्त्र मिला तो वह विनाश की गाथा को जन्म देगा और यदि मर्यादित हाथों में इन शस्त्रों को सौंपा जाय तो उसका प्रभाव गंगा की तरह शीतल और कल्याणकारी होगा। दीक्षा में नरेन्द्र कोहली जी ने विश्वामित्र या दशरथ की मनोदशा के साथ साथ श्रीराम के मर्यादित आचरण को भी वर्णित किया है,
जहाँ श्रीराम द्वारा नारी के जीवन पर गंभीर चिंतन भी किया है। एक ओर ताड़का जैसी विनाशकारी शक्तियों का सामर्थ्य रखने वाली नारी का वध करने में लेशमात्र विचार नहीं किया क्योंकि जन कल्याण के लिए यही उचित था। वही इन्द्र जैसे दूषित कृत्यों से छली अहिल्या के आत्मसम्मान को समाज में पुनः स्थापित किया।
पश्चाताप की पावन पावक में धधक कर अहिल्या का चरित्र कुंदन हो गया था। पुरुष प्रधान समाज द्वारा मात्र अहिल्या को दोषी ठहराना संपूर्ण नारी समाज के साथ अन्याय था। “जड़वत् आहिल्या का उद्धार करके श्रीराम ने पुरुष की सबलता से छली स्त्रियों को आत्मसम्मान दिलाने की पहल की।”
माता जानकी और श्रीराम के चरित्र का दीक्षा के शब्दों ने सटीक मंचन किया है।एक ओर स्वामी भक्ति का भाव और समर्पण की अनंत सीमा जहाँ अतृप्त दशानन से सुरक्षित रहने तृण से ढाल , वहीं असत्य पर सत्य की विजय के शंखनाद से जानकी जी का राम तक आना किंतु प्रखर अनल में प्रवेश कर पवित्रता का प्रमाण,
यह सब उच्छृंखल मनोवैज्ञानिक समाज को शांत करने के मनोभाव है।इसमें श्रीराम को भगवन का अवतार न मानकर अत्यंत दृढ निश्चय वाले एक कर्मठ मनुष्य के रूप में दिखाया गया है जहाँ मानस का सार भी है और राम की गरिमा भी।
दीक्षा के प्रत्येक प्रसंग में श्रीराम के चरित्र को एक अवतरित पुरुष न मानकर सामान्य राजकुमार की तरह प्रस्तुत किया गया। आज की युवा पीढ़ी यदि उसे पढ़ती हैं तो उन्हें समाज के प्रति अपने दायित्वों का बोध होगा। किस तरह युवा सामर्थ को अपनी तरुण अवस्था में मन , मस्तिक और तन पर नियंत्रण करके समाज के अनुरूप आचरण करना चाहिए।
युवाओं के द्वारा किए गए कृत्यों का प्रभाव किस तरह समाज पर अनुरूप या प्रतिकूल रुप से पड़ता है । साहित्य लेखन में आप आधुनिक प्रयोगधर्मी रहे आपने अपनी लेखनी को किसी धर्म में डुबोकर साहित्य की रचना नहीं की, पूर्व में लिखे गयें महाकाव्यों से उनकी वैज्ञानिक मार्मिकता को निचोड़ कर महालेखों में परिवर्तित कर समाज को पुनः उनकी मूल धारा से जोड़ा ।
यह देश की , समाज की विपरीत परिस्थितियों में करना बहुत कठिन था । नरेन्द्र कोहली जी ने राष्ट्र के सजग प्रहरी की भाँति आपने भटके हुए समाज को जो दिशा दिखाई उसके लिए समाज आपको नमन करता है और श्रीराम जी के चरणों में वंदन करता है।