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अपनी भाषा को सम्मान के साथ जीने का अधिकार

भाषा हमारी संस्कृति का हिस्सा है और हमारी पहचान है। भाषा हमारे दैनिक जीवन में इतनी घुली मिली है कि कई बार हम उसके विषय में सोचते भी नहीं। भाषा को लेकर विचार या तो राजनीतिक मुद्दों के माध्यम से आता है या फिर केरियर के विषय में सोचने पर। लेकिन हमें इससे अलग स्वयं यह देखना चाहिए कि मातृभाषा को लेकर हमारा व्यवहार कैसा है इसके लिए हम उन माध्यमों का चयन कर सकते हैं जो हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा है।

फिल्में मनोरंजन का महत्वपूर्ण माध्यम है। बीते कुछ वर्षों का व्यवसाय देखें तो यह स्पष्ट रूप से पता चलता है कि दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनने वाली अधिकांश फिल्मों के हिन्दी रिमेक मिल जाएंगे। यही नहीं बड़े वजट की फिल्मों की हिन्दी डबिंग भी बड़े स्तर पर हुई है। बाहुबली एवं हाल ही में आई आर आर आर इसके उदाहरण हैं। 600 करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म ने 1000 करोड़ से भी अधिक का व्यवसाय किया। निर्देशकों और निर्माताओं ने भी भाषा के समीकरण को समझा है और फिल्म में क्षेत्रीय भाषा के साथ ही हिन्दी में भी प्रदर्शित किया जिससे कि अधिक से अधिक दर्शक फिल्म को देख सकें। बड़े बजट के साथ बनने वाली दक्षिण भारतीय फिल्मों के निर्माता वे हैं जो मुख्य रूप से समझ आता है कि मनोरंजन के लिए मातृभाषा ही प्राथमिकता है और इस प्राथमिकता को सिनेमा और टेलीविजन ने अपने मुनाफे के लिए काफी चतुराई से इस्तेमाल किया है।

बात जब शिक्षा एवं नौकरी की आती है तो यह प्राथमिकता बदल जाती है। मातृभाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा को सीखने का दबाव कुछ वैसा ही है जैसे कि सबटाइटल के साथ किसी अन्य भाषा की फिल्म को देखना। जहां आधा समय दृश्य और संवादों को समझने में ही लग जाता है। उसमें वो सहजता नहीं है जो अपनी मातृभाषा के साथ है। वैश्विक अर्थव्यवस्था ने हर किसी को दूसरी या तीसरी भाषा सीखने के लिए विवश कर दिया है और इसका नुकसान हर भाषा को हुआ है।

हिन्दी सिनेमा की बढ़ती दर्शक संख्या बताती है कि भाषा केवल राजनीति और व्यवसाय का मुद्दा नहीं है। भाषा और मनुष्य का संबंध आत्मिक है और भावनात्मक भी। हमें चाहिए कि शिक्षा और नौकरी के अवसर भी हमें हमारी भाषा में उतने ही सहज रूप से उपलब्ध हो जितने सहज रूप से अन्य भाषाओं की फिल्में। जिससे कि शिक्षा को बोझ की तरह ढोने से मुक्ति मिले और अपनी ही भाषा में उसको सीखने का अवसर भी।

– लखन रघुवंशी