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अभिव्यक्ति की आजादी: पक्षपात पूर्ण रवैया

क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्षेत्र देखकर या समुदाय की आक्रामकता के आधार पर तय की जायेगी? अहं प्रश्न यह भी उठाया जाता है कि कौन सुनिश्चित करेगा कि ‘हेट स्पीच क्या है और क्या नहीं? ऐसे भी हालात उपस्थित हुये हैं, जिनमें उसी बात के लिए  एक सजा मिली और दूसरे को छूट-यह कैसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।’ इसमें दोष साफ नजर आता है।

सन् 1950 में संविधान अस्तित्व में आया। अठारह महीने की अवधि में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू सरकार की ओर से अभिव्यक्त की स्वतंत्रता पर एक संशोधन लेकर आ गये। उनकी सरकार थी, संशोधन पारित होगया। देश में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि एक प्रकरण में एक को पूरी आजादी दे दी गयी, जबकि दूसरे पक्ष के साथ वैसा नहीं किया गया। प्रश्न उठना स्वाभाविक थे।

एक समूह ऐसा भी है, जो देश में असहिष्णुता का रोना रोता रहता है, वास्तविकता का संज्ञान लिया जाये तो असलियत यह सामने आती है, ऐसा रोने का ढोंग करने वाले स्वयं सबसे बड़े असहिष्णु हैं। इस कालखण्ड में सांस्कृतिक पुनर्जागरण  के प्रयास हो रहे हैं, अतः इसे राष्ट्र के भाग्योदय का समय भी कहा जा सकता है – इसमें अतिशयोक्ति कतई नहीं है। इस समय मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती थी, लेकिन मीडिया को दो धारी तलवार कहा जाने लगा है, इसके कई कारण है। इसमें शक नहीं है कि सोशल मीडिया ने भारतीयों को जगाने का प्रयास कुछ अंशोंतक  आगे आकर किया भी है।

भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा और तथाकथित सेकुलर हिन्दुओं की आस्था पर चोट पहुंचाते रहे हैं, प्रश्न खड़े करते रहे हैं, और इस खुल्लम खुल्ला विरोध को अभिव्यक्ति की आजादी का जामा पहना कर साफ-साफ बच जाने की नासमझी भरी कोशिशें भी लम्बे समय से चलती रही हैं और ऐसे तत्वों को सरकारी संरक्षण और प्रश्रय, प्रोत्साहन भी मिला है।

दुर्भाग्य का विषय यह है कि अन्य दूसरे धर्म के बारे में उनकी गलत नीयत को देखकर या तो आँखें बन्द कर ली जाती रहीं हैं या उपेक्षा पूर्व रवैया अपनाया गया। वह प्रक्रिया आज भी जारी है, शिवलिंग सहित अन्यान्य हिन्दू प्रतीकों को लेकर तरह-तरह के मजाक भी बनाये गये-ऐसे अनेकानेक उदाहरण सामने आ चुके हैं। यही बात दूसरे धर्म के साथ होता है तब न केवल भीड़ मस्जिदों की नमाज के बाद निकल कर आती है, दुकानों में तोड़- फोड़ करती है, आगजनी और पथराव करती है। ऐसे नतीजे सामने आते हैं। विश्व भर के मुस्लिम देश अपनी एक जुटता बताकर भारत से माफी माँगने जैसी आवाज बुलंद करते हैं। ऐसा इसलिये है कि हिन्दू सहिष्णु है, सहनशील है, और संविधान को मानने वाला है।

राजस्थान के उदयपुर की घटना जिसमें पिछड़े वर्ग के कन्हैयालाल ट्रेलर की निर्मम हत्या की गयी थी। इस बर्बरता पूर्ण हत्या को सामान्य नहीं माना जा सकता। इस घटना के पीछे उन्मादकारी परिस्थितियाँ तैयार की गयी थी, इसके पीछे थी खाद पानी देने वाली विभाजनकारी राजनीति जिसके अंतर्गत तुष्टीकरण की चालाक पैतरेबाजी और समाज को दो टुकड़ों में बांटने की नापाक कोशिशें, जो जिन्ना से लेकर अब तक चलायी जा रहीं हैं।

राजस्थान सरकार का निकम्मापन भी इसमें जाहिर हो चुका है, जिसने समय रहते पर्याप्त सतर्कता नहीं बरती, विवाद की सूचना होने पर भी। यदि इस्लाम शांति का मजहब है, तो इस्लाम को मानने वाले दुनियाभर में ऐसी वारदातों के विरोध में खड़े क्यों नहीं होते? इसके उलट इस्लाम  मानने वाले शरिया की जिद पर अड़े रहते हैं। अभी तक जो तथ्य सामने आये हैं, उनसे तो यही पता चलता है कि ऐसी हिंसा में सिर्फ हत्यारे जिम्मेदार नहीं है, इसके एक पूरी मानसिकता काम कर रही है। वे कौन लोग हैं, जो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ‘‘आई स्टेंड फार जुबैद’’ का हेशट्रेक ट्रेड करा रहे हैं? बाकायदा साम्प्रदायिक घृणा फैलाने वाला अभियान चलाया जा रहा है। अभी हाल में रूस ने एक मुस्लिम अपराधी को पकड़ा है, जो भारत के शीर्ष नेता की हत्या की ट्रेनिंग लेकर भारत आना चाहता था।

इस मजहबी रक्त रंजित हत्या कांड में कई सवाल खड़े कर दिये हैं। इन गहरे सवालों का जबाव इतिहास में दर्ज है। फरवरी 2022 में कोटा (राजस्थान) में हिन्दु नवसंवत्सर के दिन करौली में पथराव और आगजनी हुयी थी और पी.एफ.आई. ने मुख्यमंत्री और डी.जी.पी. को चिट्ठी लिखकर साम्प्रदायिक घटना की धमकी दी थी। ऐसी बीसों वारदातें सामने आ चुकी हैं।

उस समय आलोचक और विपक्ष चुप्पी धारण कर लेते हैं, जब सबसे पुरानी पार्टी का राजकुमार विदेशों में जाकर भारत माता के प्रति अशिष्ट शब्दों को उपयोग करता है, भारत एक राष्ट्र नहीं है-कहता है। ऐसे व्यक्तियों के लिये ऐसा सब ‘‘फ्रीडम आॅफ स्पीच’’ की सीमा के भीतर समा जाता है।

आश्चर्य तो तब होता है, जब हिन्दुओं के करवा चैथ त्यौहार का विरोध करने वाले ‘हिजाब के समर्थन में’ अनाप-शनाप बयान बाजी कर अपना आक्रोश व्यक्त करने लगते हैं। ऐसा तब हो रहा है, जब हिन्दू आबादी बहुसंख्याक है। एक कविता की कुछ पंक्तियाँ जन जन में चर्चा का विषय बन गयी हैं-

‘‘आजादी है, अंसारों के लिये कोर्ट खुलवाने की, आजादी है घुसपैठियों पर चलते बुलडोजर रूकवाने की।’’

कोरोना के दुर्भाग्य पूर्ण कालखंड में भी विपक्ष नेकनीयती की मिशाल पेश नहीे कर सकी। अंतिम संस्कारों के दृश्य दिखाने में भी शर्म महसूस नहीं की। यहाँ इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि  संविधान में संशोधन कराके नेहरूजी ने बोलने की आजादी कुछ विशेष शर्तों के साथ दी है।

इन तमाम देशविरोधी – समाज विरोधी वारदातों को देखते हुये बहुसंख्यक समाज द्वारा भी यह आवाज उठायी जाने लगी है कि (पूर्व काल) गुलामी के दौर में भारत की जिन धरोहरों, आस्था केन्द्रों को, मंदिरों को तोड़ा हिन्द सनातन संस्कृति को नुकसान पहुंचाया गया है, उसका पुनर्निर्माण कराया जाये।

इस समय भारत विरोधी अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू मीडिया का एक वर्ग योजनापूर्वक गठजोड़ के साथ भारत विरोधी खबरें छापना, ऐसी खबरें देने वालों को प्रोत्साहित करना आदि कृत्य सामने आ रहे हैं, जो चिन्ता के विषय भी हैं। ऐसे तमाम भारत विरोधी कृत्यों की पहचान करते हुये उन पर लगाम कसी जाने की जरूरत है। इसे चुनौती के रूप में लिया जाना चाहिये।

भारत की बड़ती लोकप्रियता से विपक्ष के सपने चूर-चूर होते जा रहे हैं। इन आठ वर्षों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने अपनी दूर दृष्टि एवं परिपक्व कार्यप्रणाली के माध्यम से देश की तस्वीर ही बदल दी है। यह स्थिति विपक्ष को कैसे सुहा सकती है। सरकार की दृष्टि विश्व के शीर्ष पर पहुंचने के लक्ष्य पर टिकी हुयी है, जब भारत अपनी आजादी की 100वीं वर्षगांठ मना रहा होगा।

लेख़क 
डाॅ. किशन कछवाहा
9424744170