Trending Now

“स्व के लिए पूर्णाहुति – पं. बालमुकुंद त्रिपाठी”

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. बालमुकुन्द त्रिपाठी का नाम आते ही एक ऐसे विस्मृत योद्धा का स्मरण हो आता है, जिनके साथ तपस्वी सुंदरलाल, माखन लाल चतुर्वेदी, नाथूराम मोदी एवं सुभद्रा कुमारी चौहान के निर्देशन में संपूर्ण भारत वर्ष में 18 मार्च 1923 को जबलपुर में सर्वप्रथम एक शासकीय इमारत विक्टोरिया टाउन हॉल में बरतानिया सरकार के यूनियन जेक की जगह तत्कालीन तिरंगा झंडा फहराकर झंडा सत्याग्रह का सूत्रपात किया गया था।

पं. बालमुकुंद त्रिपाठी को सविनय अवज्ञा आंदोलन में समूचे महाकौशल प्रांत में सर्वाधिक लंबी सजा सुनाई गयी थी तथा कारावास से छूटने के पूर्व ही उन्हें भोजन में कांच मिलाकर दिया गया था, जिससे उनकी आंतो को क्षति पहुंची, इस कारण से 02 सितम्बर 1932 को उनकी पूर्णाहुति हुई।

देश, काल और परिस्थितियाँ ही हमारे जातीय जीवन का निर्माण करती हैं तथा उसके निमित्त होते हैं वे लोग जो काल विशेष की गति का दिशा संधान करते हैं – अपनी जीवनधारा को युगानुरूप आदर्शों के साँचे में ढालकर । व्यक्ति विशेष के अपने संयम और समर्पण की यही नियोजित भावना उसके जीवन और व्यक्तित्व का आधार बनती है तथा जिसके द्वारा ही उसका मूल्यांकन हो सकता है ।

बीते युग की परिस्थितियों ने हमारे जातीय जीवन को जो आदर्श और लक्ष्याधार दिए उनकी फलश्रुति हमारी वर्तमान पीढ़ी के सामने है तथा उन आदर्शों और लक्ष्यों को जिन महिमामण्डित व्यक्तित्वों ने अपनी कष्टपूर्ण साधना तथा समर्पित सेवा भावना से सुचारु सामाजिक स्वरूप प्रदान किया, निस्संदेह उनके नाम इतिहास-पृष्ठों पर शलाका-पुरुषों के रूप में सदैव अंकित रहेंगे । ऐसे ही महिमा मण्डित व्यक्तित्वों की पंक्ति में विगत युग के गौरव का स्मरण कराने वाला एक नाम है- पण्डित बालमुकुन्द त्रिपाठी ।

आपका जन्म 4 अप्रैल 1895 को हुआ था । अध्ययन के उपरांत से ही पंडित बालमुकुंद त्रिपाठी जी का झुकाव साहित्य सृजन की ओर हुआ और आपको इस क्षेत्र में श्लाघनीय कार्य करने के लिए तत्कालीन द्वारका पीठाधीश्वपर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी माधवतीर्थ द्वारा सुनीति भास्कर से विभूषित कि‍या गया, परंतु जबलपुर में लोकमान्य तिलक के आगमन के उपरांत आपकी दिशा स्वाधीनता संग्राम की ओर समर्पित हो गयी ।

 

सूरत काँग्रेस के पश्चात् लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक देश के युवकों के हृदय सम्राट बन गए और उनकी ओजमयी वाणी ने देश के युवकों में गरमदलीय विचार प्रवाह को पुरस्सर किया था । लखनऊ काँग्रेस में भाग लेने हेतु जाते समय लोकमान्य 7 अक्टूबर, 1917 को जबलपुर पधारे । अतः उनके प्रवास का लाभ लेते हुए नगर के स्वातन्त्र्य प्रेमी नागरिकों ने स्थानीय अलफखाँ की तलैयाँ जो कि अब तिलकभूमि के नाम से विख्यात है, में उनके भाषण की आयोजना की इस आयोजन के सूत्राधारों में त्रिपाठीजी के साथ सर्वश्री सुरेशचन्द्र मुखर्जी, गणेश वासुदेव साने, नाथूराम मोदी, मनोहर कृष्ण गोलवलकर, डॉ. हर्षे, सूरज प्रसाद शुक्ल आदि थे । इसी सभा में पण्डित बालमुकुन्द त्रिपाठी की हस्तलिपि में लिखित एक मानपत्र लोकमान्य को दिया गया। उस समय ब्रिटिश साम्राज्यशाही का आतंक अपनी चरम सीमा पर था । कहते हैं कि उस सभा में भय-भावना से ग्रस्त नागरिक काफी कम संख्या में उपस्थिति हुए थे फिर उत्साही राष्ट्रधर्मियों ने साम्राज्य शाही के भय और आतंक से विचलित हुए बिना नगर में लोकमान्य के भाषण की आयोजना की और उन्हें जातीय जीवन के आराध्य स्वरूप मानपत्र देकर सम्मानित भी किया ।

गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के उपरांत झंडा सत्याग्रह एक प्रमुख आंदोलन के रुप उभरा, जिसके निर्देशक मंडल में आपने प्रमुख भूमिका निभाई। आपके साथ तपस्वी सुंदरलाल, माखन लाल चतुर्वेदी, नाथूराम मोदी एवं सुभद्रा कुमारी चौहान के निर्देशन में उस्ताद प्रेमचंद,सीताराम जाधव, परमानंद जैन और खुशालचंद जैन ने भारत वर्ष में 18 मार्च 1923 को जबलपुर में सर्वप्रथम एक शासकीय इमारत विक्टो,रिया टाउन हॉल में बरतानिया सरकार के यूनियन जेक की जगह तत्काालीन तिरंगा झंडा फहराकर झंडा सत्यााग्रह का सूत्रपात किया गया।

परिणामस्वनरूप डिप्टी कमिश्नर हेमिल्टन और कप्तान बम्बावाले ने तत्कालीन राष्ट्रीय तिरंगे झंडे का अपमान किया गया। इसलिए झंडा सत्याग्रह आंदोलन को बडे स्तर पर चलाने के लिए नागपुर में सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में व्यापक संगठनात्मक तैयारियाँ भी की गईं और झंडा सत्याग्रह ने वृहत रूप ले लिया। झंडा सत्यांग्रह कई मायनों में सफल रहा। स्थानीय निकायों में झंडा फहराने की अनुमति प्राप्त हुई ।

सन् 1930 में देश व्यापी सविनय अवज्ञा आन्दोलन छिड़ने पर नगर में इस आन्दोलन का संचालन भी त्रिपाठीजी ने अपने सक्रिय सहयोगियों के माध्यम से सफलतापूर्वक किया और क्रमबद्ध रूप में सेनानियों द्वारा सत्याग्रह होता रहा। उनके नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम सेनानियों द्वारा सेना के प्रतिबन्धित क्षेत्र में राजद्रोहात्मक पर्चे वितरित कराने की योजना कार्यान्वित की गई और अन्ततोगत्वा ब्रिटिश साम्राज्यशाही के अधिकारियों की चिर प्रतीक्षित आकांक्षा की पूर्ति उनकी गिरफ्तारी के साथ हो सकी। इस प्रकरण के सन्दर्भ में त्रिपाठीजी को 14 जुलाई, 1930 को बन्दी बनाया गया और प्रथम श्रेणी के दण्डाधिकारी योगलेकर द्वारा उन्हें दण्ड विधान की धारा 131 के अन्तर्गत राजद्रोह के अपराध में 3 वर्ष का सश्रम कारावास और 150 रुपयों का अर्थदण्ड न देने पर चार माह की और कैद की सजा दी गई। इस आन्दोलन में प्रदेश में कुल 2225 गिरफ्तारियाँ हुई थीं। इनमें इतनी लम्बी अवधि की सजा पाने वाले वे पहले राजबन्दी थे। गाँधी जी और तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन के बीच समझौते के साथ सविनय अवज्ञा आन्दोलन समाप्त हुआ। सभी राजबन्दी रिहा हुए, किन्तु फिर भी त्रिपाठीजी को मुक्त न किए जाने पर गांधीजी को लार्ड इरविन को तार देना पड़ा तब शासन के आदेश पर उनकी रिहाई सिवनी जेल से 8 अगस्त, 1931 को हुई। जेल प्रवास की अवधि का अधिकतर उपयोग उन्होंने स्वाध्याय और चिंतन में व्यतीत किया। जेल प्रवास की दैनन्दिनियाँ और उनके पत्तों से उनके शान्त चित्त और दृढ़ निश्चयी प्रकृति का परिचय मिलता है ।

जेल प्रवास में भी उन्होंने अपने दैनिक आचार और संयम को बराबर बनाए रखा। अपनी गिरफ्तारी के बाद उन्होंने खादी के वस्त्रों के अतिरिक्त अन्य कोई वस्त्र धारण न करने तथा जेल का भोजन करने से अस्वीकार कर दिया और जेल में तीन दिनों तक अन्न-जल ग्रहण नहीं किया। फलतः इस प्रसंग के सन्दर्भ में नगर के प्रसिद्ध वकीलों में बाबू राजबहादुर और पंडित कुन्जीलाल दुबे ने डिप्टी कमिश्नर से भेंट की तब उन्हें “बी” श्रेणी में भेजा गया और वांछित सुविधा प्रदान की गई।

पंडित बालमुकुंद त्रिपाठी जी की सक्रियता अंग्रेजो के लिए समस्याओं का पर्याय बन गई थी, इसलिए रिहाई के पूर्व ही भोजन में कांच मिलाकर दिया गया, जिससे आंतों को क्षति पहुंची, फलस्वरूप त्रिपाठी जी अस्वस्थ रहने लगे कोई उपचार काम न आया और अंतत: 02 सितम्बर 1932 को उन्होंने अपनी अंतिम सांस लेकर स्व के लिए पूर्णाहुति दी ।

लेख़क – डॉ. आनंद सिंह राणा
संपर्क – 7987102901