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अमर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द

संवत् 1941 के माघ मास का रविवार था। आर्य समाज बच्छोवाली का साप्ताहिक सत्संग चल रहा था। भाई दित्तासिंह और जवाहरसिंह ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए समाज में एक नवयुवक के प्रवेश की घोषणा की। नवयुवक ने अपने आन्तरिक सात्विक भावों से कहा- हम सबके कर्तव्य और मंतव्य एक होने चाहिए। जो वैदिक धर्म के एक-एक सिद्धान्त के अनुकूल अपना जीवन ढाल नहीं लेगा, उसको उपदेशक बनने का साहस नहीं करना चाहिए। भाड़े के टट्टुओं से धर्म का प्रचार नहीं हो सकता। इस पावन कर्म के लिए स्वार्थ त्यागी पुरूषों की आवश्यकता है। पंजाब के आर्यसमाज के केन्द्रबिन्दु लाला सांईदास ने अपने मित्रों से कहा‘ देखो यह आर्यसमाज को तारते हैं या डुबाते हैं। यह नवयुवक और कोई नहीं, वरन् हमारे लाला मुंशीराम जी थे, जो आगे चलकर स्वामी श्रद्धानन्द बने।

इनका जन्म फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी संवत् 1913 वि. को जिला जालंधर के ग्राम तलवन में हुआ था। पिता श्री नानकचन्द जी उत्तर प्रदेश पुलिस में कोतवाल के पद पर थे। संवत् 1923 में मुंशीराम का यज्ञोपवीत संस्कार होने के बाद उनकी अनियमित पढ़ाई शुरू हुई। पिता का स्थानान्तरण, काशी, मिरजापुर, बलिया, हमीरपुर, बांदा आदि स्थानों पर होता रहा। संवत्  1935 में इलाहाबाद के म्योर काॅलेज से एम.ए. की परीक्षा दी। इसी मध्य मुंशीराम का विवाह जालंधर के राव सालिगराम की पुत्री शिवदेवी के साथ हुआ। इसके पश्चात् वह इलाहाबाद से बरेली आ गए। श्रावण 14, संवत्  1936 वि. के दिन ऋषि दयानन्द के बरेली आगमन पर सभा के प्रबंध का भार इनके पिता कोतवाल नानकचन्द पर था। पहले दिन के व्याख्यान के पश्चात् अपने नास्तिक पुत्र के सुधार की आशा से उन्होंने पुत्र को कहा- बेटा मंशीराम एक दण्डी संयासी आए हें, वह विद्वान् और योगिराज हैं। उनके वक्तव्य सुनकर तुम्हारे संशय दूर हो जायेंगे। उस समय तक मंुशीराम अंग्रेजी उपन्यास पढ़कर तथा पिता के साथ विभिन्न शहरों में घूमकर धर्म से विमुख हो अन्य बुराइयों में फंसकर पूर्ण नास्तिक हो चुके थे।

यद्यपि केवल संस्कृत जानने वाले के मुख से बुद्धि की कोई बात की आशा न थी, परन्तु जाने पर पहले दस मिनट के व्याख्यान ने ही उन पर विलक्षण प्रभाव डाला। फिर तो ऋषि के सत्संग में सर्वप्रथम उपस्थित होने वाले और सबसे अन्त में जाने वाले मुंशीराम ही थे। इस सत्संग ने इनके जीवन को बदलने में जादू का काम किया। इसके पश्चात् इन्होंने वकालत की, और सच्चे केसों के माध्यम से ही अतीव ख्याति प्राप्त की। सम्वत्  1945 वि. में शतरंज खेलने और हुक्का पीने का व्यसन भी दूर हो गया। सम्वत् 1946 वि. बैसाखी के दिन अपनी मित्र मण्डली  की सहायता से मुंशीराम जी ने ‘सद्धर्म प्रचारक’ पत्र को जन्म दिया। यह पत्र द्वारा आर्यसमाज की अपूर्व सेवा की। ‘सद्धर्म प्रचारक’ स्त्री जाति की शिक्षा और उन्नति का प्रबल समर्थक रहा। इसके परिणामस्वरूप जालंधर में कन्या महाविद्यालय की स्थापना हुई। सन्  1901 में उन्होंने अपनी कन्या अमृतकला का विवाह डाॅ. सुखदेव जी के साथ जाति के बंधन को तोड़कर किया। इसमें आपको अपनी बिरादरी का काफी विरोध भी झेलना पड़ा।

हिमालय की घाटियों में मुंशी अमनसिंह जी द्वारा काँगड़ी ग्राम में प्रदत्त भूमि पर 21-24 मार्च सन् 1902 को गुरूकुल काँगड़ी का प्रारम्भ  हुआ। प्रारम्भ में ही अपने दोनों पुत्र हरिशचन्द्र और इन्द्र को गुरूकुल में प्रविष्ट कर एक उदाहरण प्रस्तुत किया। अपना निजी पुस्ताकलय एवं जालंधर की कोठी गुरूकुल के अधिवेशन में गुरूकुल को भेंट कर दी। यह सब उस हाल में किया जबकि आप पर पच्चीस हजार का ऋण था और आप गुरूकुल से अपने निर्वाह के लिए कुछ भी नहीं लेते थे। सत्रह वर्ष तक गुरूकुल के आचार्य और मुख्याधिष्ठाता रहे। आर्य सार्वदेशिक सभा के संगठन का श्रेी भी आपको ही जाता है। स्वामी जी के संगठन का उद्देश्य बहुत विस्तृत ही नहीं, पावन भी था। उसमें साम्प्रदायिकता एवं द्वेष की गंध तक न थी। उनकी दृष्टि भारत के उज्वल भविष्य की ओर थी। वह भारत को एक अखण्डित और महान शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के लिए अपना आंदोलन चला रहे थे। यह बात समय पर उनके लिखे लेखों को पढ़ने से समझ में आ जाती है। एक अपील में उन्होंने लिखा था कि आर्यसमाज के माने हुए वैदिक सिद्धान्त ऐसे व्यापक और स्वतः सिद्ध हैं कि उनको आचरण में लाना ही उनका प्रचार है। उन्हें वैदिक सिद्धान्तों की शक्ति पर विश्वास है। 23 दिसम्बर 1926, दिन गुरूवार को स्वामी जी निमोनिया पीड़ित थे। उनके पास लोगों के आने की मनाही थी। सीढ़ियों पर एक युवक आया तो सेवक ने रोक दिया। स्वामी जी ने आवाज सुनकर उसे बुला लिया। युवक ने पीने के लिये पानी माँगा। सेवक पानी लाने के लिए गया ही था कि उसने पिस्तौल से तीन फायर किए। सेवक धर्मसिंह ने सामना करना चाहा पर उसे भी एक गोली लगी। हत्यारा भागना चाहता था कि स्वामी जी के सेक्रेट्री धर्मपाल विद्यालंकार ने उसे दबोच लिया। पुलिस ने हत्यारे को गिरफ्तार कर लिया। प्रिवी कौंसिल तक मुकदमा चला पर उसकी फाँसी की सजा बहाल रही।

– वेदारीलाल आर्य