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आजाद भारत में भी होती रही नेताजी की जासूसी

कोई भी राष्ट्र, राष्ट्र भक्ति और राष्ट्रभक्त की चर्चा के बिना अधूरा रहता है। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन 1857 से 1947 के बीच अनेक राष्ट्र भक्तों की चर्चा आदर एवं श्रद्धा के साथ होती रही है। किन्तु उसमें लम्बे समय तक सर्वाधिक चर्चित सुभाष चन्द्र बोस ही रहे हैं। सुभाष चन्द्र बोस का जीवन प्रसंग आज भी राष्ट्र भक्तों के बीच आस्था एवं कौतुक का केन्द्र बना हुआ है।

सुभाष चन्द्र बोस भारतीय जन मानस के नेता तब भी थे और मानसिक रूप से आस्था के केन्द्र आज भी हैं। नेताजी सच्चे अर्थों में राष्ट्रभक्त थे। उनकी राष्ट्र भक्ति पर किसी को संदेह नहीं था। किन्तु उसके बावजूद भी आजाद भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने उनकी जासूसी क्यों करायी यह चर्चा का विषय आज भी बना हुआ है। नेताजी से सम्बन्धित गोपनीय फाइलों के सार्वजनिक होने के बाद लोगों की जिज्ञासा नेताजी को लेकर बढ़ती जा रही है।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस अकेले एक ऐसे क्रांतिकारी रहे हैं जो जनता के दिलों दिमाग में सदैव छाए रहे। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान सुभाष 1927 में युवा आन्दोलन के नेता के रूप में उभरे। 1928 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कलकत्ता अधिवेशन के मुख्य संयोजक भी बने, और इसी अधिवेशन में काँग्रेस के लक्ष्य को “पूर्ण स्वराज्य” में बदल दिया।

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1938 में गाँधीजी के समर्थन से सुभाष हरिपुरा अधिवेशन के लिये काँग्रेस के लिये सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुन लिए गए। 1939 में जब नया अध्यक्ष चुनने का समय आया तो गाँधी जी ने पट्टाभि सीतारमैया का साथ दिया, लेकिन सुभाष जी को 1580 मत मिले और वे 203 मतों से चुनाव जीत गए। गाँधी जी ने पट्टाभि सीतारमैया की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि यदि वे सुभाष के तरीके से सहमत नहीं है तो वे काँग्रेस से हट सकते हैं। सन् 1939 में ही त्रिपुरी अधिवेश के दौरान गाँधी और नेहरू के मतभेद के चलते सुभाष जी ने इस्तीफा दे दिया।

सुभाष की बढ़ती लोक प्रियता एवं प्रखर राष्ट्र भक्ति के कारण अँग्रेज सरकार द्वारा 1930 से ही उन पर नजर रखी जाती थी। सी.आई.डी. कोलकाता स्थित बोस परिवार के दो मकानों की निगरानी कर रही थी जिसमें एक था बुडवर्न पार्क का माकान और दूसरा था 38/2, एल्गिन रोड का माकान। यह वह समय था जब शरदचन्द एवं उनके छोटे भाई सुभाष चन्द्र बोस बंगाल में स्वतन्त्रता आन्दोलन के अगुआ बन कर उभरे थे। गाँधी जी के सामने उस समय राजनैतिक विरासत के वारिस सुभाष चन्द बोस एवं जवाहर लाल नेहरू दोनों थे। बोस गाँधीजी की अगुआई में तत्काल संघर्ष चाहते थे। सम्पूर्ण आजादी को लेकर बोस के आग्रह से गाँधी जी को दिक्कत थी, लिहाजा उन्होंने बोस की जगह नेहरू को अपना उत्तराधिकारी चुना।

सुभाष जी उस समय कलकत्ता में नजर बन्द थे। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देकर एल्गिन रोड वाले मकान से निकल गए और जर्मनी में जाकर रूके। उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतन्त्रता संगठन और आजाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। इस दौरान सुभाष नेताजी’ के नाम से जाने जाने लगे।

नेता जी ब्रिटेन के खिलाफ अपनी लड़ाई में समर्थन जुटाने के लिए जनवरी 1941 में जर्मनी की ओर फिर 1943 में जापान गए। विश्व युद्ध में जापान के हाथों पकड़े गये युद्ध बन्दियों को जुटाकर 1941 में मोहन सिंह ने जो आजाद हिन्द फौज बनाई थी उसकी कमान सम्हालने के लिए नेताजी सिंगापुर गए।

भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ रही आजाद हिन्द फौज ने यह साफ कह दिया था कि वह मोर्चे पर तभी उतेरगी जब काँग्रेस उसे न्योता देगी। बोस ने यह बात तब और साफ कर दी जब 6 जुलाई 1944 को उन्होंने आजाद हिन्द रेडियो पर प्रसारण में गाँधी जी को सम्बोधित किया उन्होंने कहा- “हमारे राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति की इस पवित्र लड़ाई में हम आपके आशीर्वाद और शुभ कामना की अभिलाषा करते है।”

नेताजी की रहस्यमय मौत के बारे में कहा जाता है कि- 18 अगस्त 1945 को नेताजी ने बैंकाक से टोकियो जाने वाली उड़ान पकड़ी। उनका विमान ताईवान में दुर्घटना ग्रस्त हो गया। बोस 18 अगस्त 1945 को विमान दुर्घटना में मारे गये, यह माना जात है कि लेकिन यह उनके परिवार को विश्वास है कि वह (नेता जी) बच गये थे।

नेहरू सरकार ने 1950 के दशक में सुभाष चन्द्र बोस की राख को हिरासत में ले लिया था लेकिन उन्हें घर लाने के रूप में बोस परिवार उनकी मौत को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था। नेताजी के अवशेष को टोक्यों में रैंकोजी मंदिर में रख गया। उनके रखरखाव के लिए 1967 एवं 2005 के बीच भारत ने मंदिर के लिए 52,662.78/- रूपये का भुगतान किया।

भारत में नेताजी की राख को लाने के लिये समय समय पर काफी बहस भी हुई। विमान दुर्घटना की वास्तविकता क्या रही यह तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु नेता जी की मृत्यु का रहस्य यहीं से गहराने लगा। और उनके जीवित होने के अनेक दावे किए जाने लगे। दस्तावेज योजना आयोग के सदस्य पी.डी.मुखर्जी न कड़ाई से दलील दी कि नेताजी को 1960 के दशक तक सोवियत नेताओं द्वारा कैद किया गया था।

फैजाबाद में गुमनामी बाबा के रूप में नेताजी के होने की बात इलाहााबद में प्रकाशित अमृत प्रभात अखबार ने भी उठाई थी। पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.सी. राय को 1 मार्च 1952 को लिखे गये पत्र में नेहरू जी ने लिखा है- ‘संसद में एक 1 सवाल के जवाब में मैं AYER की रिपोर्ट पेश करने जा रहा हूँ। इस रिपोर्ट की सत्यता पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है, और मुझे लगता है कि अंतिम निष्कर्ष को मुझे स्वीकार करना चाहिए।”

5 मार्च 1952 को नेहरू जी ने स्वीकार है कि नेता जी दुर्घटना में मारे गये थे (सदन में बयान दिया)। यह निर्विवाद सच है कि देश के प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू जी ने भारत की संसद में नेता जी की मृत्यु की घोषणा की किन्तु उसे बावजूद भी नेताजी की जासूसी चलती रही। उजागर हुए गोपनीय दस्तावेज को आधार माना जाय तो 20 वर्ष तक नेता जी की जासूसी हुई। इन 20 वर्षों में 16 साल तक नेहरू जी प्रधानमंत्री थे।

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बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और लेखक एम.जे. अकबर कहते हैं कि सीधे नेहरू की रिपोर्ट करने वाली आई.ई.बी. की ओर से बोस परिवर की इतने लम्बे समय तक जासूसी की सिर्फ एक वाजिब बजह जान पड़ती है कि सरकार अस्वस्त नहीं थी कि बोस की मृत्यु हो चुकी है। उसे लगता था कि अगर जिन्दा हैं तो किसी न किसी रूप में कोलकाता स्थित अपने परिवार के साथ सम्पर्क में होंगे। भारत की आजादी की लड़ाई के योद्धाओं में नेताजी का नाम देर से जोड़ा गया। संसद में उनी तस्वीर का अनावरण सन् 1978 में हुआ।

नेताजी से जुड़ी 150 फाइलों को गोपनीय दस्तावेज जो पिछले 60 वर्षों में बनाया गया था। उसमें से तो कुछ फाइलें ऐसी थी जिस पर मोस्ट सीक्रेट लिखकर पीएमओ कार्यालय में रख दिया गया था। नेताजी की बढ़ती लोकप्रियता एवं आम जनता के दबाव में अब गोपनीय फाइल आम जन के लिये उपलब्ध करायी गई है।

नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्ध बन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिये ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो। इस संदर्भ में मेरे रामलखन गुप्त द्वारा भी समाचार पत्रों के माध्यम से समय समय पर नेताजी से जुड़ी गोपनीय फाइलों को उजागर किए जाने की मांग की जाती रही है।

लेखक:- रामलखन गुप्त