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आततायी शासक भारत की संस्कृति को बदल नहीं सके

भारतीय संस्कृति को अंग्रेज और मुगल बदल नहीं सके। भले ही विदेशी अंग्रेज एवं मुगल आक्रान्ताओं ने लम्बे समय तक भारत पर शासन किया हो। ऐसा भी नहीं है कि सनातन धर्मियों ने इस्लामी आक्रान्ताओं को आसानी से या किसी कमजोरीवश भारत में घुसने का अवसर दिया हो। हिन्दुओं ने इस आततायी आतंकियों- हमलावरों का लम्बे समय तक न केवल मुकाबला किया वरन् खदेड़कर बाहर भी किया था।

सनातन धर्मियों ने उग्रवादी इस्लाम को सात सौ वर्षों तक पीटा और परास्त किया। हिन्दू समाज की इस्लामी साम्राज्यवाद से पहली टक्कर सातवीं शताब्दी में आरम्भ हुयी। सन् 650 से सन् 711 तक फिर भारत पर हमला किया गया हिन्दू राजाओं ने फिर बुरी तरह परास्त किया और खदेड़ दिया।  यह क्रम लम्बे समय तक चलता रहा।

पश्चिमी आक्रान्ता वैदिक युग को नीचा दिखाना चाहते थे। इसके लिये उनके द्वारा अनेकानेक कपोलकल्पित गाथायें भी गढ़ी गयीं। ब्रास्का विश्वविद्यालय के पुरातत्वविद् प्रो. जान फोर्ड श्रीडर के अनुसार अफगानिस्तान में मानव सभ्यता का इतिहास पचास हजार साल पुराना है।

वैदिक काल से सन् 1026 ई. शताब्दी तक वहाँ हिन्दू बौद्ध व सिख परंपरायें सजीव रही हैं। महाभारत कालीन गाँधारी एवं गान्धार नरेश शकुनी के संदर्भ इसके ठोस प्रमाण हैं। मुल्तान में प्रह्लादपुरी का प्राचीन नरसिंह मंदिर विश्वविख्यात है, जहाँ हिरण्यकशिपु की राजधानी थी। विविध हिन्दू-देवी देवताओं के पुरावशेषों को काबुल गजनी से ताजकिस्तान तक के संग्रहालयों में देखा जा सकता है। मजार-ए-शरीफ के हिन्दूशाही कालखण्ड के शिलालेख को देखकर समझा जा सकता है कि हिन्दूशाही राजा ‘‘कल्लर’’ का शासन काल सन्  843 से नहीं सन् 821 से था।

अमरीकी दार्शनिक व इतिहासकार बिल ड्यूरेंट ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि इस्लाम द्वारा किये गये भारत पर हमले विश्व इतिहास के सबसे रक्तरंजित अध्याय हैं। तब अभी हाल सन् 1947, 1971 और सन् 1999 की रक्तरंजित घटनाओं को कैसे नजर अंदाज किया जा सकता है। एक समय था जब हिन्दू कश्मीर में बहुसंख्यक था। आतंकवाद के चलते वह वहाँ अल्पसंख्यक हो गया।

मुस्लिम तुष्टीकरण की बात करने वाले साम्प्रदायिक नहीं है। ईसाईयों द्वारा संचालित संस्थाओं द्वारा संचालित धर्मपरिवर्तन को नजर अंदाज करने वाले साम्प्रदायिक नहीं है। पोप, जो सम्पूर्ण एशिया को ईसाई बनाना चाहता है, स्वागत करने वाले क्या साम्प्रदायिक नहीं है। हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बनाने का प्रयास करने वाले साम्प्रदायिकता की श्रेणी में क्यों नहीं हैं?

पाकिस्तान का जब निर्माण हुआ, तब पाकिस्तान के इतिहास से इस्लाम के पूर्व के इतिहास का पूर्णतः सफाया कर दिया गया। वहाँ के काॅलेजों और स्कूलों में जो इतिहास पढ़ाया जाता था, उसका शुभारम्भ ही मोहम्मद -बिन-कासिम के हमले से होती थी। लेकिन अब पाकिस्तान के बुद्धिजीवी अपने इतिहास में अपने पुरूखों को तलाशने में जुट गये हैं। अब उन्हें आचार्य चाणक्य, सम्राट पोरूष और राजा दाहिर में अपने पूर्वज नजर आने लगे हैं।

सिंध विश्वविद्यालय के एक ऐतिहासिक अन्वेषक लतीफ लुगारी ने एक अनुसंधान पत्र हैदाराबाद सिंध विश्वविद्यालय की गोष्ठी में प्रस्तुत किया था, जिसमें सिंध के अंतिम हिन्दू सम्राट राजा दाहिर के शौर्य की शानदार शब्दों में प्रशंसा की गयी है। उन्होंने अपने भाषण में सिंध प्रदेश के राजा दाहिर की पुरानी राजधानी के भग्नावशेषों का उल्लेख करते हुये एक वीडियों भी प्रस्तुत किया था। उन्होंने यह भी कहा कि एक सिंधी होने के नाते उन्हें राजा दाहिर पर गर्व है।

सच्चाई यह है कि इस्लामी कट्टरवादियों की विचारधारा कभी खत्म नहीं होती। भले ही फतवा देने वाले चल बसते हैं, गुजर जाते हैं, पर उनके अनुयायी  जिन्दा रहते हैं, नये-नये कट्टरपंथी, नये-नये फतवे जारी न होने के बावजूद पैदा हो रहे हैं। जब तक कट्टरपंथ खत्म नहीं होगा तब इस्लामी समाज धर्म निरपेक्ष नहीं बनेगा, खतरा बना रहेगा। सातवीं सदी में भी इस्लाम के आलोचकों की हत्यायें हुयीं है। 21वीं सदी में भी इस्लाम के आलोचक मारे गये हैं। आज तो रेडिकल इस्लामिस्ट दुनिया के हर कौने में हैं। यद्यपि अब इस्लाम में खुली सोच वालों की संख्या भी बढ़ रही है।

मौलाना अबुल कलाम आजाद स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री थे। वे बड़े सेकुलर व्यक्ति माने गये हैं। पाक विभाजन के बाद वे पाकिस्तान नहीं गये, भारत में ही रह गये थे। यह तथ्य कम लोगों की जानकारी में होगा कि वे ‘‘पेन इस्लामाबाद’’ के समर्थक थे। इस धर्म निरपेक्ष व्यक्ति जो कांग्रेस अध्यक्ष भी रह चुका था, ने सन् 1913 में ‘‘अल्लाह का दल’’ नामक संगठन भी बनाया था। यह संगठन विशुद्ध रूप से मुस्लिमों को धार्मिक आधार पर संगठित करने, राजनीति में उनकी सक्रियता बढ़ाने के उद्देश्यों पर काम करता था। इस दल में मुस्लिम सैनिकों की भी भर्ती की गयी थी। इसका खुलासा मौलाना अबुल कलाम आजाद पर पुस्तक लिखने वाले अब्दुल रजाक मलाहिवादी ने किया था। अंत में उसने यह भी लिखा  है कि ‘‘शरीयत के अनुसार ही हमने हिन्दुओं से राजकीय समझौता किया है, इसलिये उनसे मित्रत्व के सम्बंध रखना, क्योंकि यह दोस्ती मात्र शरीयत के अनुसार मर्यादित है।’’

इंग्लैण्ड के लिस्टर शहर में बीते 18 सितम्बर को हिन्दुओं पर इस्लामी कट्टरपंथियों ने हमला कर दिया। इतना ही नहीं भीड़ ने एक मंदिर पर भी हमला किया। इस समय कट्टरपंथी भीड़ ‘‘अल्लाहू-अकबर’’ नारा लगा रही थे। इसी बीच एक युवक मंदिर की बाहरी दीवार पर चढ़ता है और वहाँ लगे एक भगवा झंडे को उतार लेता है।

इन दिनों अलगाववादी मानसिकता में तेजी से वृद्धि हुयी है। कम या ज्यादा दोनों समाजों में अलगाववादी तत्व मौजूद हैं। राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि के लिये मुस्लिम समाज के उग्रवादी तत्वों को राजनेता सह देकर भड़काते रहते हैं। हाल ही में प्रतिबंधित मुस्लिम संगठन पी. एफ.आई. इसका ताजा उदाहरण है। इसकी खतरनाक दिशा को पार कर चुकी थी। सन् 2047 तक भारत के एक और विभाजन की भूमिका बनायी जा रही थी। मुस्लिम युवाओं को भड़काकर, स्थान-स्थान पर उन्हें प्रशिक्षित कर अपनी ताकत बढ़ा रहा था।

ऐसी स्थिति को देखकर, समझकर मुस्लिम बुद्धिजीवियों और मुस्लिम धार्मिक गुरूओं के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डाॅ. मोहन भागवत का संवाद-प्रक्रिया महत्वपूर्ण मानी गयी। यह प्रक्रिया निरन्तर बढ़ती रहे, इसी में देश और समाज का भला हो सकता है। इस पहला का देशभर में स्वागत हुआ है तथा एक स्पष्ट संदेश जनजन तक पहुंचा है। यद्यपि मुस्लिम नेता बनने की चाहत में हैदराबाद के असदुद्दीन औबेसी ने विरोध किया है। इसी लाईन पर यू.पी. के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी खड़े दिखाई दिये।

इस वार्ता और पहले से ऑफ इंडिया मुस्लिम इमाम आर्गनाईजेशन के प्रमुख उमर इलियासी इतने खुश और भावुक हो गये कि उन्होंने डाॅ. भागवत को राष्ट्रपिता और राष्ट्र-ऋषि तक कह डाला।

– डाॅ. किशन कछवाहा