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स्वातन्त्र्य वीर सावरकर : इतिहास की काल कोठरी में दमकता हुआ हीरा – २

यदि सावरकर दोषी होते तो क्या सर्वोच्च न्यायालय उन्हें अपराधी सिध्द नहीं करता? और यदि वीर सावरकर क्रान्तिकारी नहीं होते तो क्या लालबहादुर शास्त्री के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार उन्हें शासकीय कोष से पेंशन देती? जैसा कि वर्तमान में कांग्रेस के दिग्भ्रमित, विचारशून्य कथित नेता और वामपंथियों द्वारा वीर सावरकर के विरुद्ध विषवमन किया जा रहा है। तब क्या नेहरू जी की पुत्री इन्दिरा गाँधी उनके सम्मान में डाकटिकट, वृतचित्र व बीस मई सन् उन्नीस सौ अस्सी को अपने पत्र के माध्यम से सावरकर स्मारक के सचिव बाखले को वीर सावरकर की ‘सौ’ वीं जयन्ती पर शुभकामना सन्देश भेजकर कहतीं कि–

“मुझे आपका आठ मई सन् उन्नीस सौ अस्सी को भेजा हुआ पत्र प्राप्त हुआ है। वीर सावरकर का अँग्रेजी सरकार के विरुद्ध बहादुरी पूर्ण प्रतिकार करना भारत के स्वतन्त्रता के आन्दोलन में अपना एक महत्वपूर्ण व अहम स्थान रखता है। मेरी शुभकामनाएंँ स्वीकार करें, और भारत माता के इस महान सपूत की सौ वीं जयन्ती के उत्सव को अपनी योजनानुसार पूरी भव्यता के साथ मनाएँ।“

तो क्या पूरी कांग्रेस और अराजक वामपंथी गिरोह इन्दिरा गाँधी से अधिक बुध्दिमान व शक्तिशाली हैं? क्या इन्दिरा गाँधी को सत्य और असत्य का ज्ञान नहीं था? जो वे स्वातंत्र्य वीर सावरकर का सदैव सम्मान करती रहीं। और उन्हें हमेशा प्रेरणास्रोत बतलाया। बात सन् दो हजार तीन की है— जब अटल बिहारी सरकार में प्रणब मुखर्जी व शिवराज पाटिल की समिति द्वारा संसद भवन के सेन्ट्रल हॉल में वीर सावरकर का पोर्टरेट लगाने के लिए समिति ने अपना प्रस्ताव पारित किया। और प्रस्ताव लोकसभा अध्यक्ष को स्वीकृति के लिए भेजा था। इसी कारण बाद में — सोनिया गाँधी ने प्रणब मुखर्जी व शिवराज पाटिल को डाँटा भी था कि— आप लोग समिति में होकर यह प्रस्ताव कैसे दे सकते हैं? कांग्रेस द्वारा पोर्टरेट अनावरण समारोह का बहिस्कार करने के बाद प्रणब मुखर्जी व शिवराज पाटिल भी नहीं पहुँचे थे‌। किन्तु तत्कालीन राष्ट्रपति — श्री एपीजे कलाम ने संसद जाकर विधिवत सावरकर के पोर्टरेट का अनावरण किया। यदि सावरकर गाँधी हत्या के दोषी होते तो क्या प्रणब मुखर्जी व शिवराज पाटिल की समिति उस प्रस्ताव को पारित करती? क्या कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व- अराजक वामपंथी गिरोह — पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी व एपीजे अब्दुल कलाम से अधिक विद्वान हैं?

चाहे एपीजे कलाम हों या प्रणब मुखर्जी हों – जो भारतीय स्वतन्त्रता में सावरकर के योगदान को जानते व समझते थे। वे सावरकर का आदर करना जानते थे, इसीलिए उन्हें कोई नहीं डिगा सका। किन्तु इन सबके उपरान्त भी ‘वीर सावरकर’ के विरुद्ध विष वमन करने वाला गिरोह जब उन पर लगातार गाँधी हत्या का बेबुनियाद आरोप लगाता है। तो क्या यह सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवमानना नहीं है? अक्सर सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान व जनभावनाओं का आदर करने का ढोंग रचने वाला यह संगठित गिरोह है‌ जो सावरकर पर दोषारोपण करने के लिए इस सीमा तक गिर जाता है कि— वह सावरकर के विषय में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को मानने को तैयार नहीं होता है‌। और न ही सावरकर की जनस्वीकार्यता को पचा पाता है। लेकिन सावरकर का नाम जब भी चर्चा में आता है— तब उनके ऊपर मनगढ़न्त तरीके से मिथ्यादोषारोपण के लिए पूरी की पूरी फौज अपने लाव-लश्कर के साथ राजनीति के अखाड़े में कूद पड़ती है।

इसके पीछे उस फौज में चाहे कांग्रेसी हों – चाहे वामपंथी हों या अन्य मुखौटाधारी। ये सब अपने कुकर्मों से बचने के लिए बेबुनियाद तर्कों की ओट में उन्हें लाँछित करने के लिए उतर पड़ते हैं। सावरकर पर अपने-अपने मिथ्यारोपों को गढ़ने के लिए — ये कभी गाँधी का सहारा ले लेते हैं तो कभी भगत सिंह के बरक्स सावरकर को खड़ा कर अपनी कुत्सित राजनीति को सिध्द करने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन जो सावरकर – भगत सिंह के गुरू – प्रेरक रहे करतारसिंह सराभा के प्रेरणास्रोत रहे हों। जिन सावरकर के साहित्य का प्रकाशन व प्रसारण कार्य भगत सिंह ने करवाया हो। जिन सावरकर के साथ सुभाषचन्द्र बोस ने ब्रिटिश साम्राज्य के शत्रु देशों व नेताओं की भारतीय स्वतन्त्रता के लिए सहायता लेने की कार्ययोजना बनाई हो। जिन सावरकर ने सशस्त्र व सैनिक विद्रोह के लिए ब्रिटिश सेना में शामिल होकर — उसे खोखला करने की दूरगामी रणनीति बनाई हो। उन सावरकर को अपमानित करने के लिए जब एक गिरोह बेबुनियाद आरोप मढ़कर अपना एजेण्डा साधना चाहता है। तब ही यह स्पष्ट हो जाता है कि— ये सभी क्रान्तिकारियों व महापुरुषों का कितना सम्मान करते हैं। ये सभी न तो गाँधी के अनुयायी हैं – न भगत सिंह के, न अम्बेडकर के, न सुभाष के और न ही अन्य सभी क्रान्तिकारियों के।

ऐसा कुकृत्य करने वाले इन्हीं के सहारे अपने प्रोपेगैण्डा को चलाने के लिए जी – जान लगाए रहते हैं। किन्तु सावरकर के त्याग, बलिदान, साहस-शौर्य और उनकी राष्ट्रनिष्ठा पर जब भारतीय सर्वोच्च न्यायालय तथा जनमानस ने खरे होने की बारम्बार मुहर लगा दी है, तब वीर सावरकर को किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है।

भले ही उन पर बौध्दिक जुगाली के कीचड़ उछालने के कितने भी प्रयास किए जाएँ, लेकिन वे सावरकर के अवदान को कभी भी कम नहीं कर सकते। उल्टे यह जरूर संभव है कि ऐसा करने वालों का चाल-चरित्र और चेहरा हमेशा बेनकाब होता जाएगा। और उनके इन कुकृत्यों से यह सुस्पष्ट होता है कि – ऐसा करने वाले उन्हीं अँग्रेजों की नाजायज़ सन्तानें हैं जिन्होंने वीर सावरकर की क्रान्ति से डरकर उन्हें कठोर सजा सुनाई। सावरकर को लाँछित करने के लिए विमर्श चलाने वाले इन पाखण्डियों से यह भी सिध्द होता है कि – ये न तो राष्ट्रभक्त
हो सकते, न गाँधीभक्त और न ही स्वतन्त्रता संग्राम के हुतात्माओं का आदर करने वाले। ये केवल विकृत मानसिकता के गिरहकट हैं जिन्हें सावरकर के विचार और दर्शन में भारत की उन्नति व भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा होने का भय सता रहा है।

अतएव, ऐसा करने वाले सावरकर को अपमानित करने के सहारे अपनी राजनीतिक प्राण प्रतिष्ठा की उम्मीद लगाकर बैठे हुए हैं। इसके लिए वे किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं। अपने आपको इतिहासकार, प्रोफेसर, पत्रकार, कलाकार, नेता – कहने और कहलाने का प्रपञ्च रचने वाले ये सब वही लोग हैं — जिन्होंने कभी भी भारतीय संस्कृति, इतिहास, महापुरुषों का आदर नहीं किया। बल्कि उन्हें अपमानित करने के अपने-अपने स्तर पर कोई भी अवसर नहीं चूके।
मनसा -वाचा -कर्मणा माँ भारती के लिए अपनी आहुति देने वाले सावरकर जिन्होंने क्रान्ति की ऐसी ज्वाला सुलगाई कि क्रूर अँग्रेजी सरकार झुलसने लगी।

मदनलाल ढींगरा के द्वारा जब सन् उन्नीस सौ नौ में कर्नल वायली की हत्या कर दी गई । तब सावरकर ने मदनलाल ढींगरा के समर्थन में लन्दन टाईम्स में लेख लिखा। इतना ही नहीं इसके पूर्व और बाद में भी सावरकर ने उन्हें कानूनी और क्रान्ति के लिए सहयोग प्रदान किया। इस आधार पर वे सन्देह के घेरे में आ गए। और सावरकर को मदनलाल ढींगरा को सहयोग देने, वायली की हत्या का षड्यंत्र रचने के आरोप में लन्दन में उन्हें तेरह मई सन् उन्नीस सौ दस को गिरफ्तार कर लिया गया। तत्पश्चात अँग्रेजों द्वारा भारत ले आते समय — वे जहाज से समुद्र में कूदकर आठ जुलाई उन्नीस सौ दस को फ्रांस के सीमाक्षेत्र में चले गए। किन्तु बाद में फ्रांस सरकार ने उन्हें ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया।

अँग्रेजों ने षड्यन्त्रपूर्वक ब्रिटिश अधिकारी जैकसन की हत्या में उन्हें दोषी ठहराते हुए चौबीस दिसम्बर सन् उन्नीस सौ दस को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। तत्पश्चात पुनः इकतीस जनवरी उन्नीस सौ ग्यारह को को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सात अप्रैल सन् उन्नीस सौ ग्यारह को कालापानी की सजा में पोर्टब्लेयर की सेलुलर जेल में दस वर्षों तक उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी गईं। वे यातनाएँ इतनी क्रूर व वीभत्स थीं कि— जिसे आज सोच भर लेने से अन्तरात्मा काँप उठती है।

मगर, वह कठोर -क्रूर यातनाएँ भी सावरकर को न तो तोड़ पाईं और न ही उनके स्वतन्त्रता और क्रान्ति के व्रत को डिगा पाईं।इक्कीस मई सन् उन्नीस सौ इक्कीस तक अँग्रेजों ने उन्हें दस वर्ष अण्डमान के पोर्ट ब्लेयर की सेलुलर जेल में रखा। उसके बाद अँग्रेज अधिकारियों के लिए अण्डमान की जलवायु हानिकारक होने के कारण उन्हें तीन वर्षों के लिए — रत्नागिरी की जेल में ही रखा गया। तदुपरान्त सन् उन्नीस सौ चौबीस में वे जेल से छूट जाते हैं, लेकिन कठोर सख्ती व नजरबन्दी में उन्हें पन्द्रह वर्षों तक रत्नागिरी में ही एक नए तरह की ही कैद में रखा जाता है।

अन्ततोगत्वा अठ्ठाईस वर्षों की लम्बी यातना के बाद भारत शासन अधिनियम सन् उन्नीस सौ पैंतीस के बाद — जब बॉम्बे प्रेसीडेंसी में कांग्रेस की सरकार बनी तब उन्हें सन् उन्नीस सौ सैंतीस में एक प्रकार से अँग्रेज़ी सरकार की क्रूर परतन्त्रता से मुक्ति मिली। तत्कालीन कांग्रेस ने उन्हें कांग्रेस में शामिल होने का आमन्त्रण दिया था किन्तु सावरकर ने कांग्रेस का आमन्त्रण अस्वीकार करते हुए कहा था–

“कांग्रेसी नेताओं को ये विश्वास था कि हिन्दू मुस्लिम एकता के बिना भारत को स्वतन्त्रता नहीं मिल सकती, मुस्लिम नेता इसी का फायदा उठाते हुए हिन्दुओं के अधिकारों की कीमत पर अपने समुदाय के लिए रियायतें हासिल कर रहे हैं। राष्ट्रवाद के नाम पर -हिन्दुओं की कीमत पर ; मुसलमानों को तुष्ट करना राष्ट्र के साथ धोखा है।मैं ऐसी स्थिति में कांग्रेस में शामिल नहीं हो सकता। राष्ट्रभक्तों की अन्तिम कतार में खड़े होना भी, मैं राष्ट्रद्रोह करने वालों की पहली कतार में खड़े होने से बेहतर समझता हूँ।”

विकृत मानसिकता वाले मानसिक गिरोहों के अनुसार यदि सावरकर ने क्रान्तिकारी कार्य छोड़ने की कीमत पर याचिका दायर की थी। तो, उनके छूटने के बाद तत्कालीन कांग्रेस उन्हें साथ में शामिल करने व कांग्रेस सरकार में प्रतिनिधित्व के लिए क्यों आमन्त्रित कर रही थी? सावरकर व स्वतन्त्रता संग्राम, कांग्रेस व स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेताओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन में कई सारे आयाम निकलकर आते हैं।

सन् उन्नीस सौ सैंतीस में अपनी स्वतन्त्रता के उपरान्त वीर सावरकर पुनः सामाजिक -राजनैतिक – सांस्कृतिक स्तर पर दूरगामी व्यापक कूटनीति एवं रणनीति के अन्तर्गत क्रान्तिकारी कार्य में तत्परता के साथ जुट गए। अपनी कैद के दौरान उन्होंने विपुल साहित्य रचा था। और स्वतन्त्रता के पुजारी सावरकर ने अनेकानेक कठोर यातनाओं की त्रासदी को अपने ऊपर वज्रपात की भाँति सह लिया। लेकिन उन्होंने अपने सिध्दान्तों व अखण्ड भारत के सपनों से किसी भी परिस्थिति में समझौता नहीं किया। उन्होंने अँग्रेजी शत्रुओं को धोखा देने के लिए विविध रणनीतियाँ बनाई और अपने जीवन को सार्थकता प्रदान की। सावरकर पर चाहे गाँधी हत्या में संलिप्तता के मनगढ़न्त आरोप हों याकि उनकी याचिकाओं को लेकर कुत्सित दुराग्रहों की तुष्टि के यत्न हों – सभी केवल राजनैतिक हित साधने व स्वातन्त्र्य समर के महान क्रान्तिकारी वीर सावरकर को अपमानित करते हुए उनके माध्यम से भारतीय धर्म, संस्कृति व इतिहास पर कुठाराघात करने के षड्यन्त्र ही सिध्द होते हैं। सावरकर राष्ट्र की रग-रग में व्याप्त हैं। उनकी क्रांतिकारी हुंकार और विपुल साहित्य उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व की आभा बिखेर रहा है‌।

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
(कवि,लेखक,स्तम्भकार)
सम्पर्क- 9617585228