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आत्मनिर्भर एवं स्वावलंबी भारतीय अर्थवयवस्था निर्माण मे स्वदेशी की भुमिका

आत्मनिर्भर एवं स्वावलंबी भारतीय अर्थवयवस्था निर्माण मे स्वदेशी की भुमिका

स्वदेशी का अर्थ है देेेेश को आत्मनिर्भर बनाने कि भावना आत्मनिर्भरता प्रत्येक क्षेत्र में प्रौद्योगिकी ,उद्योग ,कृषि ,वाणिज्य ,प्रतिरक्षा, शिक्षा ,स्वास्थ्य, आदि सभी क्षेत्रो में  देेेश आत्म निर्भर हो यही स्वदेशी का अर्थ है ।

आज विश्व में ऐसा कोई भी देश नहीं है जो पूर्ण आत्मनिर्भर हो, तथा जो अपने ही संसाधनों पर खड़ा हो यह संभव भी नहीं है। विश्व के विकसित देश भी अपने उद्योगों और व्यापार के लिए यहां तक कि मानव संसाधन के लिए अन्य देशों पर निर्भर हैं,

अन्य देश भी पारस्परिक व्यापार पर निर्भर हैं तथा उद्योगों के लिए कच्चा माल तथा मानव संसाधन एक देश से दूसरे देश में आता जाता है इस स्थिति में स्वदेशी का अभिप्राय यह है पारस्परिक समानता के आधार पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग को स्वीकार करना और अंतरराष्ट्रीय समझौते करना।

इसी क्रम में एक बिंदु और आता है, वह है राष्ट्र की संप्रभुता और स्वतंत्र स्वतंत्रता की रक्षा। यह प्रश्न बहुत नाजुक पर प्रथम क्रम का है । इस अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में व्यवहार करते समय हम ऐसे समझौते संधियाँ  ना करें जो हमारी स्वतंत्रता और संप्रभुता को सीमित करते हो अथवा उन्हें आघात पहुंचाते हो।

स्वदेशी अनिवार्यत:राष्ट्रप्रेम और राष्ट्र के प्रति हमारी प्रतिबद्धता से जुड़ी भावना है । इसकी पृष्ठभूमि में राष्ट्र के उत्थान और वैभव की कामना है । एक आंदोलन के रूप में स्वदेशी, बहुराष्ट्रीय निगमों, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, गेट और विश्व बैंक जैसे संगठनों की उन नीतियों का विरोध करती है जो हमारा आर्थिक शोषण करते हैं अथवा जिनसे लगता है कि हमारी स्वतंत्र पहचान सीमित हो रही है।

इस रूप में यदि देखें तो स्वदेशी एक भावना और आंदोलन दोनों है और यदि दोनों को मिलाकर देखा जाए तो स्वदेशी ,एक प्रेरणा है जो हमें राष्ट्रीय स्वाभिमान और प्रगति की ओर अग्रसर होने के लिए शक्ति देती है ।

हमारा देश एक अरब से भी अधिक जनसंख्या वाला देश है इसमें मानव संसाधनों की कमी नहीं है, प्रशिक्षित और योग्य इंजीनियर, तकनीशियन, प्रबंधक और प्रशासक हमारे यहां हैं ।श्रम शक्ति भी है ,भूमि उर्वरा है जो विपुल प्राकृतिक संपदा ओं से युक्त है । कृषि योग्य भूमि का 40% भाग गंगा सिंधु नदी के बीच का है ।

यह लगभग 3000 किलोमीटर लंबा और 250 से 400 किलोमीटर चौड़ा है। इस मैदान में मृदा परत की मध्य की गहराई 1300 से 1400 मीटर तक आंकी गई है । जीवनदायी और भारत के प्रत्येक भाग में बहने वाली अनेक नदियां हैं । हमारे यहां पर्याप्त वर्षा होती है, धूप भी पर्याप्त है ,रितु क्रम भी स्वास्थ और उत्पादन के लिए अनुकूल है, वन संपदा अपार है ,खनिज पर्याप्त है।

 ऐसा देश आर्थिक दृष्टि से विपन्न और स्वाभिमान शुन्य  कैसे रह सकता है ? यह है कि हम शताब्दियों तक पराधीन रहे इस कारण हमारा अर्थ तंत्र छिन्न-भिन्न हो गया तथा ब्रिटिश काल में योजनाबद्ध तरीके से इसे छिन्न विभिन्न किया भी गया , पर आज जबकि हम स्वतंत्र हैं हम अपनी आर्थिक संपन्नता और पुराने वैभव को पुनः प्राप्त कर सकते हैं ।

वैभव और राष्ट्रीय स्वाभिमान की प्राप्ति के लिए समुचित अर्थव्यवस्था का विकास, आत्मनिर्भर होने के लिए लोगों में आत्मविश्वास की जागृति ,संभावित अंतरराष्ट्रीय खतरों के प्रति जागरूकता और उनका सामना करने के लिए शुद्धता प्राप्त करने के प्रयत्न तथा जन सामान्य को स्वदेशी के प्रति आकर्षित और प्रवृत करने की कार्य योजना निर्धारित करना तथा उसके लिए कार्य करना स्वदेशी का कार्य है।

स्वदेशी की व्यापक अवधारणा -स्वदेशी का संबंध केवल आर्थिक प्रश्नों तक सीमित नहीं है। यह साहित्य ,संस्कृति, राजनीति ,शिक्षा ,स्वास्थ्य ,जीवन शैली ,यहां तक कि राष्ट्र और स्वयं की पहचान से भी जुड़ा है। भाषा ,जीवनशैली, राजनैतिक प्रतिमान इन सब का संबंध स्वदेशी से है।

यही सब मिलकर हमारी पहचान बनाते हैं ।इस रूप में स्वदेशी की अवधारणा बहुत व्यापक है ।हमारी जीवन शैली कैसी हो, क्या हमें पाश्चात्य जीवनशैली अपनानी चाहिए या यहां के भूगोल ,प्रकृति और सांस्कृतिक परिवेश के योग से विकसित जीवनशैली अपनानी चाहिए।

ज्ञान के प्रति समर्पण, कार्य की पूजा ,स्वाध्याय ,चिंतन , सादा जीवन उच्च विचार ,अनासक्ति भाव,त्याग के साथ भोग ,भारतीय जीवन शैली की विशेषताएं हैं । यदि हम इन्हें छोड़कर उपभोक्तावाद की ओर जा रहे हैं ,ऋण लेकर भी जीवित रहने की जीवन शैली अपना रहे हैं, तो निश्चित ही हम स्वदेशी की भावना से दूर हो रहे हैं।

यही स्थिति भाषा को लेकर भी है , प्रत्येक व्यक्ति की मातृभाषा होती है उसकी एक राष्ट्रभाषा भी होती है। हम अपने बच्चों का शिक्षण किस भाषा में कराते हैं यह हमारे स्वाभिमान और विचार से जुड़ा हुआ प्रश्न है। यहां हम इस संबंध में यदि शिक्षा शास्त्रियों और मनोविज्ञान के विद्वानों की राय को छोड़ भी दें,

तो भी यह प्रश्न अपने आप में अहम है कि क्या हम शिशु वर्ग के बच्चों का अध्ययन, अध्यापन मातृ भाषा में कराएं अथवा विदेशी भाषा में करावे।  स्वदेशी का जिसमें भाव होगा वह मातृ भाषा में अपने शिशु के प्राथमिक अध्ययन को कराने की सोचेगा।

 राजनीतिक प्रतिमानो तथा राजनीतिक व्यवहार की बात भी स्वदेशी से जुड़ी हुई है। हमने प्रजातांत्रिक पद्धति को चुना है ।प्रजातंत्र केवल शासन का प्रकार ही नहीं अपितु जीवन पद्धति है। समाज और व्यक्ति को प्रजातंत्र के मूल भाव को समझकर अपने आचरण को तदनुसार मर्यादित करना पड़ेगा ।

प्रजातंत्र मनुष्य की गरिमा में विश्वास करता है वह सर्व धर्म समभाव (सर्व पंथ समभाव) मानव अधिकारों की प्रतिष्ठा और संविधान के प्रति सम्मान पर टिका है। स्वदेशी चिंतन इन प्रजातांत्रिक मूल्यों का सम्मान करने का भाव है ।

शिक्षा से स्वदेशी का बहुत बड़ा सरोकार है । क्या शिक्षा का अर्थ मनुष्य को केवल साक्षर करना है अथवा इसके आगे कुछ और भी ? आधुनिक शिक्षा व्यक्ति को साक्षर बना रही है और उसे ज्ञान, विज्ञान से समाज और अर्थ से संबंधित बहुत अधिक जानकारियां भी दे रही है।

प्रौद्योगिकी, संचार और तकनीकी प्रगति के साथ ही उदारीकरण और भूमंडलीकरण के कारण युवकों में आज नई सोच और नई जीवन शैली विकसित हो रही है जो युवकों को अपनी संस्कृति, सभ्यता, इतिहास और जमीन से काट रही है यदि यही क्रम चलता रहा तो डर है कि आगे चलकर कहीं हम अपनी पहचान ही ना खो दें। संकट की ओर विस्तार से ‘आट्विन टफ़लर ‘ ने अपनी पुस्तक ‘फ्यूचर शाक ‘में संकेत दिया है ।

शिक्षा में नैतिक मूल्य और मानवीय सम्मान का भाव समाप्त हो जा रहा है ऐसी स्थिति में समाज के हिंसक होने का डर पैदा हो रहा है। जो शिक्षा छात्रों में राष्ट्र भाव और सामाजिक प्रतिबद्धता पैदा नहीं करती वह शिक्षा  छात्र  में व्यक्तिवाद और अहंकार पैदा करेगी।

 स्वदेशी चिंतन समाज में उच्च शिक्षा का समर्थन करेगा जो संस्कार के साथ ही साथ राष्ट्र की चिति ethos के भी अनुरुप हो तभी हम राष्ट्रीय स्वाभिमान, मानव प्रेम और सामाजिक प्रतिबद्धता के भावों को विकसित कर सकेंगे।

स्वदेशी आंदोलन हममें भारतीय स्वाभिमान को जागृत करने का आंदोलन है । पाश्चात्य शिक्षा, संस्कार और संस्कृति के प्रभाव के कारण भारत में रहने वाला बहुत बड़ा प्रबुद्ध वर्ग स्वाभिमान शुन्य हो रहा है । हम अपने गौरवशाली इतिहास को भूलते जा रहे हैं । हमारे यहां ज्ञान ,विज्ञान, तकनीक ,प्रौद्योगिक ,चिकित्सा ,वास्तुकला आदि की बहुत लंबी और समुन्नत परंपरा रही है पर  क्या इस तथ्य से हम परिचित हो रहे हैं ?

डॉक्टर अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक भारत 2020 नव निर्माण की रूपरेखा में अत्यंत दुखी होकर लिखा है कि “अपने पुराने इतिहास के किसी काल- विशेष में, हमने स्वयं अपने ऊपर विश्वास करना छोड़ दिया था और हमारी यही मनोदशा आज तक बनी हुई है।” डाक्टर कलाम लिखते हैं कि- ” इस मिथक को कि विदेशी हमसे हर लिहाज से बेहतर हैं , उन लोगों ने फैलाया है ,जिनसे बेहतर सोच की उम्मीद की थी।

ऐसे लोग सपने में भी यही यकीन नहीं कर सकते कि हम भी प्रौद्योगिकी में श्रेष्ठता का प्रदर्शन करने की आकांक्षा कर सकते हैं । विदेशीयत की श्रेेेष्ठता  और  अपने सम्बध मे हीनता बोध  की जो मानसिकता है यह भारत को महान बनाने में सबसे बड़ी बाधा है।”

हम समुन्नत और प्राचीन संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं। हमारी एक सुंदर और रतनगर्भा भूमि है , इस पर हमारे जीवन मूल्य और जीवन पद्धति विकसित हुई है, हमारा इतिहास, पंचांग, परंपरा ,संस्कार , धर्म और संस्कृति है यह सब मिलकर हमारी पहचान बनी है । यही हमें अन्य से अलग भी करती है। इस रूप में स्वदेशी ऐसी अवधारणा है जो हमें भारतीय होने का एहसास कराती है ।

ब्रिटिश काल में भारत का आर्थिक शोषण अंग्रेजी के आगमन तक भारत आर्थिक दृष्टि से समुन्नत देश था मुगलों ने भारतीय संपत्ति को लूटा अवश्य पर भारतीय अर्थव्यवस्था को छिन्न  विभिन्न नहीं किया था।अंग्रेजों के आगमन के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने का कार्य प्रारंभ हुआ।

भारत के वस्त्र उद्योग, लोह शोधन उद्योग ,कुटीर उद्योग और दैनंदिन काम में आने वाली वस्तुओं का निर्माण करने वाले उद्योगों को धीरे-धीरे नष्ट किया जाने लगा  तथा भारतीय पैसे को इंग्लैंड ले जाने का कार्य किया गया । उद्योगों को नष्ट करने के साथ ही पंचायत व्यवस्था को भी नष्ट करने का कार्य किया गया ।भारतीयों पर अधिक से अधिक कर लगाए गए ।

भारत से कितना रुपया इंग्लैंड भेजा गया इसका अंदाजा इस रूप में लगाया जा सकता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी प्रतिवर्ष ₹250000000 भारत से इंग्लैंड को भेजते रहें यदि हिसाब लगाया जाए तो प्लासी युद्ध 1757 से वाटरलू युद्ध 1815 के बीच 55 वर्षों में लगभग 1000 मिलियन पाउंड यानी 15 अरब रुपया ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत से इंग्लैंड भेजा ।

ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में अंग्रेजी शासन ने किसानों पर लगातार लगान में वृद्धि की । 1765 -66 में जो   1470000 पौंड था वह 1936 – 37 में बढ़कर दो करोड़ 39 लाख पौण्ड हो गया। विचारको और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इसी धनराशि से इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति संभव हुई।

 इंग्लैंड में 1760 में फ्लाइंग शटल का आविष्कार हुआ, 1668 में वाष्प इंजन बना ,1785 में बिजली के करधे  का आविष्कार हुआ। एक एक राज्य को अंग्रेज भारत में अपने अधिकार में लेते गए और वहां इंग्लैंड में उसी क्रम में विकास होता गया ।

पहले इंग्लैंड की उद्योग और तकनीकी दृष्टि से स्थिति ठीक नहीं थी और बाद में भारतीय उद्योगों को धीरे-धीरे नष्ट किया गया और यहां का कच्चा माल मैनचेस्टर और लंका शायर ले जाकर वहां के उद्योगों को बढ़ावा दिया गया ।भारत से ब्रिटेन जाने वाली वस्तुओं पर भारी निर्यात कर लगा दिया गया और ब्रिटेन से भारत आने वाले मार्ग पर से हल्का कर दिया गया उदाहरण के लिए ब्रिटेन से भारत की जो तैयार सूची माल आता था,

उस पर 3:30 प्रतिशत घटकर लगता था और उन्हीं माल पर 2% तटकर लगता था इसके विपरीत  भारत से बाहर जाने वाले सूती माल पर 10% तट  कर और उनी माल पर 30% तट कर,परिणाम यह हुआ कि भारत से बना तैयार माल का निर्यात निरंतर घटता गया और इंग्लैंड से आने वाले तैयार माल का आयात बढ़ता गया।

ब्रिटिश काल  में स्वदेशी चिंतन- सन 1861 में ‘ जातीय गौरव संपादनी’ सभा नाम से एक संस्था मेदनीपुर बंगाल में स्थापित हुई इसके संस्थापक थे श्री राज नारायण बसु।  यह सभा 6 वर्ष बाद प्रसिद्ध हिंदू मेला में परिणत हो गई । मार्च 1866 में इसका पहला मेला आयोजित हुआ । इस मेले में स्वदेशी का नारा पहले पहल दिया गया और यह कहा गया कि लोग स्वदेशी वस्तुओं का व्यवहार किया करें ।

दयानंद सरस्वती ने 1871 के लगभग स्वदेशी पर जोर दिया प्रसिद्ध क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के ने 1873 में स्वदेशी वस्तुएं उपयोग में लाने की सार्वजनिक प्रतिज्ञा कि इसके विपरीत पूर्व न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे ने पुणे में स्वदेशी व्यापार विषय पर या दो व्याख्यान दिए थे ।

बहुराष्ट्रीय कंपनियां और भारत

वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के परिणाम स्वरुप आज विश्व व्यापार और देश के औद्योगिक विकास के प्रयत्नों में भारी परिवर्तन आया है । आर्थिक और औद्योगिक विकास के लिए विश्व के अनेक देश बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने यहां उद्योग लगाने के लिए आमंत्रित करते रहे हैं ।

इसके पीछे दृष्टि यह रही है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां विकास के लिए आवश्यक तकनीक और पूंजी उस देश में लगाएंगे । मोटे तौर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी व्यापारिक कंपनियां हैं जो अपने अंश धारकों के लाभ के लिए मूल देश से बाहर व्यापारिक गतिविधियां, बिक्री, वितरण, उत्पादन ,शोध एवं विकास से संबंधित कारोबार करती हैं ।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों से उम्मीद थी, कि उनके कारण रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे, नई प्रौद्योगिकी आएगी और भारत और औद्योगिक दृष्टि से मजबूत और विकसित देश बन सकेगा। पर यह आशाएं फलीभूत नहीं हुई।

वास्तविकता यह है कि रोजगार के नए अवसर मिलना तो दूर रोजगार के अवसर कम हो गए । इसी प्रकार नई प्रौद्योगिकी के स्थान पर विकसित देशों द्वारा पुरानी प्रौद्योगिकी ही बेची गई ।आशा के अनुरूप विदेशी पूंजी भी भारत में नहीं आ सकी। उल्टे बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश के संसाधनों का दोहन ही करती रही।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अंतर्राष्ट्रीय बाजार, तकनीक और वित्त पर लगभग एकाधिकार प्राप्त किया हुआ है।आधे से अधिक अंतरराष्ट्रीय व्यापार इन्हीं कंपनियों अथवा उनकी सहयोगी इकाइयों के पास है। विश्व के करीब 90% तेल स्रोत पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अधिकार है , इस कारण कीमतों के निर्धारण में इन कंपनियों को लगभग एक अधिकार मिला हुआ है ।

बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश के स्थापित कानूनों की कमजोरियों का लाभ उठाती हैं और शुद्ध लाभ प्राप्त की दृष्टि से ही काम करती हैं । उनके सामने सामाजिक हित और समाज सेवा का भाव नहीं होता। बहुराष्ट्रीय कंपनियां राजनीतिक रिश्वतखोरी का प्रयोग खुले रुप में करती हैं ।

राजनीतिक दलों को आर्थिक सहायता ,आवश्यक स्थलों पर कमीशन देना ,अधिकारियों और राजनेताओं के निहित स्वार्थों की पूर्ति करना ,इन कंपनियों की रीति नीति  का हिस्सा है, इस प्रकार यह कंपनियां राजनेताओं, अधिकारियों और समाज को भ्रष्ट करने का कार्य करती हैं ।

टर्मिनेटर नपुंसक बीज और किसान- बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कृषि पर भी अपना अधिकार जमाने के प्रयत्न आरंभ कर दिए हैं । उनकी कोशिश है कि भारतीय किसानों को टर्मिनेटर जीन युक्त ऐसे बीज दिए जाएं जिनसे दोबारा होने लायक बीज प्राप्त ना हो अर्थात नपुंसक या बांझ बीज  दिए जाएं।

आज बहुसंख्यक किसान अपनी फसल से ही अच्छी किस्म को चुनकर अलग अगले वर्ष के लिए उन्हें बीज के रूप में बचा कर रख लेता है और यदि टर्मिनेटर बीज से फसल तैयार की तो अगले वर्ष के लिए बीज प्राप्त नहीं होंगे। अगले वर्ष बोने के लिए नए सिरे से बीच बाजार से खरीदने पड़ेंगे।

यह बीज विदेशी कंपनियों के पेटेंट लगे बीज होते हैं, जिन्हें विदेशी कंपनियां एक दो बार देने के बाद महंगे दामों पर देंगे और किसान का शोषण करेंगे । अभी तक देश में बीजों व पादप प्रजाति के पेटेंट के प्रावधान नहीं थे । विश्व व्यापार संगठन के दबाव में आकर हमें ऐसा करना पड़ा है ।

कई विकासशील देशों में ऐसे अनुबंधित किसान कंपनियों से प्राप्त बीज के बदले में अपनी सारी फसल उसी कंपनी द्वारा तय दामों पर बेचने के लिए मजबूर हुए हैं। भारत में भी पेप्सी कंपनी ने कुछ वर्ष  पुर्व पंजाब के 500 किसानों की 3500 हेक्टेयर जमीन भी ऐसे ही करार कर ली थी ।

पानी का भी व्यापार- बहुराष्ट्रीय कंपनियां आज दुनिया भर में पेयजल के व्यापार में उतर पड़ी है । व्यापार के बहाने पानी पर नियंत्रण करना चाहती हैं । यदि ऐसा हुआ तो पानी के बहाने लोगों के जीवन पर भी उनका नियंत्रण होगा पेयजल समस्या से जूझ रहे लोगों के लिए बाहर से पानी लाकर बेचने की योजना बनाई जा रही है ।

 विदेशी प्रौद्योगिकी और स्वदेशी विचार – आर्थिक विकास के लिए अनुकूल प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना आवश्यक और महत्वपूर्ण है । तकनीकी और प्रौद्योगिकी प्रत्येक देश की अलग अलग हो सकती है।

एक देश अपनी तकनीकी को दूसरे देश पर जहां मानव शक्ति की उपलब्धता और अनुपात अलग है बलात रूप में लागू नहीं कर सकता । प्रत्येक देश  अपने अनुरूप तकनीक, उत्पादन, उपयोग और बाजार के चुनाव के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। यह स्वदेशी विचार की मूल भावना है ।

भारत के संबंध में भी यह कहा जा सकता है कि विश्व में मॉडर्न टेक्नोलॉजी की कोई कमी नहीं पर हमें अपनी परिस्थिति, आवश्यकता और मानव शक्ति की  उपलब्धता , को ध्यान में रखकर ही मॉडर्न टेक्नोलॉजी लेना चाहिए ।

सारांश –

स्वदेशी भावना इस बात पर जोर देती है ,कि हम स्वयं अपनी प्रौद्योगिकी विकसित करें और अपने विकास का रास्ता खुद चुनें । भारत के पुर्व राष्ट्रपति  राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम ने इस संभावना को यथार्थ बनाने का साहस पूर्ण विश्वास व्यक्त किया है।

उनका कहना है कि विदेश से कोई तकनीक सहायता लिए बिना हमारे लिए जो आवश्यक तकनीक है, उसका विकास हम स्वयं कर सकते हैं और हमारे वैज्ञानिक और तकनीशियन 2020 तक भारत को विश्व के अग्रिम देशों की पंक्ति में बिठा सकते हैं।

यदि विकासशील देशों की श्रेणी से विकसित देशों की श्रेणी में पहुंचना है, तो दुनिया का कोई भी देश हमें सहयोग देकर विकसित देशों की श्रेणी में ले जाकर बैठाने वाला नहीं है ।वास्तविकता तो यह है कि कई रास्ट्र ऐसा होने देने से हमें रोकेंगे।

वे अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाएंगे। आणविक परीक्षण के पश्चात विकसित देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की हमें जानकारी है। हमारी प्रगति अन्य देशों में अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाओं को जन्म देगी। उन प्रतिक्रियाओं का सामना हम स्वदेशी की प्रेरणा से ही कर सकेंगे।

हमें अपनी प्रौद्योगिकी विकसित करना पड़ेगा क्योंकि प्रोद्योगिकी,आर्थिक,सामरिक ,स्वास्थ्य ,कृषि सभी क्षेत्रों में सफलता का आधार है । भारत को समुन्नत राष्ट्र बनाने के लिए स्वदेशी संस्कार और स्वदेशी के लिए आग्रह अनिवार्य है । प्रत्येक भारतीय  का यह स्वभाव होना चाहिए कि वह स्वदेशी भावना को अंगीकार करे और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करें।

देसी की अवधारणा में स्व का अधिक महत्व है, स्व के बोध को प्रधानता देते हुए जब अमेरिका, कोरिया ,जापान, आदि देश अपने उत्पाद पर गर्व कर सकते हैं तब भारतवासियों को भी अपने देश के उत्पादों पर गर्व करना चाहिए।

कुलदीप तिवारी                                                                                                            (लेखक एवं सामाजिक विचारक)