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आदिवासी बनाम वनवासी

तकनीकी अर्थाें में भारतीय संविधान में जिन्हें अनुसूचित जनजाति अधिसूचित करके आरक्षण की सुविधा दी गई है। उन्हें व्यावहारिक अर्थाें में आदिवासी कहा जाए अथवा वनवासी, एक लम्बे विवाद का विषय है। आदिवासी कहे जाने के पक्षधर वह लोग हैं जो यह मानते हैं कि यह समुदाय भारत का मूल निवासी है और आर्याें ने बाहर से आकर इस देश पर कब्जा कर लिया और इन्हें जंगलों में धकेल दिया। जबकि ये वनवासी हैं- ऐसा मानने वालों का कहना है कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आए हैं बल्कि इसी देश के हैं और अधिकतर वनवासी भी उन्हीं आर्याें में से हैं। कतिपय कारणों वस यह समुदाय वनों एवं जंगलों में शहरी सभ्यता के चकाचौंध से दूर रहने लगा, इसलिये मूलतः इन्हें वनवासी कहा जाना चाहिये। यूँ तो रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में मूलतः इन आदिवासियों अथवा वनवासियों को भी बाहर से आना बताया है और इन्हें औष्ट्रिक या आग्नेय जाति का माना है। उनके अनुसार इनका आग्नेय नाम ही इसलिये पड़ा कि ये यूरोप एवं भारत के अग्निकोण में पाये जाते हैं। इसी तरह से जिन्हें किरात कहा जाता है, उन्हें चीन, तिब्बत से आना बताया जाता है जो वनों एवं कंदराओं में बसते थे। अब जहाँ पश्चिम के विद्वानों का प्रायः मानना है कि आर्य मूलतः इसी देश के हैं। डॉ. अविनाश चन्द दत्त आर्याें का आदि निवास स्थान कश्मीर और पंजाब बतलाते हैं। श्री एल.डी. कल्ला हिमालय की उपत्यका और काश्मीर को आर्याें का आदि निवास बतलाते हैं। डॉ. राजबली पाण्डेय आर्याें के आदि निवास स्थान को मध्य देश कहते हैं, जिससे उनका तात्पर्य उत्तरप्रदेश एवं बिहार से है।

हम जिन्हें आदिवासी व वनवासी कहते हैं उसकी एक प्रमुख जाति गोंड़ स्वयं को कोइतर कहती है। जिसका अर्थ है कि क्षत्रिय यानी योद्धा। पौराणिक काल में पर्वतवासियों को नाग कहते थे। संस्कृति में पर्वत को नाग कहते हैं, इस तरह से नाग यानी पर्वतों में बसने वाले। इसी तरह से नागवंश की भी बात चली। कवर्धा के राजा अपने को नागवंशी कहते थे। नाग नदी जो अब नाला है उसके किनारे नागपुर शहर बसा है। चन्द्रपुर के राजा भी नागवंशी आक्रांताओं को हराया और बड़े-बड़े अश्वमेध यज्ञ किये। गोंड़ नाम वस्तुतः मुगलों का दिया हुआ है जो बाद में सर्वत्र चल पड़ा। वस्तुतः यह समाज सदैव से भारतीय समाज व राष्ट्र का अविभाज्य अंग रहा है। इन्हें हम जनजाति के नाम से भी सम्बोधित कर सकते हैं। रामायण एवं महाभारत कथा के अनुसार जनजातियों के सुदृढ़ सुसंस्कृत राज्य थे। इन्होंने सिकन्दर से लेकर अंग्रेजों तक हर आक्रमणकारी का प्रतिकार किया। सारे भारत में लगभग साढ़े तीन सौ जनजातियाँ हैं जो अलग-अलग भाषा-भाषी और अनेक प्रकार की पूजा पद्धतियों में विश्वास करने वाली हैं। नागालैण्ड से गुजरात एवं हिमालय से केरल तक विस्तृत भू-भाग में इनका निवास है। अंग्रेजों ने यह गलत मान्यता मूलबद्ध किया कि वनवासी एनिमिस्ट यानी प्रकृतिपूजक हैं। सिर्फ वनवासी ही नहीं अन्य हिन्दू भी वृक्ष एवं प्रकृति का पूजक होने के कारण अहिंसा तत्व में विश्वास रखने वाला होता है। वृक्षों में भी आत्मभाव की उपस्थिति की मान्यता है। अतः भारत के प्रत्येक हिन्दू के जीवन में आचार-व्यवहार में पर्यावरण की रक्षा को महत्वपूर्ण माना गया है। वनवासियों के जीवन में तो यह विशेष रूप से दिखेगा।

वनवासी और शेष हिन्दुओं में कोई तात्विक भेद नहीं है, यह कई उदाहरणों से देखा जा सकता है। मणीपुर के मैदानी इलाकों में वैष्णवजनों की आबादी है एवं पहाड़ों में नागा लोगों (वनवासी) की। मैदानी इलाकों में लाई हरोबा नामक उत्सव प्रति वर्ष मनाया जाता है जो बहुत महत्व रखता है। इस उत्सव में वे यदि आते हैं तो सम्पूर्ण वर्ष सुख-शांति से बीतता है। ओड़ीसा में पुरी के जगन्नाथ मंदिर के उत्सवों एवं धार्मिक विधानों में शबर जाति के वनवासियों की विशेष भूमिका है। इनकी उपस्थिति के बिना इस समारोह की पूर्ति हो ही नहीं सकती। राजस्थान के मेवाड़ में महाराणा के राजतिलक के अवसर पर महाराणा को राजतिलक देने वाला अपने खून से महाराणा के मस्तक पर तिलक लगाता है जो भील जाति का होता है। राजस्थान के नाथद्वारा के अन्नकूट उत्सव के दिन श्रीनाथ जी के समक्ष प्रसाद रखा जाता है। उस प्रसाद को जनता के समक्ष तभी वितरित किया जाता है जब भील लोग उस प्रसाद को सर्वप्रथम ग्रहण कर लें। अब अलगाववादी और वनवासियों को प्रकारान्तर से हिन्दुओं से अलग बताने वाले कहते हैं कि ये बूढ़ादेव की पूजा करते हैं, जबकि बूढ़ादेव वस्तुतः महादेव या शंकर जी हैं। इसका उदाहरण यह भी है कि पंचमढ़ी के महादेव की यात्रा अन्य लोगो के साथ गोंड़ जाति के लोग भी करते हैं। असम के भुवनमोहन पहाड़ में विष्णु व लक्ष्मी का विग्रह है। इसकी यात्रा वनवासी लोग (नागा) भी परम्परा से करते आये हैं। वनवासियों के जो ग्राम देवता कहे जाते हैं उनकी पूजा वनवासियों के अलावा दूसरे हिन्दू सामान्य तौर पर करते हैं।

वनवासियों के उत्पत्ति की कथा भी पूरी तरह से हिन्दू मान्यताओं पर आधारित है। मंडला क्षेत्र में गोड़ो में संसार फिर आदमी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक कथा महादेव से जुड़ी प्रचलित है। इन वनवासियों में भी दीवाली, तीज, हरछठ, होली सभी त्योहार हिन्दुओं की तरह ही मनाये जाते हैं। गोंड़ समाज ही नहीं अन्य जाति भी जो वनवासी कही जाती है पारम्परिक रूप से सिर में चोटी रखती थी। किसी भी पूजन कार्य में चाहे घर में हो या बाहर हो- हवन करती थी, कहते हैं। सूर्य की उपासना, गौरा-पूजन नाच, महादेव-पूजन नाच इनकी संस्कृति का अभिन्न अंग है जिससे पता चलता है कि ये सभी हिन्दू हैं। गोपथ ब्राम्हण उसीवर जनजाति की चर्चा करता है तो आत्रेय ब्राम्हण शिवि जनजाति के शासकों का वर्णन करता है। वस्तुतः तथाकथित आर्य भी जनजातियों के ही समूह थे।

आरम्भिक गोंड़ राजाओं के साथ अन्य क्षत्रिय राजाओं के कन्याओं का विवाह सामान्य बात थी। इससे भी यह सिद्ध है कि गोंड़ क्षत्रिय ही हैं। ब्राम्हणों ने ऐसे शासकों की वंशावलियाँ तैयार कीं, जिसमें प्राचीन सूर्यवंश मूल का इन्हें बताया गया है। गोंड़ो ने हमेशा ब्राम्हण पुरोहित रखे। इस सम्बन्ध में मढ़ा के शासकों द्वारा जारी की गई सनदें अब भी मिलती हैं- जिसमें श्री राम तथा श्री महाकाली के स्तुतिपरक वचन हैं। गोंड़ो ने अपने बताए मंदिरों में शिव, गणेश, दुर्गा एवं विष्णु की मूर्तियाँ स्थापित करायीं। चन्दवरदाई के पृथ्वीराज रासो में गोंड़ राजाओं का वर्णन मिलता है तथा पृथ्वीराज चौहान के निकट सम्बन्धियों में इनकी गणना होती थी। गोंड़ो के इष्टदेवों में बस्तर में दन्तेश्वरी, सरगुजा में कुदारगढ़ी, रायगढ़ में बूढ़ामाई या काली जो कि सभी दुर्गा के रूप हैं- पूजे जाते हैं। गोड़ो के सभी देवताओं के आगे देव लगता है। जैसे दूल्हादेव, नागदेव, कमरदेव, बाघम्बरदेव, सरनादेव इत्यादि। इनमें से करमदेव को छोड़कर सभी शिव के बोध हैं। 16 संस्कारों की अवधारणा इनमें भी है। कोया गोंड़ अपने को ठाकुर लिखते हैं, बहुत से सिंह लिखते हैं। इसका मतलब है कि सभी गोंड़ अपने को क्षत्रिय मानते हैं।

वस्तुतः आदिवासी कहे जाने के पीछे अलगावादी भावना है जो हिन्दू समाज में वैमनस्य तथा विद्वेष फैलाये रखना चाहती है। इसके पीछे धारणा यह कि जैसे अंग्रेज या मुसलमान बाहर से आये, वैसे ही आर्य भी बाहर से आये। जबकि आर्य कहीं बाहर से नहीं आये तभी तो उन्होंने हिमालय और गंगा का ही प्रशस्ति-गायन किया। यदि आर्य बाहर से आते, तो उनकी निष्ठा और आस्था के केन्द्र देश के बाहर ही रहते। परन्तु ऐसा कुछ नहीं है और उन्हीं आर्याें में ही उन्हीं वनवासियों या जनजातियों का भी समाहार है। वैसे भी अपने यहाँ ‘‘कृण्वतो विश्व आर्यः’’ यानी सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाने की, श्रेष्ठ बनाने की अवधारणा रही है। ऐसी स्थिति में अपने देश में सभी आर्य या श्रेष्ठ थे। बाद में कतिपय दोषों के चलते विभेदकारी बुराइयाँ आई। पर इतना तो तय है कि इन वनवासियों ने सदैव विदेशियों से लड़ा और उनके श्रद्धा-केन्द्र देश में ही रहे।

लेखक – वीरेन्द्र सिंह परिहार